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एड्स से बचे, शर्म में डूबे

भारत में एचआइवी/एड्स के मामलों की वार्षिक वृद्धि में 2000 से 57 प्रतिशत की कमी आई लेकिन सामाजिक तौर पर मरीज अब भी बहिष्कृत
ज्यादातर प्रचार अभियानों में विवाहेत्तर संबंध को एड्स का कारण बताया जाता है

हर शुक्रवार को दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में लंबी लाइनें किसी भी सरकारी चिकित्सा संस्थान के बाहर सामान्य भीड़ का एक टुकड़ा लगती हैं। लेकिन कई मायनों में यह कतार अलग है। शुक्रवार के दिन अस्पताल में एचआइवी पॉजिटिव पंजीकृत लोग पूरे महीने की एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) की दवा लेने आते हैं। सिर्फ उनकी बीमारी उन्हें दूसरों से अलग करती है। इसके बारे में वे अक्सर किसी को नहीं बताते या सिर्फ उन्हीं परिचित मरीजों से फुसफुसा कर बात करते हैं, जो एक-दूसरे के मर्ज से वाकिफ होते हैं। अधिकांश लोग यह जानना ही नहीं चाहते कि ये मरीज सिर्फ एचआइवी पॉजिटिव हैं या दुनिया भर में असाध्य बीमारियों में एक एड्स से पीड़ित हैं, जो सामाजिक बहिष्कार की भी वजह बनती है।

एचआइवी/एड्स के बारे में चिकित्सकीय नजरिए में पिछले तीन दशकों में चमत्कारी बदलाव आए हैं। दवाओं में लगातार नई खोज हो रही है और ये दवाएं समय पर मरीजों तक पहुंच रही हैं। माना जाने लगा है कि इस बीमारी पर भी मधुमेह की तरह बहुत हद कर काबू पाया जा सकता है। 1992 में शुरू हुए राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (एनएसीओ) ने अपने कार्यक्रमों के जरिए इलाज, परीक्षण सुविधाएं और परामर्श में सराहनीय कदम उठाए। एचआइवी पॉजिटिव लोगों में 60 प्रतिशत से अधिक सरकारी केंद्रों में उपचार लेते हैं। जो लोग इससे प्रभावित हैं उन्हें केंद्रों तक लाया जाता है जहां उन्हें एआरटी थेरेपी का लाभ मिलता है। हालांकि अभी भी भारत में 21.17 लाख ऐसे लोग हैं जो इससे पीड़ित हैं। लेकिन 2000 से नए संक्रमण वाले लोगों की संख्या में सालाना 57 प्रतिशत की दर से कमी आई है। फिर भी इससे जुड़े सामाजिक बहिष्कार में कमी के संकेत नजर नहीं आते। जागरूकता अभियानों के बाद भी मरीज सामाजिक रूप से बहिष्कृत होते हैं। ऐसा कहा जा सकता है क्योंकि इस लेख के लिए ऐसा एक व्यक्ति नहीं मिला, जो अपना नाम या फोटो देना चाहता हो। 

27 साल का एचआइवी पॉजिटिव प्रयाग दिल्ली के सराय काले खां इलाके में अकेला रहता है। एक स्थानीय अस्पताल में रक्तदान के दौरान उसे एचआइवी संक्रमण लग गया। प्रयाग को एचआइवी प्रोग्राम से जुड़ कर परामर्श की जरूरत थी लेकिन उसमें इतना साहस ही नहीं था कि वह अपने माता-पिता को बताता कि उसे यह बीमारी है। आखिरकार पिछले साल उसने यह साहस जुटाया। उसके पिता ने उससे बात करना बंद कर दिया है और मां चिंतित रहती है कि अब उसकी शादी नहीं होगी। अधिकांश लोग इसे अभी भी सेक्स संबंधित बीमारी मानते हैं और उनकी धारणा है कि यह केवल होमोसेक्चुअल या फिर अक्सर वेश्यावृत्ति करने वालों को होती है। इस कारण बीमारी को इतना गोपनीय रखा जाता है। 

एचआइवी/एड्स कार्यकर्ता लक्ष्मी कहती हैं, “ज्यादातर एंटी एड्स कैंपेन में, यहां तक कि सरकार द्वारा चलाए गए प्रारंभिक चरण के अभियानों में भी बताया जाता था कि विवाह से इतर बनाए गए संबंधों के कारण एड्स होता है। लोगों को पता नहीं होता कि इसकी चपेट में आने के और भी कारण होते हैं या इसके हो जाने के बाद शरीर पर क्या असर होता है।” एचआइवी पॉजिटिव लोग धारणा बना लेते हैं कि उन्हें मौत का वारंट पकड़ा दिया गया है जबकि अब इस बीमारी पर काबू पाना आसान है।

मुंबई में रहने वाली 35 साल की सीता ऐसा ही सोचती थीं। वह कमजोरी और वजन घटने का अनुभव कर रही थी। जांच में पता चला कि वह एचआइवी पॉजिटिव है। कुछ दिन पहले ही सीता का पति उसे छोड़ कर दूसरी महिला के साथ गायब हो गया, वह एचआइवी पॉजिटिव था। सीता ने एड्स के बारे में अपने गांव वालों से जो कहानियां सुनी थीं, वे इतनी खौफनाक थीं कि उसे लगने लगा कि अब जल्द ही उसकी मौत निश्चित है। उसे परामर्श केंद्र ले जाया गया और समझाया गया कि वह केवल समय पर दवा लेती रहे तो बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। उसने आउटलुक से कहा, “मुझे समझाया न गया होता तो मैंने खुद की जान ले ली होती।” 

दिल्ली नेटवर्क फॉर पर्सिटिव पीपुल (डीएनपी+), एनजीओ के साथ काम कर रहे सहायक विनोद मेहरा, सुनिश्चित करते हैं कि लोग सरकारी डिस्पेंसरियों से समय पर एआरटी प्राप्त करें। वह अक्सर उन लोगों के साथ अस्पताल जाते हैं और रोगियों और परिवारों को समझाते हैं। वह कहते हैं,  “यह कठिन काम है लेकिन मैं जानता हूं कि मैं इकलौता वह शख्स हूं जिस पर मरीज भरोसा करते हैं।” अक्सर वह ऐसे कुछ लोगों में से होते हैं जो जानते हैं कि मरीज किस स्थिति में रह रहा है।

नाको (एनएसीओ) का पूरा कार्यक्रम ऐसे डिजाइन किया गया है जिसमें बीमारी के उदाहरणों को ज्यादा से ज्यादा पीड़ितों तक पहुंचाया जा सके। लोगों का यह समूह उन लोगों के संपर्क में रहता है जिनके इस बीमारी की चपेट में आने की संभावना ज्यादा रहती है। प्राथमिक तौर पर इनमें सेक्स वर्कर, ट्रक ड्राइवर, ड्रग्स लेने वाले और गर्भवती महिलाएं होती हैं। नाको के डिप्टी डायरेक्टर जनरल आर. एस. गुप्ता के अनुसार, इससे टारगेट ग्रुप को जानकारी देने के साथ उन मरीजों की स्थिति पर नजर रखना मुमिकन होता है जो एचआइवी पॉजिटिव हैं और जिन्होंने पंजीयन करा लिया है। वह कहते हैं, “इससे हमें मरीजों को ठीक तरह से दवा देने में न सिर्फ मदद मिलती है बल्कि हम सुनिश्तित कर पाते हैं कि वे इस बीमारी को आगे फैलने से रोकने के लिए जरूरी सावधानी भी बरतें।

इस तरह के समूह को लक्ष्य कर किए गए कामों का परिणाम अब दिखने लगा है। उदाहरण के लिए सेक्स वर्कर्स को ही लें। अब रेड लाइट एरिया से इस बीमारी के फैलने का खतरा कम हो गया है। दिल्ली में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक कार्यकर्ता कहते हैं, “हमने देखा है कि सेक्स वर्करों के बार-बार परीक्षण की जरूरत होती है ताकि वे अपने काम के चलते इसकी चपेट में न आ जाएं। यही कारण है कि इन जगहों से एचआइवी के साथ पैदा होने वाले बच्चे और वयस्क दोनों में नए मामले कम सामने आए हैं। लक्ष्मी कहती हैं, “महिलाएं बहुत खुल कर बात करती हैं और अपनी कहानी और परेशानी साझा करने में डरती या झिझकती नहीं। वे सिर्फ रिश्तेदारों के बीच में पड़ने पर ही चुप्पी साधती हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि लोग उनके बारे में राय बनाएंगे। हालांकि गुप्ता का कहना है कि सेक्स वर्कर समुदाय के बीच प्रयास अपूर्ण है और ये अब भी सरकारी समूहों का ही टारगेट ग्रुप है।

उन समूहों में कम प्रगति हुई है जिन समूहों में जोखिम कम है जैसे, गृहिणियां और दूसरे क्षेत्रों में काम करने वाले कामगार। नाज फाउंडेशन एनजीओ की निदेशक अंजली गोपालन कहती हैं, “गृहिणियों या उन लोगों को शिक्षित करने के लिए कोई काम नहीं किया जा रहा जिनका संबंध एक ही व्यक्ति से है। इसका मतलब है कि जब भी कोई विवाहित महिला इस बीमारी के संपर्क में आती है, बिना किसी ज्ञान या जानकारी के वह सोचती रह जाती है कि उसे यह बीमारी कैसे मिली। हमारे देश में एड्स की बातचीत में महिलाओं और बच्चों को छोड़ दिया जाता है।”

एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी का वितरण और पहुंच अक्सर समस्याओं से भरा होता है। सभी एचआईवी रोगियों में से 90 फीसदी से ज्यादा इलाज के लिए सरकारी सुविधाओं की तलाश में रहते हैं। इसमें दवाओं की लगातार पहुंच सबसे बड़ा कारक है। फिलहाल देश में 530 सरकारी एआरटी केंद्र और 1000 एआरटी केंद्रों से जुड़ी जगहें हैं जो एआइवी/ एड्स पीड़ित लोगों तक निशुल्क दवाएं पहुंचाती हैं। लेकिन ये लोग अक्सर सप्लाय चेन मैनेजमेंट के मुद्दों से जूझते हैं और इसके परिणामस्वरूप बहुत से मरीजों तक समय से दवा नहीं पहुंच पाती। डीएनपी+ के संस्थापकों में से एक और एड्स सरवाइवर पाउल लुंगडिम खुद इस मुद्दे से लड़ने के बारे में सोच रहे हैं। वह कहते हैं, “एआरटी की प्रकृति ऐसी है, यदि रोगी को कुछ खुराक भी न मिले तो दवा के प्रति प्रतिरोध विकसित करने का जोखिम बढ़ जाता है।”

लुंगडिम के अनुसार, हाल ही के ऐसे कई उदाहरण हैं जब  सरकार एआरटी दवा की लगातार आपूर्ति करने में विफल रही। वह 2013 का एक वाकया याद करते हैं जब दिल्ली केंद्र में दवा का स्टॉक नहीं था, “तब दवाइयां उपलब्ध कराने के लिए हमें 11 दिनों तक प्रदर्शन करना पड़ा था।” गुप्ता भी, आवश्यक देखभाल उपलब्ध न कराने को गंभीर समस्या के रूप में स्वीकार करते हैं। “ऐसे कई उदाहरण हैं जहां सरकारी दवाइयों को स्टॉक न होने का सामना करना पड़ा है। वह कहते हैं, ‘‘यह लगभग 20 प्रतिशत एआरटी केंद्रों और स्टॉकर्स के बीच समन्वय की कमी होने के कारण है।” वह कहते हैं, “सरकार हर एआरटी केंद्र में रीयल-टाइम निगरानी प्रणाली की स्थापना के माध्यम से इस समस्या को हल करने की तलाश में है, लेकिन कुछ समस्याएं बनी हुई हैं। लगभग 20 प्रतिशत केंद्र अभी भी लाइव ट्रैकिंग सिस्टम से नहीं जुड़े हैं। हम इसके बुनियादी ढांचे में सुधार की कोशिश कर रहे हैं।”

ज्यादातर रोगियों को क्या चाहिए यह निश्चित है। आउटलुक ने कुछ एचआइवी पीड़ित लोगों से बात की तो सभी की सामान्य जिज्ञासा थी, “यह कब ठीक होगा?” वैज्ञानिक और शोधार्थी कहते हैं, इसका उत्तर देना कठिन है। तुलनात्मक रूप से एड्स नई बीमारी है और यह केवल 35 सालों से हमारे आसपास है। एक शोधार्थी कहते हैं, “पोलियो और चेचक का इलाज खोजने के लिए भी सौ साल से ज्यादा का समय लगा।” दिल्ली स्थित इंटरनेशनल एड्स वैक्सीन इनिशिएटिव (आइएवीआइ) विशेष रूप से इस बीमारी के इलाज के साथ लोगों को खोज कर यह बीमारी न हो इसके लिए टीकाकरण का काम भी करती है। आइएवीआइ के हाल के ‘प्रोटोकॉल जी’ शीर्षक से किए गए अध्ययन में पाया गया कि उच्च जोखिम वाली आबादी में कुछ लोग, जो एचआइवी के संपर्क में थे, इस वायरस के प्रति इम्यून थे। अध्ययन में पाया गया कि ऐसा इसलिए था क्योंकि उनके पास एंटीबॉडी थी जो स्वाभाविक रूप से वायरस का प्रतिरोध कर सकती थीं। आइए‍वीआइ के प्रतिनिधि कहते हैं, “इसका मतलब है कि हम इस तरह के एंटीबॉडी बना सकते हैं और उनका टीका विकसित कर उपयोग कर सकते हैं। शोध ने हमें निकट भविष्य में एचआईवी के लिए टीका विकसित करने के एक कदम और करीब पहुंचा दिया है।” 

हालांकि यह अभी दूर की कौड़ी है। एड्स का वायरस बेहद मजबूत है और यह अपनी एंटीबॉडी बनाने के दौरान पहले से मौजूद एंटीबॉडी को नष्ट कर शरीर पर हमला करता है। आइएवीआइ के कंट्री डायरेक्टर डॉ. रजत गोयल कहते हैं, “एचआइवी टीके की खोज में, शोधकर्ता व्यापक रूप से तटस्थ एंटीबॉडी की पहचान करने में सक्षम हैं, जो एचआइवी की एक विस्तृत शृंखला के खिलाफ प्रभावी है।” आइएवीआइ के कंट्री डायरेक्टर डॉ. रजत गोयल कहते हैं, खोज की इस विकास यात्रा ने इसी तरह की अन्य बीमारियों के लिए जिम्मेदार समान एंटीबॉडीज के प्रति भी आशा की किरण जगाई है। एंटीबॉडी-आधारित उत्पादों को डिजाइन करने के लिए चल रहे शोध प्रयासों के साथ ये सस्ते, प्रभावी और उपयोग करने में आसान हैं। यहां तक कि यदि जल्दी इलाज की कोई उम्मीद न हो तब भी इसकी रोकथाम संभव है। लेकिन इन सबसे ऊपर, जागरूकता महत्वपूर्ण है। हमें बस एचआइवी / एड्स की चपेट में आए रोगियों को दोष देना बंद करना होगा।

मनीष यादव, 44 और मधु, 40 

नोएडा के एक गांव में रहते हैं। दोनों को 2017 से एचआइवी है। जनवरी 2017 में मधु की तबियत खराब हुई और दो महीनों में ही उसका वजन दस किलो कम हो गया। एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जाने के बाद आखिरकार उन्हें एचआइवी टेस्ट के लिए कहा गया, जो पॉजिटिव आया। इस वजह से मनीष का भी परीक्षण हुआ और उसका टेस्ट भी पॉजिटिव निकला। दोनों को पता नहीं था कि यह बीमारी उन्हें कहां से मिली। दोनों को मनोवैज्ञानिक के पास भेजा गया, जिसने उन्हें परामर्श दिया और एआरटी सेंटर से दवा लेने का इंतजाम भी किया। मनीष कहते हैं कि उन्होंने साहस बटोरा और सात महीने पहले परिवार को बता दिया। दोनों इस मसले में खुशकिस्मत निकले कि रिश्तेदारों ने इसे अच्छी भावना से लिया। मधु कहती हैं, यह उनके गांव में बढ़ती बीमारी की वजह से है।

रजनी और कुलजीत

दिल्ली में रहने वाले इस दंपती को 2010 में एचआइवी होने का पता तब चला जब कुलजीत टीबी के साथ बीमार पड़े और उन्हें घर के पास वाले सरकारी अस्पताल में करीब 14 किलो ऑक्सीजन देनी पड़ी थी। दोनों कहते हैं, वे एचआइवी के बारे में कम जानते हैं लेकिन जितना उन्होंने इसके बारे में जाना उतना ही उनमें परिवार और दोस्तों के प्रति सामना करने का डर बढ़ गया। उनके 14 और 16 साल के दो बच्चे हैं। दोनों को नहीं पता कि उनके माता-पिता एचआइवी पॉजिटिव हैं। इस बारे में केवल एक व्यक्ति जानता है और वह उनका काउंसलर है। अपने परिवार या दोस्तों को इस बारे में बताने का उनका काेई इरादा नहीं है क्योंकि उन्हें समाज से बहिष्कृत हो जाने का डर है। कोई परेशानी होने पर ही वे अस्पताल जाते हैं और हर बार इसके लिए उन्हें बहाने बनाने पड़ते हैं। घर पर ब्यूटी पार्लर चलाने वाली रजनी कहती हैं कि काम एकदम चौपट हो गया है क्योंकि अक्सर उनके पास काम के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती। 

 माया, 40

चंडीगढ़ में घरेलू सहायिका का काम करने वाली माया को आठ साल पहले पता चला कि उसे यह बीमारी है। वह जानती है कि उसे यह बीमारी अपने पति से मिली है। वह कहती है, “मुझे इस स्थिति में डालने के लिए मैं उससे बहुत नाराज थी। बाद में मैंने तय किया कि मैं उसे छोड़ कर अपनी नई जिंदगी शुरू करूंगी।” उसने दोबारा शादी कर ली है। पर उसे बच्चा पैदा करने से डर लगता है क्योंकि वह नहीं चाहती कि बच्चा इस बीमारी के साथ जिंदगी बिताए। किसी तरह उसने अपने नए सास-ससुर से यह बात छुपा कर रखी है। वह कहती है, “पति को बीमारी के बारे में बताना सबसे दर्दनाक अनुभवों में से एक था।” उसका पति उसे बहुत सहयोग करता है और उसे दवा लेने में मदद करता है।

कपिल, 25 

मोटर मैकेनिक कपिल ने जीवन में पहले से ही बहुत कुछ देखा है। उसके दो महीने के बच्चे की एचआइवी पॉजिटिव से मौत हो जाने के बाद ही उसे पता तब चला कि वह भी एचआइवी पॉजिटिव हो गया है। इससे पहले उसकी पत्नी का दो बार गर्भपात हो चुका था। वह ठीक ठीक नहीं कह सकता पर उसे लगता है क‌ि हो सकता ऐसा इस बीमारी की वजह से हुआ हो। बच्चे के गुजर जाने के बाद दोनों की अस्पताल में जांच हुई और एचआइवी पॉजिटिव होने की पुष्टि हुई। कपिल को अपने माता-पिता और परिवार को इस बीमारी के बारे में बताना पड़ा लेकिन उन लोगों ने उसे त्याग दिया। वह नहीं जानता कि वह कैसे इस बीमारी के संपर्क में आया। लेकिन अब इस लड़ाई में वह अकेला है।

 

 

 

 

 

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