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बीते 4,500 दिन, सोई सरकार

सरकारी उपेक्षा से जयपुर मेटल के मजदूर बेबस और लाचार
बहुरेंगे दिन? कारखाना दोबारा शुरू होने की उम्मीद में 4,500 दिन से धरने पर बैठे हैं कामगार

हसरतें टूटी हैं और हौसला भी। मगर वे अब भी लड़ रहे हैं। राजस्थान में बंद पड़ी सरकारी फैक्ट्री जयपुर मेटल के मजदूर पिछले 4,500 दिन से धरने पर बैठे हैं। इस दौरान कुछ मजदूरों ने खुदकशी कर ली। कुछ निराशा और अवसाद में चले गए और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने दिमागी संतुलन खो दिया। लेकिन, वे आज भी इस उम्मीद में लड़ रहे हैं कि किसी दिन कारखाने की चिमनी फिर धुंआ उगलेगी और उनके आंगन में धूप खिलेगी।

बिजली के मीटर बनाने वाला यह कारखाना कभी मजदूरों से गुलजार था। आज वीरानी ही इसकी पहचान है। राजस्‍थान की राजधानी जयपुर के रेलवे स्टेशन के करीब स्थित यह कारखाना, राज्य सरकार के मंत्रियों के बैठने की जगह शासन सचिवालय से भी ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन, मजदूरों के नारे को सुनने वाला कोई नहीं है। राज्य के श्रम मंत्री डॉ. जसवंत यादव का कहना है कि उन्हें इस मामले की कोई जानकारी नहीं है। यदि मजदूर मिलेंगे तो वे मदद जरूर करेंगे। सत्ताधारी भाजपा के निकट माने जाने वाली भारतीय मजदूर संघ की यूनियन इस कारखाने में है। लेकिन, मजदूर संघ भी सरकार को कारखाना फिर से शुरू करने के लिए राजी नहीं कर पाया।

मजदूर बताते हैं कि उन्हें न तो पूर्व की कांग्रेस सरकार से मदद मिली और न मौजूदा भाजपा सरकार से। मजदूर यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया लाल बताते हैं, “इस कारखाने में 60 फीसदी हिस्सेदारी मजदूरों की है। 20 फीसदी सरकार और बीस फीसदी वित्तीय संगठनों की हिस्सेदारी है। लेकिन, सरकारों ने इस फैक्ट्री को फिर से शुरू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई।” कन्हैया लाल ने बताया कि इस दौरान 450 श्रमिक दिवंगत, 400 श्रमिक सेवानिवृत्त हो गए और कम से कम दस मजदूर खुदकशी कर चुके हैं। वे कहते ह‌ैं, “अभी 700 मजदूर हैं, जिन्हें लगता है एक न एक दिन ये कारखाना फिर शुरू होगा।”

इस कारखाने की शुरुआत कमानी समूह ने 1943 में जयपुर मेटल ऐंड इलेक्ट्रिकल्स नाम से की थी। समूह के खिलाफ वित्तीय गड़बड़ियों की शिकायतें बढ़ने पर 1978 में सरकार ने इसे अपने हाथ में ले लिया। 1995 में पांच करोड़ रुपये से अधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनी बाद में घाटे और बदहाली में चली गई। यूनियन के मुताबिक, सरकारी अधिकारियों द्वारा मनमानी नियुक्तियां करने और गैरजरूरी मशीनों की खरीद से ऐसा हुआ। 2003 में उत्पादन बंद कर ‌दिया गया।

कारखाने के एक मजदूर हनुमान मेहरा बताते हैं, “जब कारखाना चलता था, मजदूरों के लिए हर दिन दिवाली थी। अब तो दिवाली भी बेचिराग हो गई है। हम कई बार मंत्रियों से मिले। लेकिन हर बार खाली हाथ लौटे।” शकूर मोहम्मद तो कारखाना फिर से शुरू होने की हसरत लिए ही रिटायर हो चुके हैं। हनुमान मेहरा ने बताया कि कुछ मजदूर धार्मिक जगहों पर पनाह लेकर जिंदगी बिताने को मजबूर हैं। इस लंबी और थका देने वाली लड़ाई में राहत का एक छोटा-सा लम्हा तब आया था जब मजदूरों को अंतरिम राहत के तौर पर तेरह माह का भुगतान मिला। मजदूरों के अब भी 70 करोड़ रुपये से ज्यादा बकाया हैं। मजदूरों के हक में कानूनी लड़ाई लड़ रही अधिवक्ता नमिता परिहार ने बताया, “कारखाने की मशीनें आज भी सही सलामत हैं। अभी उत्पादन शुरू किया जाए तो मशीनें काम करने लगेंगी। लेकिन, ऐसा करने में क्या सरकार की रुचि है?”

राज्य सरकार का कहना है कि मामला अदालत में लंबित होने के कारण वह कारखाना फिर से शुरू नहीं कर पा रही है। राज्य के उद्योग मंत्री राजपाल सिंह शेखावत ने आउटलुक को बताया, “सरकार ने इस फैक्ट्री को दोबारा शुरू करने के लिए योजना बनाई थी। लेकिन अदालत ने अस्वीकार कर दिया। अब हम अदालत के सामने फिर से योजना रखेंगे।” सूत्रों ने बताया कि कारखाने में निजी भागीदारी के लिए कई बार प्रयास किए गए हैं। एक प्राइवेट फर्म बैंकों का बकाया अपने नाम लेकर पक्ष बन भी गई है। लेकिन, निजी भागीदार कारखाने को दोबारा शुरू करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहे। उनकी निगाहें कारखाने की संपत्ति पर है। असल में, रेलवे स्टेशन के करीब होना जो कभी इस कारखाने की ताकत थी, वही आज उसकी कमजोरी बन गई है।

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