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मार्क्स आज और अधिक प्रासंगिक

हमने जातीय भेदभाव की अनदेखी नहीं की पर, अमल में हम कमजोर रहे। हम नफरत और शोषण के खिलाफ व्यापक मंच बना रहे हैं
मार्क्स द्विशतवार्षिकीः लंदन में दुनिया भर के मार्क्सवादियों के बीच सीताराम येचुरी

पिछली सदी में कार्ल मार्क्स के विचारों ने दुनिया में सर्वाधिक आलोड़न पैदा किया। 21वीं सदी में मार्क्सवाद को अप्रासंगिक माना जाने लगा था लेकिन करीब डेढ़-पौने दो दशक बाद वित्तीय पूंजीवाद की जकड़न और कट्टरतावाद की नई लहर के साथ मार्क्स के विचारों ने नए सिरे से दिलचस्पी जगाई है। ऐसे दौर में जब दुनिया भर में कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती मनाई जा रही है, तब भारत के संदर्भ में यह विचारधारा कितनी प्रासंगिक रह गई है? भारत में वामपंथ की सिकुड़ती जमीन के लिए मार्क्सवादी कितने जिम्मेदार हैं? कैसी-कैसी भूलें की गईं? नई परिस्थितियों में वामपंथ की राजनीति में कैसे बदलाव की दरकार है? इन्हीं सवालों पर माकपा महासचिव सीताराम येचुरी से अजीत सिंह ने बातचीत की। कुछ अंशः

-कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती के लंदन कार्यक्रम से आप हाल ही में लौटे हैं। वहां मार्क्स और मार्क्सवाद को लेकर कैसी चर्चाएं हो रही हैं? क्या  कोई विशेष सैद्धांतिक अवधारणा या नया विचार चर्चा में है?

मार्क्स आज भी प्रासंगिक हैं। हम यह बात हमेशा से मानते रहे हैं, लेकिन लंदन कार्यक्रम के दौरान मेरा यह यकीन और पुख्ता हो गया। पूंजीवाद का जो विश्लेषण मार्क्स ने 19वीं शताब्दी में किया था, अब 21वीं शताब्दी में उसकी प्रासंगिकता अलग ढंग से प्रकट हुई है। जो बुनियादी सिद्धांत उन्होंने दिया था, वह नए दृष्टिकोण से समझ में आ रहा है, आज भले ही शारीरिक श्रम का स्थान बौद्धिक श्रम ने ले लिया है। कहा जाता रहा है कि जब यह बदलाव होगा तब मार्क्स प्रासंगिक नहीं रहेंगे। लेकिन मार्क्स और ज्यादा प्रासंगिक हो गए। यह बात सबको समझ में आने लगी है कि बौद्धिक श्रम के रूप में आप उत्पादन या आउटपुट में जो योगदान करते हैं, उसके मुकाबले वेतन कम मिलते हैं। उत्पादन किसी भी तरीके से हो, श्रम का शोषण ही मुनाफे में तब्दील होता है। इसलिए अमीर अमीर हो रहा है, गरीब और ज्यादा गरीब। आठ खरबपतियों के पास दुनिया की आधी आबादी से ज्यादा संपत्ति है। इस तरह की असमानता और शोषण के बारे में ही मार्क्स ने आगाह किया था। इससे मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि उत्पादन के पूंजीवादी ढांचे को बदलना पड़ेगा। इस संदर्भ में लंदन में यह स्लोगन सुनाई दिया, ‘इट इज नॉट फाल्ट विदइन सिस्टम, द सिस्टम इटसेल्फ फॉल्ट’ (मामला व्यवस्‍था की गड़बड़ी का नहीं, यह व्यवस्‍था ही गड़बड़ है)। यही मार्क्सवाद का निचोड़ है। दरअसल, मार्क्सवाद कोई यांत्रिक फार्मूला या महज किताबी सिद्धांत नहीं बल्कि एक रचनात्मक विज्ञान है। आज दुनिया में विवेक और तर्कसंगत विचारों पर जिस तरह के हमले हो रहे हैं, उसका मुकाबला केवल विवेकशीलता और तार्किकता से किया जा सकता है। इससे भी मार्क्स की प्रासंगिकता समझ में आती है। न्यूयॉर्क टाइम्स के उस शीर्षक पर गौर कीजिए, जिसमें लिखा था, ‘हैप्पी बर्थडे कार्ल मार्क्स, यू वेयर राइट!’ (जन्मदिन मुबारक कार्ल मार्क्स, आप सही थे!)।

-क्या मार्क्सवादी राजनीति मार्क्स के विचारों को लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है? भारत में मार्क्सवाद कितना प्रासंगिक रह गया है?

दोष हमारा है। हम जनता तक उनके विचारों को पहुंचाने में सफल नहीं रहे। आज तो ये विचार और प्रासंगिक हो गए हैं। गौर कीजिए, देश में जिस तरह का आर्थिक शोषण, कट्टरवादी ताकतों का दबदबा, संवैधानिक संस्थाओं पर हमले आज हो रहे हैं, उसका मुकाबला सिर्फ मार्क्सवाद के जरिए किया जा सकता है। मगर वैकल्पिक नीतियों को सामने रखे बिना, सिर्फ आलोचना करने से लोग लामबंद नहीं होंगे। लोगों को वैकल्पिक रास्ता भी बताना पड़ेगा। मैं मानता हूं कि इसमें हमारी कमजोरी रही है। आज भी देश में विकल्प क्या है? हम इतनी बड़ी युवा आबादी वाला देश हैं। अगर इन लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाएं मिल जाएं तो नए भारत का निर्माण वे खुद कर लेंगे। लेकिन सरकार कहती है कि इसके लिए उसके पास संसाधन नहीं हैं। दूसरी तरफ, सरकारी संसाधनों की लूट मची हुई है। नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या जैसे उद्योगपति बैंकों से साढे़ ग्यारह लाख करोड़ रुपये का कर्ज लेकर चंपत हो चुके हैं। इसमें से आधा कर्ज भी वसूलकर बुनियादी ढांचे के विकास पर खर्च किया जाए तो कितनी नौकरियां पैदा होंगी। लोगों के हाथ में पैसा आएगा तो इकोनॉमी भी बढ़ेगी। यह एक विकल्प है। लेकिन इसके लिए मौजूदा सरकार और नीतियों को बदलना होगा। आज देश की 73 फीसदी जीडीपी एक फीसदी लोगों के हाथ में है। अगर इस असमानता को बढ़ने से रोकना है तो मार्क्सवाद ही विकल्प है। हां, इसके लिए हमें भी संगठनात्मक रूप से और प्रचार के मोर्च पर खुद को दुरुस्त करना जरूरी है।

-चीन, क्यूबा जैसे कुछेक देश ही अपने को कम्युनिस्ट कह रहे हैं मगर उनका रुझान भी पूंजीवाद की ओर है? केरल में पिनराई विजयन मुख्यधारा के विकास पर जोर दे रहे हैं? क्या सिंगूर, नंदीग्राम से कुछ सीख ली गई है?

चीन का शीर्ष नेतृत्व बड़ी धूमधाम से मार्क्स की 200वीं जयंती मना रहा है। उनका कहना है कि मार्क्सवाद की वजह से ही चीन ने इतनी तरक्की की है। आम धारणा यह है कि जो देश तरक्की कर रहा है वहां समाजवाद नहीं हो सकता है, वह तो पूंजीवादी ही होगा। इस मिथक को चीन ने तोड़ा है। दरअसल, मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण पर जोर देता है। परिस्थितियों के साथ अगर आपका विश्लेषण नहीं बदलता तो आप मार्क्सवादी नहीं हैं। क्रांतिकारी उसूल अपनी जगह पर हैं, लेकिन उन उसूलों को लेकर आप आगे कैसे बढ़ेंगे? यह परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण से ही तय होगा। आज ठोस परिस्थितियां क्या हैं? यही कि पूरी दुनिया में पूंजी बेकाबू है। ऐसे में देश का विकास कैसे करेंगे? इसके दो ही रास्ते हैं। या तो वैश्विक पूंजी को अपना काम करने दीजिए, जिससे असमानता बढ़ेगी। या फिर पूंजी को काबू में रखिए। यहीं सवाल खड़ा होता है कि बाजार के हिसाब से नीतियां बनेंगी या नीतियों के हिसाब से बाजार चलेगा। चीन ने अपनी नीतियों के हिसाब से बाजार को चलाया। अंतरराष्ट्रीय पूंजी को आने दिया, मगर अपनी शर्तों पर। ऐसा करते हुए वह दुनिया का दूसरा सबसे ताकतवर देश बन गया। तो सवाल यही है कि आप पूंजी और बाजार पर किस तरह का नियंत्रण रखते हैं। कोरिया ने फोर्ड और जनरल मोटर्स को अपने यहां आने दिया, लेकिन 20 साल बाद ऑटोमोबाइल की कोरियाई कंपनी खड़ी हो गई। इधर भारत में मारुति में सुजुकी की 20 फीसदी हिस्सेदारी थी, जो आज बढ़कर 56 फीसदी है। जिस वालमार्ट का इतना विरोध हुआ, उसे पिछले दरवाजे से देश में लाया जा रहा है। यही नीतियों का फर्क है।

-क्या 2014 के नतीजों और हाल में त्रिपुरा की हार के बाद पार्टी ने कुछ बड़ी भूलें स्वीकार की हैं? भारतीय राजनीति, खासकर उत्तर भारत में वामपंथी दलों का असर घटता क्यों जा रहा है?

2004 और 2014 के बीच देखें तो हम वाकई कमजोर हुए। यह कमजोरी मुझे विरासत में मिली है। इस कमजोरी को दूर करने के लिए पार्टी कांग्रेस में जमीनी संघर्ष और नफरत की राजनीति के खिलाफ चुनावी तालमेल की समझ बनी है।

याद कीजिए त्रिपुरा की जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने क्या कहा था। उनका कहना था कि यह उनके लिए विचारधारा और सिद्धांतों की जीत है। इसलिए केरल हो या बंगाल या फिर त्रिपुरा वामपंथियों पर इतने हमले हो रहे हैं क्योंकि उनकी नफरत की राजनीति और शोषणकारी नीतियों को जवाब सिर्फ वामपंथ ही दे सकता है। मुंबई में किसानों का महापड़ाव हो या शेखावटी का किसान आंदोलन या फिर ट्रेड यूनियनों का दिल्ली में प्रदर्शन। हमारा पूरा जोर जनांदोलनों को मजबूत करने और वैकल्पिक नीतियों को सामने रखने पर है। पार्टी कांग्रेस में हमने नारा दिया है कि देश को जनहित की नीति चाहिए, नेता नहीं!

-क्या आप मानते हैं कि देश में वामपंथी दलों ने वर्ग पर जोर दिया मगर, जाति को नजरअंदाज करने की भूल की, क्या इस भूल को अब सुधारने की कोशिश की जा रही है? 

ऐसा नहीं है कि जातिगत भेदभाव को हमने नजरअंदाज किया, लेकिन अपनी समझ पर अमल करने में हमारी कमजोरी रही है। हम वर्ग संघर्ष की बात करते हैं। लेकिन भारत में वर्ग संघर्ष दो टांगों पर खड़ा है। एक है आर्थिक शोषण और दूसरा सामाजिक शोषण। अब इस समझ के आधार पर हम दलितों, मजदूरों, वंचितों के मुद्दों को उठा रहे हैं। वामपंथियों और दलितों के बीच कई दशकों में पहली बार एकजुटता बन रही है। जय भीम-लाल सलाम का नारा सामने आया है। जिस दिन मैं माकपा का महासचिव चुना गया, पहला फोन बसपा प्रमुख मायावती का आया था। हम नफरत और शोषण की राजनीति के खिलाफ एक व्यापक धरातल तैयार करने में जुटे हैं। इसमें कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत सरीखी कोई भूमिका निभा पाया तो यह मेरे लिए बड़ी बात होगी। 

-कांग्रेस के साथ आगामी चुनाव में गठजोड़ पर आप पार्टी के भीतर विरोधाभासों को कैसे संभालेंगे?

हमारा पहला लक्ष्य सांप्रदायिक एजेंडे और सार्वजनिक संसाधनों की लूट को बढ़ावा दे रही भाजपा को सत्ता से हटाना है। इसके लिए हमारी कोशिश रहेगी कि भाजपा विरोधी मतों के विभाजन को रोका जाए। जहां भी चुनाव होंगे, वहां स्थानीय परिस्थि‌‌तियों को ध्यान में रखते हुए भाजपा को हराने के लिए तालमेल किया जा सकता है। इस बारे में पार्टी का दृष्टिकोण स्पष्ट है।

-बंगाल के पंचायत चुनावों में कई जगहों पर तृणमूल के खिलाफ हंसुआ हथौड़ा और कमल के फूल के निशान एक ही पोस्टर में दिख रहे हैं?

हमारी पार्टी इन खबरों का खंडन कर चुकी है। यह एक दुष्प्रचार है। बंगाल के अंदर हम स्पष्ट हैं कि तृणमूल कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों दल सांप्रदायिकता के आधार पर खुद को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। लेफ्ट ने 40 साल तक हिंसा की इस आग को काबू में रखा था। लेकिन अब हालात बेकाबू हो चुके हैं।

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