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आस्था के डेरों का पतित पुराण

अब आसाराम बापू, इसके पहले राम पाल, राम रहीम...कई बाबाओं की कथा खुली, सो, तथाकथित धर्मगुरुओं पर गहन अध्ययन करने वाले लेखक की कलम से एक बानगी
अासाराम

जब मैं दिल्ली में स्नातक स्तर के कोर्स का छात्र था तो एक बात सुन कर मेरे पांव तले जमीन खिसक गई। हुआ यों कि मेरे साथ रूसी पढ़ने वाला सेना का एक कप्तान रूसी में थोड़ा पिछड़ गया था। उसने मुझसे पढ़ाई में मदद करने को कहा। मैं सहर्ष तैयार हो गया और कप्तान अपनी गाड़ी में बैठाकर मुझे जिमखाना क्लब ले आया। सर्दियों के दिन थे। सोंधी-सोंधी धूप खिली हुई थी। हमारे लिए लॉन पर कुर्सियां बिछा दी गईं और हम तन्मय होकर पढ़ने लगे। पढ़ाई से कप्तान जब थोड़ा उकता गया तो उसने अपने लिए एक बीयर मंगाई और हम फिर पढ़ने में रम गए। थोड़ी देर बाद कप्तान ने झुंझलाकर कहा, ‘किस गोरखधंधे में फंस गए हैं हम। अभय!’

मैं थोड़ा चौंका और पूछा, ‘क्या हुआ कप्तान साहब, रूसी से बहुत तंग आ गए क्या?’

‘और नहीं तो क्या! फौज की भी कोई नौकरी है। आज यहां, कल वहां। अब ये रूसी! यह भी कोई जिंदगी है।’

‘तो फिर क्या करना चाहिए’, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था।

‘परसों-नरसों मैं अपने एक पुराने दोस्त से मिला। स्कूल के दिनों से दोस्ती है हमारी। काफी मस्त-मौला आदमी था वह शुरू से ही...’

‘तो अब क्या हुआ उसे कप्तान साहब’, मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

होना क्या था। उसने अपनी कहानी सुनाई। छतरपुर में अपने फार्महाउस में बुलाया था मुझे। दो-तीन एकड़ का फार्महाउस है। बाहर मर्सिडीज और न जाने कैसी-कैसी विलायती गाड़ियों का काफिला खड़ा था। वर्दी पहने नौकरों-चाकरों की एक पूरी फौज तैनात थी हुक्म बजाने के लिए। एक से बढ़कर एक महंगी सुरा परोसी जा रही थी। मेरा दोस्त रह-रहकर सुरा सुड़क रहा था। मेरे स्कूल के नाम से बुलाते हुए उसने मुझ से कहा, “किस चक्कर में पड़े हो...। तुम्हारी भी कोई जिंदगी है! एक-एक पैसे के लिए तरसते हो। कभी यहां फेंके होते हो, कभी वहां। मुझे देखो। मैंने अपने बाल बढ़ाए। दाढ़ी को खुला छोड़ा। विचित्र ढंग की पोशाक धारण की और कर दिया अपने को बाबा घोषित। आश्रम के लिए एक बड़े-से प्‍लॉट पर कब्जा किया और लगा अपने धुंआधार प्रवचन झाड़ने। धीरे-धीरे एक सिद्ध बाबा के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली। फिर क्या था त्रस्त-संतप्त लोगों की कतार लग गई मेरे आश्रम में। अच्छी-खासी लच्छेदार भाषा में बोलना तो मुझे आता ही था। भक्तों ने सब-कुछ न्योछावर करना शुरू कर दिया मुझ पर। पैसा, जमीन-जायदाद, सोना-चांदी और न जाने क्या-क्या ... मैं शरण में आए दुखी भक्तों की राम कहानी सुनता और अपने तरीके से उनकी समस्याओं का समाधान बताता। थोड़े ही दिनों में वारे-न्यारे होने लगे। अब आश्रम में बाबा ...। और रात को मैं अपने इस गुप्त फार्महाउस पर रंग-रेलियां मनाता तेरा पुराना यार ...! दस ‘हैं ना बल्ले-बल्ले! तू भी उतार दे अपनी पगड़ी’ खोल दे अपने बाल और दाढ़ी और बन जा मेरे साथ मेरा गुरु भाई। छड दे फौज दी इस माड़ी नौकरी नू। बणजा मेरे नाल सिद्धहस्त बाबा!”

मेरा कप्तान दोस्त बीयर पीते हुए आखिरी वाक्य को पंजाबी में इस अंदाज में बोला मानो वह इस सड़ी-सी नौकरी को लात मारने को तैयार ही बैठा था।

मेरे ऊपर इस कहानी ने दूसरी ही छाप छोड़ी। मैंने तभी से इन बाबाओं को गौर से देखने की ठान ली। बहुत सारे बाबाओं की कहानियां पढ़ता था चंद्रास्वामी, बाबा ब्रह्मचारी, तांत्रिक, दक्षिण भारत के कई बाबा, और योगी।... अपने अध्ययन और गहन छानबीन की प्रक्रिया में इस निष्कर्ष पर पहुंचता गया कि अधिकांश बाबागण साधु नहीं स्वादू हैं। वे त्रस्त लोगों की लाचारी का फायदा उठाकर वारे-न्यारे करते हैं, परले दर्जे के परजीवी हैं। उनके सदा दो चेहरे होते हैं। एक दिन का और दूसरा रात का। इस विचार को और पुख्ता करने के लिए मैं अपने प्रथम उपन्यास युगनायिका को लिखते समय लगभग महीना भर ऋषिकेश में रहा। वहां के आश्रमों को करीब से देखना चाहता था। विशेषकर स्वयंभू महर्षि महेश के अतींद्रिय चिंतन को आश्रम में जाकर देखना चाहता था। मुझे तांत्रिक आश्रम में प्रवेश मिला। वहां की रात्रि लीलाएं देखने को मिलीं। जिन्हें मैंने अपने उपन्यास युगनायिका में चित्रित भी किया।

इसी कड़ी में मैंने मेरे उपन्यास त्रासदी में समाने वाला बाबा का आश्रम चित्रित किया। 1990 में लिखित इस उपन्यास में आश्रम के चित्रण की हाल ही में सुर्खियों में आए बाबा राम रहिम के आश्रम के साथ अद्भुत समानता दिखेगी। देखिए इसकी कुछ बानगी, उपन्यास के अंश मेंः

आगंतुकों की पहुंच डेरे के केंद्रीय भवन यानी सैंक्टो सैंक्टोरियम तक नहीं होती। पेड़ों की झुरमुटों और फव्वारों की पट्टी के बाद शुरू होता है एक लंबा-चौड़ा गोलाकार आंगन जो केंद्रीय भवन और उसके चारों ओर बनी संरचनाओं के चारों ओर घूम जाता है। उसकी अंदर की परिधि से जुड़ी है मंहतों और साधुओं की कुटियों की गोलाकार कतार, जिनके सामने है छोटी-छोटी बगीचियों की गोलाकार पट्टी। इन कुटियों में नए-पुराने डेरावासियों का मेल-मिलाप होता है। यहीं धूनी लगाए स्वादू यानी साधु डेरा डाले रहते हैं। उनके आसपास उनके नए-पुराने चेलों-चपाटों की चौकड़ी जमी रहती है। यहां पर चिलम पी जाती है। गांजे व सुल्फे के दौर चलते हैं, तिस पर भगवान के भजन भी होते हैं, अंतर्ध्यान होने की कला सीखी-सिखाई जाती है।

कुटियों की कतार के बाद केंद्रीय संरचना के चारों ओर घूमता हुआ फिर एक गोलाकार आंगन आता है। उसके साथ-साथ फिर पेड़ों की झुरमुटें। बगीचियों की क्यारियों और फव्वारों की गोलाकार कतारें घेरा डाले रहती हैं। यही कतारें जुड़ जाती हैं केंद्रीय गोलाकार भवन से। इसके बीच में बने हैं गोलाकार आंगन। बगीचियों तथा फव्वारों की कतारें। आंगन के नीचे बना है एक भूमिगत अति रहस्यमय भवन। इसके बारे में मठाधीश के गिने-चुने अति विश्वसनीय पात्र ही जानते हैं। गोलाकार भवन दो अर्ध-गोलाकार हिस्सों में बंटा है ‘बाईं ओर है जनाना वार्ड और दाईं तरफ मर्दाना आश्रम’। दोनों वार्डों के बीच श्री श्री 1008 मठाधीश की अति सुरक्षित व इंसुलेटिड यानी हर तरफ से सुरक्षा घेरे से लैस आनंद-कुटिया पवित्रित है। उसके बाईं और दाईं ओर के वार्डों को उससे पूर्णतः अलग कर दिया गया है। असल में यह कुटिया ही दोनों वार्डों के बीच लक्ष्मण रेखा का काम करती है, जिसे कदापि लांघा नहीं जा सकता। इसे लांघने का दंड है सजा-ए-मौत, जिसे मुख्य मठाधीश अत्यंत रहस्यमय ढंग से सुनाते हैं।

इस कुटिया के ऐन सामने यानी गोलाकार भवन के ठीक दूसरी ओर बीच में बनी हैं दूसरी केंद्रीय कुटियाएं जो बाएं और दाएं वार्डों के बीच दूसरी लक्ष्मण रेखा का काम करती हैं। यह है डेरे की मुख्य महंतनी की कुटिया। ऐसा बताया और सुना जाता है कि इन दोनों लक्ष्मण कुटियाओं के वासी कभी भी आपस में नहीं मिल सकते। संसार की दृष्टि में दोनों को हर हाल में अलग रहना है। यह दूसरी बात है कि गोलाकार भवन के आंगन के नीचे एक शानदार तहखाना है, जिसके बीच में बना है एक अति रोमांचक भवन जो हर प्रकार के आधुनिक उपकरणों व साजो-सामान से सुसज्जित है। जाहिर है, दोनों लक्ष्मण कुटियाएं भूमिगत मार्गों से केंद्रीय भूमिगत इंद्र कुटिया में जा मिलती हैं। इंद्रजाल के रहते भला प्रत्यक्ष मिलन की क्या आवश्यकता है।

डॉक्टर की सलाह पर डेरे में कई नए पुरुष व महिला डॉक्टरों को भरती कर लिया गया। अधिकतर महिला डॉक्टर गायनोकोलॉजिस्ट यानी स्‍त्री-रोग विशेषज्ञ थीं। देहात में महिलाओं के बच्चे न होने की स्थिति में उनकी बुरी गत हो जाती है। अक्सर ऐसी औरतों को बांझ करार देकर बुरी तरह दुत्कारा जाता है, सताया जाता है और अंततः तिरस्कृत कर दिया जाता है। या संतान पैदा करने वाले यंत्र के रूप में दूसरी औरत को लाकर खूंटे से बांध दिया जाता है। बांझ पत्नी की सौतन ही नहीं, बल्कि मालकिन बनाकर। उनमें जो महिलाएं धनी परिवारों से होती हैं। वे तो अपने इलाज आदि पर पैसा खर्च कर सकती हैं। बीमारी की तह तक जा सकती हैं। प्रायः होता यह है कि कमी पुरुष में होती है। पर संतान न होने की सजा स्‍त्री को दी जाती है। डॉक्टर साधु को यह कड़वी सच्चाई समझ में आ गई थी। बहुत सोच-विचारकर डॉक्टर ने ऐसे महिला रोगियों को लंबे समय तक डेरे में रखकर उपचार करने का प्रस्ताव बाबा के सम्मुख रखा। बाबा ने उसे स्वीकारकर डॉक्टर को ही क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी सौंप दी।

डॉक्टर ने इस प्रस्ताव को लागू करते समय इस बात का प्रावधान किया कि उपयुक्त स्थितियों में कुछ महिलाओं का इलाज मुफ्त किया जाएगा। डॉक्टर की दलील थी कि गरीब महिलाओं को भी इस योजना का लाभ पहुंचना चाहिए। आखिर गरीब औरतें भी तो सुंदर हो सकती हैं! वे भी नहा-धोकर सज-संवरकर आकर्षक हो सकती हैं!

कुछ समय बाद डॉक्टर और बाबा को यह बात भी समझ में आ गई कि सभी औरतों का उपचार स्वयं डॉक्टर व बाबा नहीं कर सकते थे। और उपचार था ही क्या एक सुनियोजित तांत्रिक पद्धति के सत्र व हिप्नोसिस; सम्मोहन की प्रक्रिया के पूरा होने पर शारीरिक रूप से फिट पुरुषों द्वारा महिलाओं को गर्भवती बनाया जाना था।

बाबा ने तांत्रिक विद्या में पारंगतता पाने व अन्य सहयोगियों को इसमें पारंगत करने के लिए मंजे हुए तांत्रिक शिक्षकों को डेरे में भरती किया। मानसिंह व अन्य साथियों को भी इस विद्या में शिक्षित किया।

इसके बाद डेरे में सामूहिक यौन पूजा के सत्र आरंभ हो गए। सभी विश्वसनीय साधुओं व साध्वियों को इनमें शामिल किया गया। मानसिंह भी इस विद्या में पारंगत होने लगा। उसे मई-जून-जुलाई की दम घोंटू गर्मी से सदा के लिए छुटकारा मिल गया। पैसा भी खूब हाथ लगने लगा। उसने साधु रूप धारण कर लिया। दाड़ी बढ़कर छाती तक लटकने लगी। बड़े-बड़े मनकों की रुद्राक्ष माला गले में झूलने लगी। हर रोज स्नान करने, बालों में सुगंधित तेल लगाने और प्रतिदिन नए भगवे कपड़े पहनने के कारण उसका व्यक्तित्व निखर आया था। शरीर भी भर गया था। चेहरा दमकने लगा था। आंखों में चमक आ गई थी। इस सब की बदौलत अब उसे उसके अपने गांव में भी कोई पहचान नहीं सकता था। वह घंटों बैठकर ध्यान करने लगा था।

डेरे में मानसिंह अब रम-सा गया। पहले तो वह कभी-कभार घर हो आता था। अब उसने वहां जाना बिलकुल त्याग दिया। उसने अपने घर संदेश भेजवाया कि कहीं दूर देश में व्यापार करने लगा है और वहां वह अच्छा-खासा पैसा पा लेता है। पैसे की तो डेरे में कमी थी ही नहीं। वह स्वयं चोटी के तीन दिग्गज मठाधीशों में से एक था। अब पैसे तक उसकी खुली पहुंच थी। जितना चाहे ले सकता, किसी को दे सकता था। इसीलिए वह समय-समय पर अच्छी-खासी रकम घर भेजने लगा। इस प्रकार घर की ओर से वह पूर्णतः निश्चिंत हो गया। मानसिंह के पास अब समय ही समय था। वह गेरुआ वस्‍त्र धारण कर, कमर से लहराती धोती को पंजाबी भंगड़े के तहमत या ‘भोथे’ लुंगीनुमा धोती के रूप में बांधकर, हाथ में बांस का चिकना डंडा थामकर मस्ती से डोलता हुआ पुरुष वार्ड के सामने घूमता, जनाना वार्ड की साध्वियों को दूर-दर्शन देने की कोशिश करता। शिखर तिकड़ी या चौकड़ी के साधुओं के ऐसा करने पर रोक-टोक न थी।

डेरे में रहते-रहते मानसिंह ने पढ़ना-लिखना भी सीख लिया। दूर किसी शहर से आई बांझ सेठानी ने उसे इस दिशा में खूब आगे बढ़ाया। पढ़ने-लिखने के सिवाय उसे हर बात का सलीका-सहूर सिखाया, बातचीत के अंदाज को नया मोड़ दिया, उसे यौनकला में और सजाया-संवारा। मानसिंह अब उसका स्थाई प्रेमी हो गया था। ऐसा कर मानसिंह ने डेरे के गुप्त विधान का उल्लंघन किया था। पर चोटी वाले को भला कौन चुनौती दे सकता था।

उपन्यास के इस अंश में हाल में उभरे डेरों और आश्रमों का हाल और उनमें पनप रही प्रवृतियों से परिचित होना आसान है। बेशक, डेरों से शुरू होकर ही पनपती है शायद हिटलरों, पिनाचेतों... की परिपाटियां, उनका अधिनायकवाद, उनकी तानाशाही! 

(लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ इंग्लिश ऐंड फॉरेन लैंग्वेजेज, हैदराबाद के संस्‍थापक कुलपति रहे हैं। कथित धर्मगुरुओं और बाबाओं के आश्रमों के रंग-रूप पर उनके तीन उपन्यास युगनायिका, मुक्तिपथ और त्रासदी हैं)

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