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अध्यक्ष बदल ठोका ताल

कांग्रेस ने जातिगत संतुलन के लिए चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए, भाजपा में शिवराज की पसंद को तरजीह
मन का मुखियाः मुख्यमंत्री के साथ भाजपा के नए अध्यक्ष राकेश सिंह (दाएं से दूसरे)

मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने अपने-अपने अध्यक्ष बदलकर चुनावी रण का ऐलान कर दिया है। भाजपा ने चौथी बार लगातार सत्ता हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पसंद के नेता और जबलपुर के सांसद राकेश सिंह को संगठन की कमान सौंपी है। नए प्रदेश अध्यक्ष राज्य के मौजूदा कई नेताओं से जूनियर हैं। वहीं कांग्रेस ने सत्ता से 15 साल का वनवास खत्म करने के लिए 71 साल के दिग्गज कमलनाथ पर दांव खेला है। वैसे, भाजपा को जीत दिलाने का दारोमदार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर रहेगा। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष तो केवल मोहरे होंगे। यही वजह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने बेहद करीबी राज्य के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा को चाहकर भी अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाने से पीछे हट गए और उन्हें शिवराज सिंह की पसंद को तरजीह देनी पड़ी।

शिवराज ने प्रदेश अध्यक्ष के साथ अपनी पसंद के नेता केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव अभियान समिति का संयोजक बनवाकर अपनी ताकत का एहसास करवा दिया। शिवराज और नरेंद्र सिंह की जोड़ी ने 2013 में राज्य में भाजपा को सत्ता दिलाई थी। भाजपा की नई टीम को चुनौती देने के लिए कांग्रेस ने भी चेहरे बदले हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने परिवार के करीबी कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष और अपने करीबी ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर भाजपा की जीत को रोकने का काम सौंपा है। जातिगत और गुटीय संतुलन के लिए चार कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए गए हैं। बाला बच्चन अनुसूचित जनजाति, सुरेंद्र चौधरी अनुसूचित जाति और रामनिवास रावत के साथ जीतू पटवारी ओबीसी वर्ग से हैं। कांग्रेस ने संगठन में ओबीसी को ज्यादा तवज्जो दी है। सिंधिया और अजय सिंह सवर्णों के प्रतिनिधि हैं।   

मध्य प्रदेश में कांग्रेस कई गुटों में बंटी है। अब तक पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अलग चल रहे थे तो नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की धारा अलग थी। कांतिलाल भूरिया, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के सुर अलग-अलग थे। ये नेता प्रदेश अध्यक्ष रहे अरुण यादव के साथ मंच भी साझा नहीं कर रहे थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह ने अपने इलाके में अपने बूते विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस को जीत दिला दी। कांतिलाल भूरिया भी अपने दम पर झाबुआ लोकसभा उपचुनाव जीत गए, दिग्विजय सिंह की गैर-मौजूदगी में उनके विधायक बेटे जयवर्धन सिंह ने राघोगढ़ नगरपालिका में कांग्रेस को जीत दिलाकर भाजपा को झटका दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर अरुण यादव की चार साल में उपलब्धि कुछ दिखी नहीं। सहकारिता के दिग्गज नेता रहे सुभाष यादव के बेटे अरुण ने पद से हटने के बाद चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है, वैसे उनकी इस घोषणा के कोई मायने नहीं है। वे 2014 में लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। राहुल गांधी 47 साल के ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन दिग्विजय सिंह की असहमति से उन्हें कदम वापस लेना पड़ा। दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा के बाद अपनी राजनीतिक इच्छा जाहिर कर दी थी।

कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने से दिग्विजय सिंह सध गए। मध्य प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ और दिग्विजय को बड़े और छोटे भाई के रूप में देखा जाता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह, कांतिलाल भूरिया और अन्य नेता कमलनाथ की छाया से बाहर नहीं रहेंगे। उम्मीद की जा रही है कि कमलनाथ कांग्रेस के क्षत्रपों को एकजुट करने में कामयाब होंगे, ऐसे में अब तक बिखरी कांग्रेस का लाभ ले रही भाजपा को दिक्कत आएगी।

वहीं, कमलनाथ के कद और रसूख पर वार करना भी भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। इंदिरा, राजीव-संजय और अब तीसरी पीढ़ी राहुल गांधी के साथ काम कर रहे कमलनाथ को तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने राजनीति में प्रोजेक्ट किया था। कमलनाथ की खूबी रही है कि वह समय और परिस्थिति के अनुरूप बड़े नेताओं से पटरी बैठाते रहे हैं। इसका उन्हें फायदा मिलेगा। अर्जुन सिंह से पुराने संबंधों के आधार पर उनके बेटे और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह को अपने से जोड़ लेने से विंध्य में कांग्रेस को लाभ मिलेगा।

श्रीनिवास तिवारी के निधन के बाद विंध्य में अजय सिंह की पकड़ मजबूत हो गई है। इसी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रभाव चंबल और आसपास के क्षेत्रों में है। माना जा रहा है कि कमलनाथ के नेतृत्व में मध्य प्रदेश में कांग्रेस रणनीतिक और आर्थिक रूप से भी मजबूत होगी। कमलनाथ के अनुभव, कद और प्रभाव का फायदा कांग्रेस को मिलेगा। कमलनाथ के आने से नेता और कार्यकर्ता उत्साहित हैं, लेकिन वे कार्यकर्ताओं को अपने से कैसे जोड़ते हैं, यह बड़ा सवाल है। अब तक उनका ज्यादा संवाद नेताओं से ही रहा है।

संतुलन की कोशिशः राहुल गांधी के साथ मध्य प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष कमलनाथ

कांग्रेस और भाजपा दोनों ने महाकौशल क्षेत्र से अध्यक्ष और चंबल से चुनाव अभियान समिति का प्रभारी बनाया है। इसके पहले दोनों ने मालवा के नेताओं को संगठन की कमान सौंपी थी। भाजपा ने खंडवा के सांसद नंदकुमार सिंह और कांग्रेस ने उन्हीं से पराजित अरुण यादव को अध्यक्ष बनाया था। अरुण को एक साल से बदलने की बात चल रही थी और नंदकुमार सिंह को कुछ महीने पहले ही बदलने का विचार चला। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की इच्छा से ही प्रभात झा को हटाकर नंदकुमार सिंह चौहान को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। चित्रकूट, अटेर, कोलारस और मुंगावली विधानसभा उपचुनाव में हार का ठीकरा नंदकुमार सिंह चौहान पर फूट गया। नंदकुमार सिंह को कार्यकाल खत्म होने से नौ महीने पहले ही हटा दिया गया। पूरी ताकत झोंकने के बाद भी उपचुनावों में भाजपा की लगातार हार के बाद बड़े बदलाव के संकेत आने लगे थे। 12 साल से मुख्यमंत्री और लगातार तीन बार जीत दिलाने वाले शिवराज सिंह को हटाना आसान नहीं था। प्रदेश अध्यक्ष को बदलने में आलाकमान को कोई कठिनाई नहीं आई। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने पसंदीदा नरोत्तम मिश्रा को अध्यक्ष बनाकर मध्य प्रदेश पर अपना सीधा नियंत्रण चाहते थे। नरोत्तम के नाम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के सहमत न होने के बाद राकेश सिंह का नाम सामने आया। राकेश सिंह के नाम को लेकर कई चर्चाएं हैं। कहा जाता है पहले उनका नाम घनश्याम सिंह था। बाद में राकेश सिंह कर लिया। राकेश सिंह का जुड़ाव अमित शाह से है, लेकिन लो-प्रोफाइल छवि के कारण उनके नाम पर शिवराज सिंह सहमत हो गए। भाजपा राकेश सिंह के जरिए सवर्ण कार्ड खेलेगी। कहा जा रहा है नरोत्तम के आने से शिवराज का कद घट जाता। शिवराज अपनी साख बचाने के लिए जीत दिलाने का जिम्मा अपने ऊपर लेकर अनुकूल व्यक्ति को अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे।

शिवराज सिंह ने अपनी पसंद का अध्यक्ष और चुनाव अभियान समिति का संयोजक बनवाकर संगठन में मजबूत होने का संदेश दे दिया, लेकिन उपचुनावों में पार्टी की लगातार हार, दलित आंदोलन में बेगुनाहों की मौत और किसानों की नाराजगी से साफ लगता है, जनता में उनका जादू घट गया है। प्रदेश में अपने को मामा के रूप में स्थापित करने वाले शिवराज ने अपने एक मंत्री पर बहू की मौत का दाग लगने के बाद भी चुप्पी साध ली। वहीं, राज्य कैबिनेट में असंतुलित प्रतिनिधित्व को लेकर भी नाराजगी है। नौकरशाही के चुंगल और सरकार विरोधी लहर के भंवर जाल में उलझी भाजपा की नैया शिवराज कैसे पार लगाते हैं और कांग्रेस के कमलनाथ भाजपा के कमल को फिर से खिलने से रोक पाते हैं या नहीं, यह तो इस साल अक्टूबर–नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पता चलेगा। लेकिन, यह साफ है कि आने वाले छह महीने मध्य प्रदेश में दोनों दल अपनी तरह से शक्ति प्रदर्शन करेंगे। अगला चुनाव कमलनाथ-सिंधिया की जोड़ी के साथ ही शिवराज-तोमर की जोड़ी की साख का सवाल होगा।

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