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सभापति की उलटबांसी

राज्यसभा के सभापति ने महाभियोग प्रस्ताव की समूची प्रक्रिया को ही सिर के बल खड़ा कर दिया
राज्यसभा के सभापति को यह एहसास होना चाहिए कि सांसदों के पास दुरुपयोग की पुष्टि का कोई तंत्र नहीं है

हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को हटाने की प्रक्रियाएं स्पष्ट नहीं हैं, ऐसा तो कतई नहीं है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव पर मौजूदा विवाद का मुख्य सवाल यह है कि इस मामले में पहला कदम क्या हो। यानी, क्या पद के दुरुपयोग के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाले प्रस्ताव में साफ-साफ सभी वजहों का विस्तृत ब्योरा और समूचे साक्ष्य होने चाहिए या नहीं।

अब आइए देखें कि महाभियोग की कुल प्रक्रिया क्या होती है? इसके चार चरण होते हैं। एक, सांसद दुरुपयोग या अक्षमता के आरोप के साथ पद से हटाने (संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत) का प्रस्ताव तैयार करते हैं और उसे संसद के किसी भी सदन में पेश करते हैं। दूसरे, 1968 के न्यायाधीश जांच कानून के मुताबिक अनुच्छेद 124 (5) के तहत जांच समिति का गठन होता है। इस चरण में दस्तावेजों की पड़ताल, गवाहों के बयान और संबंधित जज से सवाल-जवाब के बाद आरोप तय किए जाते हैं।

तीसरे, जांच समिति की रिपोर्ट संसद के किसी सदन के पीठासीन अध्यक्ष के सामने पेश की जाती है। अगर उसमें दुरुपयोग के सबूत मिलते हैं तो दोनों सदनों में राष्ट्रपति के ध्यानार्थ प्रस्ताव लाया जाएगा। आखिर में, यह प्रस्ताव दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पास हो जाता है तो उसे राष्ट्रपति के यहां भेज दिया जाता है, जो पद से हटाने के आदेश पर दस्तखत करते हैं।

ऐसे में, न्यायाधीश मिश्रा के खिलाफ प्रस्ताव में क्या “दुरुपयोग के पुख्ता सबूत” होने चाहिए? यही सवाल चौथाई सदी पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने भी खड़ा हुआ था। मामला न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ था, जो 1991-93 तक सुप्रीम कोर्ट के जज थे। कोर्ट इस सवाल पर विचार कर रही थी कि किसी जज को हटाने की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124 (5) के तहत बने कानून (न्यायाधीश जांच कानून) पर अमल किए बिना ही चलाई जा सकती है या जांच का अधिकार और दुरुपयोग के साक्ष्य अनुच्छेद 124 की धारा (4) में ही निहित है।

इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट जवाब था कि दुरुपयोग या अक्षमता अनुच्छेद 124 की धारा (5) के तहत बनाए गए कानून के मुताबिक ही “साबित” की जा सकती है। यह भी कि शुरुआती दो चरण संसदीय कार्यवाही के हिस्सा नहीं हैं, जो जांच रिपोर्ट में “आरोप साबित” होने के बाद राष्ट्रपति से आग्रह के लिए प्रस्ताव के पेश होने के साथ ही शुरू होती है।

मतलब यह कि जांच समिति ही पड़ताल करने और सबूत जुटाने की व्यावहारिक एजेंसी है। इस तरह शुरुआती दो चरणों में पीठासीन अधिकारी को प्रस्ताव में आरोपों की वजहों की पुष्टि के लिए प्रारंभिक समीक्षा की न तो जरूरत है और न ही यह जांचने की दरकार है कि प्रथमदृष्टया मामला बनता है या नहीं। न्यायाधीश रामास्वामी के वकीलों ने इसके उलट दलील दी थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने जायज नहीं पाया।

न्यायाधीश मिश्रा के मामले में लगता है कि राज्यसभा के सभापति ने इस प्रक्रिया को सिर के बल खड़ा कर दिया है। जाहिर है, “दुरुपयोग की पुष्टि” की मांग जांच समिति के गठन के पहले ही कर दी गई है जबकि राज्यसभा के सभापति को ऐसी कोई जांच करने का अधिकार ही नहीं है। सभापति की राय में प्रक्रिया के प्रारंभ में सबूत के मानक अलग हैं और उसके संपन्न होने के बाद अलग। हर हाल में पहले चरण में बेहद कमतर सबूतों की ही दरकार है। किसी बेमानी प्रक्रिया की पहल को रोकने का सिर्फ यही तरीका है कि प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों के पर्याप्त सदस्यों के हस्ताक्षर हों। प्रस्ताव पेश करने के शुरुआती चरण पर “दुरुपयोग की पुष्टि” की जांच-परख की बात करना अनुच्छेद 124 की धारा 4 और 5 की प्रक्रिया और संबंधित कानून तथा नियमों का उल्लंघन है। सभापति को यह एहसास होना चाहिए कि सांसदों के पास दुरुपयोग की पुष्टि का अपना कोई तंत्र नहीं होता है। उन्हें दस्तावेज मंगाने या गवाहों से जिर‌ह का कोई अधिकार नहीं है। अनुच्छेद की धारा के तहत एक पूरी व्यवस्‍था है, जिसमें जांच समिति को दुरुपयोग की पुष्टि के लिए दीवानी अदालत जैसे अधिकार होते हैं। संविधान न्यायाधीशों को कोई रियायत नहीं देता और यह जायज भी है।

हम, बतौर विधायिका के सदस्य, प्रस्ताव के उस नतीजे से बेखबर नहीं हैं कि उससे जज के कॅरिअर पर भारी असर पड़ता है। हमारे संविधान निर्माता भी इससे वाकिफ थे। उन्होंने न्याय-प्रक्रिया के व्यापक हित को सबसे अधिक तवज्जो दी और संस्‍थागत निष्ठा को किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर आंच से अधिक महत्व का माना, चाहे वह व्यक्ति न्यायपालिका के शिखर पर ही आसीन क्यों न हो। हमारा देश तो राष्ट्रपति तक पर महाभियोग चलाने का अधिकार देता है क्योंकि अंततः संविधान ही सर्वोच्च और संप्रभु है।

(लेखक वरिष्ठ वकील और राज्यसभा के सदस्य हैं)

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