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यह कमजोरी तो भारी चिंताजनक

सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख न अपनाना बेहद दुखद, न्यायपालिका और लोकतंत्र के लिए इसके खतरनाक नतीजों का अंदेशा
साख का संकटः एक कार्यक्रम में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा (बाएं) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

एक बात तो बिलकुल साफ है कि आज न्यायपालिका की स्थिति काफी कमजोर हो गई है। इसके दो कारण हैं। एक, सरकार की दखलंदाजी ज्यादा ही बढ़ गई है और दूसरे, सुप्रीम कोर्ट भी थोड़ा कमजोर हो गया है। अब इसके पीछे जो भी कारण हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट सरकार के खिलाफ सख्त रुख नहीं अपना रहा है। इन वजहों से न्यायपालिका की हालत अधिक चिंताजनक है। हालांकि, मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि इसके लिए सिर्फ प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ही जिम्मेदार हैं। प्रधान न्यायाधीश थोड़े कमजोर जरूर हैं, लेकिन बाकी जजों को भी न्यायपालिका को निष्पक्ष रखने के लिए मजबूती से एक साथ खड़ा होना चाहिए। वजहें चाहे जो हों, लेकिन बाकी जज भी इतना मजबूत रुख नहीं अपना रहे। न्यायपालिका की साख बरकरार रहेगी तभी देश में लोकतंत्र बचेगा और हर किसी को बिना पक्षपात के न्याय मिल सकेगा। इसलिए यह सभी जजों का दायित्व बनता है कि वे इसके लिए एकजुट होकर खड़े हों, लेकिन यह नहीं हो रहा है। यह बेहद तकलीफदेह और चिंताजनक है।

इसके पीछे बहुत सारी वजहें हैं। हाल की कुछ घटनाओं पर ही गौर करें। न्यायाधीश जयंत पटेल को कर्नाटक का चीफ जस्टिस बनाया जाना था, लेकिन उनका ट्रांसफर कर दिया गया। उस ट्रांसफर के लिए अकेले प्रधान न्यायाधीश ही जिम्मेदार नहीं हैं। इसके लिए पूरा कॉलेजियम जिम्मेदार है। यह न्यायपालिका के इतिहास में सबसे दुखद घटनाक्रम है, क्योंकि उनके ट्रांसफर का कोई कारण नहीं था। उनके ट्रांसफर के पीछे सिर्फ एक ही वजह समझ में आती है कि सरकार चाहती थी, क्योंकि उन्होंने गुजरात हाइकोर्ट में रहते हुए इशरत जहां केस में फैसला सुनाया था, जिसमें (भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष) अमित शाह भी आरोपी थे। मैं समझता हूं कि वह सुप्रीम कोर्ट, कॉलेजियम और न्यायपालिका के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण दिन था। इसके अलावा जब कॉलेजियम ने उत्तराखंड हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस के.एम. जोसफ का आंध्र प्रदेश के चीफ जस्टिस के रूप में ट्रांसफर किया तो सरकार ने उस पर कोई फैसला नहीं लिया, उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट और कॉलेजियम सरकार के सामने खड़ी नहीं हुई। अब सरकार ने जज जोसफ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के कॉलेजियम के फैसले को भी लौटा दिया है।

मेरे ख्याल से यह समस्या इसलिए आई कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के गठन को गैर-संवैधानिक बताने वाला जो फैसला दिया, उसमें सुप्रीम कोर्ट ने बिना कोई कारण बताए सरकार को आदेश दिया कि मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) बनाकर दीजिए।

मेरे हिसाब से इसकी जरूरत नहीं थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को खुद ही यह काम करना चाहिए था। सरकार से यह कहने का कोई कारण नहीं बनता था कि एमओपी बनाइए, क्योंकि 1992 में जजेज केस में सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट आया और कॉलेजियम सिस्टम लाया गया, तबसे वही तो यह काम कर रही थी। एमओपी के बिना कॉलेजियम चल रहा था, तो एमओपी बनाने के आदेश से सुप्रीम कोर्ट ने खुद अपने हाथ काट दिए। हालांकि, कॉलेजियम में भी कुछ समस्याएं रही हैं। लेकिन उसका सुप्रीम कोर्ट को खुद समाधान निकालना चाहिए था।

हालिया घटनाक्रम को भी देखें तो कॉलेजियम के चार जजों (न्यायाधीश जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसफ) ने प्रेस कॉन्फ्रेंस किया। (मौजूदा कॉलेजियम में प्रधान न्यायाधीश के अलावा ये चार जज ही हैं) वैसे, यह प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ नहीं था। चार जजों ने अपनी बात रखी और उसके बाद भी ये चि‌‌ट्ठियों और बयानों के जरिए अपनी चिंताएं जाहिर कर रहे हैं। वे बहुत ही गंभीर मसले उठा रहे हैं। वे न्यायपालिका के हित में कॉलेजियम सिस्टम और प्रधान न्यायाधीश के काम करने के तरीके के गंभीर मुद्दे को उठा रहे हैं। यह कोई पॉलि‌टिकल रायवलरी नहीं है। वे यह जरूर मानते हैं कि प्रधान न्यायाधीश मामले को इस तरह देखें कि सुप्रीम कोर्ट के सामने जितने मसले हैं, उनका हल किया जा सके। मुझे लगता है वे यही चाहते हैं।

इसका एक उदाहरण जज बी.एच. लोया वाला मामला है। इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है। मैं अब इतना ही कह सकता हूं कि मुझे निजी तौर पर दुख हुआ। इसलिए कि जज लोया केस में हम न्यायपालिका के लिए लड़ रहे थे, न कि अपने लिए। इसमें हमें न कोई पब्लिसिटी चाहिए थी और न कोई फायदा चाहिए था। हमारी एक लड़ाई थी कि अगर एक जज की मृत्यु असामान्य तरीके से हुई है तो उसकी जांच होनी चाहिए, क्योंकि वे जज हिंदुस्तान के सबसे ताकतवर आदमी के केस का फैसला कर रहे थे। एक प्रतिष्ठित पत्रिका कारवां में जज की बहन, पिता, परिवारवाले संदेह उठा रहे हैं तो संदेह दूर करने के लिए जांच करने में क्या बुराई है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत दुखद है। यही नहीं, इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों और याचिकाकर्ता के लिए जो कहा है, वह मेरे ख्याल से वाजिब नहीं है।

न्यायपालिका पर सरकार के साए की बात करें तो ऐसे बहुत सारे मामले हैं, जैसे बिड़ला-सहारा केस, (अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री) कलिखो पुल केस और जज लोया केस, इन सब मामलों में देखेंगे तो सुप्रीम कोर्ट दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा है। अब इसके पीछे जो भी कारण हो।

इसके अलावा अयोध्या मामले में जिस हिसाब से डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की अर्जी मंजूर की गई है, वह भी विचित्र है। दो बार उनकी अर्जी सुप्रीम कोर्ट नकार चुका था। पहले पूर्व प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर और उसके बाद आए पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. खेहर की बेंच उसे खारिज कर चुकी थी। उसके बाद अचानक न्यायाधीश खेहर के कार्यकाल में इस मामले को सुनवाई के लिए मंजूर कर लिया गया। यह भी बेहद चिंताजनक है।

एक सवाल यह भी है कि जस्टिस चेलमेश्वर ने एक जगह अपनी चिंता जाहिर की कि जस्टिस गोगोई को चीफ जस्टिस नहीं बनाया जाता है तो उनकी चिंता ज्यादा मजबूत साबित होगी। यह एक तरह से ताबूत में आखिरी कील होगी। अगर सरकार ऐसा करती है तो बहुत ही शर्मनाक बात होगी। हिंदुस्तान के इतिहास में इंदिरा गांधी ने जो किया था, वही गलती यह सरकार करेगी। उम्मीद करता हूं कि सरकार ऐसी गलती न करे। “मैं न्यायपालिका का बहुत सम्मान करता हूं। मैं यही चाहूंगा कि न्यायपालिका मजबूत हो। वह देश के संविधान को बनाए रखे और देश के नागरिकों को उसका हक दिलाए। सुप्रीम कोर्ट ऐसा बने कि भले ही कितना ताकतवर इंसान हो, उस पर कोई इलजाम है तो उसकी जांच करने और न्याय करने की उसमें क्षमता हो। यह सब बहुत जरूरी है।”

महाभियोग अब तक

कबः 1993

जस्टिस वी. रामास्वामी (पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस)

आरोपः 1990 में पंजाब और हरियाणा के जज रहने के दौरान अपने आधिकारिक निवास पर काफी फालतू खर्च किया था। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी महाभियोग चलाने का प्रस्ताव पास किया था

नतीजाः लोकसभा में महाभियोग के प्रस्ताव पर कांग्रेस पीछे हट गई। प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत न होने से गिर गया

कबः 2011

न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (कलकत्ता हाइकोर्ट)

आरोपः वित्तीय गड़बड़ी और गलतबयानी। कलकत्ता हाइकोर्ट की तरफ से 1983 में एक मामले में रिसीवर बनाए जाने के बाद 33.23 लाख रुपए रिश्वत लेने का। सेन उस वक्त वकील थे।

नतीजाः लोकसभा में महाभियोग की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही न्यायमूर्ति सेन ने इस्तीफा दे दिया

कबः 2011

न्यायाधीश पी.डी. दिनकरण (सिक्किम हाइकोर्ट)

आरोपः भ्रष्टाचार, जमीन हड़पने, न्यायिक अधिकारों के दुरुपयोग सहित 16 मामले

नतीजाः महाभियोग की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया

कबः 2015 न्यायाधीश जे.बी. पर्दीवाला (गुजरात हाइकोर्ट)

आरोपः आरक्षण और पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के खिलाफ एक मामले में फैसले के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर आपत्तिजनक टिप्पणी

नतीजाः महाभियोग का नोटिस राज्यसभा सभापति को भेजने के कुछ ही घंटों बाद न्यायाधीश ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली।

कबः 2016 न्यायमूर्ति नागार्जुन रेड्डी (आंध्र और तेलंगाना हाइकोर्ट)

आरोपः एक दलित न्यायाधीश को प्रताड़ित करने के लिए अपने पद का दुरुपयोग

नतीजाः राज्यसभा के 54 सदस्यों में से नौ पीछे हट गए

विवाद के घटनाक्रम

-12 जनवरीः सुप्रीम कोर्ट के चार जजों जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस मदन लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसफ, जस्टिस रंजन गोगोई ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन ठीक से नहीं चल रहा है

-16 जनवरीः प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले चारों वरिष्ठ जजों से मुलाकात की

- 21 जनवरीः जज लोया की मौत के मामले की सुनवाई से जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ ने खुद को अलग किया। यह मामला फिर प्रधान न्यायाधीश के पास गया

-12 अप्रैलः सुप्रीम कोर्ट ने प्रधान न्यायाधीश को बताया मास्टर ऑफ रोस्टर। यह फैसला प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने दिया

-12 अप्रैलः मास्टर ऑफ रोस्टर के मुद्दे पर जस्टिस चेलमेश्वर ने सुनवाई करने से इनकार करते हुए कहा कि वे नहीं चाहते हैं कि 24 घंटे के अंदर ही उनका आदेश पलट दिया जाए

- 12 अप्रैलः जस्टिस कुरियन जोसफ ने चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार की चुप्पी पर सवाल खड़ा किया

- 20 अप्रैलः कांग्रेस के नेतृत्व में सात विपक्षी दलों ने राज्यसभा के सभापति को प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग चलाने का नोटिस दिया

- 23 अप्रैलः सभापति वेंकैया नायडू ने विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव को खारिज कर दिया

- 26 अप्रैलः उत्तराखंड हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसफ की सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति की सिफारिश को सरकार ने कॉलेजियम को लौटाया

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं, उनका यह लेख हरिमोहन मिश्र से बातचीत पर आधारित है)

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