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जुमलेबाजी की खुली पोल

चार साल में संवैधानिक संस्थाओं, न्यायपालिका पर हमले, नफरत बढ़ी, भ्रष्टाचार फैला, रोजगार घटे
अब लोग भाजपा की जुमलेबाजी की राजनीति समझने लगे हैं

केंद्र की मौजूदा सरकार सत्ता पाने में इसलिए कामयाब हो पाई थी, क्योंकि यूपीए सरकार के 10 साल, खासकर वाम दलों की समर्थन वापसी के बाद आखिर के छह साल के दौरान देश में एक नकारात्मक माहौल बना था। भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट के चलते लोगों में बदलाव की बेचैनी पैदा हुई थी। ऐसे में नरेंद्र मोदी सामने आए। गौरतलब है कि 2014 का चुनाव संसदीय चुनाव के इतिहास में बड़ा बदलाव लेकर आया। बदलाव इस मायने में था कि संसदीय चुनाव प्रेसिडेंशियल मुकाबले में तब्दील कर दिया गया। एक पार्टी के बजाय एक नेता को सामने रखकर चुनाव लड़ा और जीता गया।

यह सब अचानक नहीं हुआ। दरअसल, देश की अर्थव्यवस्था में जो नई उदारवादी व्यवस्था ‘90 के दशक के शुरू से चल रही थी, 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद देश में उस नीतिगत दिशा के तहत समाधान की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। इसलिए 2014 में विदेश से काला धन लाकर लोगों के बैंक खातों में डालने, हर साल दो करोड़ रोजगार, महंगाई पर अंकुश और विकास के वादे लोगों में उम्मीद जगाने में कामयाब रहे। इन वादों को कैसे पूरा किया जाएगा, उनमें कोई स्पष्टता नहीं थी। न ही समस्याओं के समाधान के लिए कोई रोडमैप था। फिर भी देश का कॉरपोरेट जगत बढ़-चढ़कर ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ का समर्थन कर रहा था। कॉरपोरेट घराने समझ रहे थे कि मुश्किल वैश्विक हालात में आर्थिक वृद्धि हासिल नहीं की जा सकती। ऐसे माहौल में व्यावसायिक घरानों के लाभ को आश्वस्त करने वाली नीतियां मोदी के द्वारा ही हासिल की जा सकती थीं। मोदी की ताकतवर छवि गढ़ने के लिए दो अलग-अलग ताकतें भारतीय व्यावसायिक घराने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हो गईं। कॉरपोरेट जगत के इस समर्थन का पूरा फायदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने उठाया। एक तरफ मोदी की विकास पुरुष की छवि और दूसरी तरफ हिंदुत्व का उग्र अभियान छेड़ा गया। चुनाव से छह महीने पहले यूपी में ही 600 छोटे-बड़े दंगे हुए। इस तरह आरएसएस के नेतृत्व वाली मोदी सरकार सत्ता में आई थी।

पिछले लगभग चार साल में जो घटनाएं हुईं, संवैधानिक संस्थाओं पर हमले का जो माहौल तैयार हुआ, नफरत और असहिष्णुता बढ़ी और भ्रष्टाचार फैला, हम वामपंथियों खासकर माकपा को इससे बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। इस सरकार को आसान शब्दों में कॉरपोरेट हिंदुत्व की सरकार कह सकते हैं और मोदी इस अवधारणा का निचोड़। इस सरकार की चार प्रमुख विशेषताएं हैं:

- देश-दुनिया में पूंजीवाद संकट में है इसलिए उन चुनावी वादों को पूरा करना संभव नहीं है। इन चार वर्षों में हालत बदतर होती गई। कुछ साल पहले एक फीसदी लोगों के पास करीब 50 फीसदी दौलत थी, अब उनके हाथों में 73 फीसदी दौलत है। दूसरी तरफ रोजगार घटे, महंगाई बढ़ी, कच्चा तेल सस्ता होने के बावजूद पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते गए। आर्थिक क्षेत्र में नोटबंदी और जीएसटी जैसे एकतरफा और मनमाने फैसलों ने इस सरकार के तानाशाही रवैए को पुष्ट किया है।

- इस दौरान भ्रष्टाचार का खूब बोलबाला रहा। कर्नाटक में जिस तरह भ्रष्ट नेताओं को आगे रखकर भाजपा चुनाव लड़ रही है, उसने मोदी की ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ के दावे की पोल खोल दी है। बैंकिंग घोटालों ने पूरी इकोनॉमी को डुबाने का काम किया है। नीरव मोदी, विजय माल्या सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर बड़े सवालिया निशान हैं। नव-उदारवादी रुझान और तीखा हुआ है। इसकी झलक भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और रोजी-रोटी के संकट में दिख रही है।

- सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इस दौर में गहरा और हिंसक हुआ है। हिंदुत्व की अवधारणा को खुद वी.डी. सावरकर सत्ता हथियाने की एक राजनैतिक परियोजना करार दे चुके हैं। इस प्रकार के हिंदुत्व का विरोध करने वालों को राष्ट्र विरोधी करार दिया जाता है। मतलब साफ है। अगर आप लोगों को रोजी-रोटी नहीं देते और उन्हें आपस में बांट रहे हैं तो इसके खिलाफ विरोध-प्रतिरोध को कुचलने के लिए तानाशाह बनना ही पड़ेगा। यही हो रहा है। संसद में चर्चा के बगैर ही करोड़ों रुपये के विधेयक पारित कराए जा रहे हैं। चुनावों में कारपोरेट का दखल बढ़ाने का रास्ता खोल दिया। सुप्रीम कोर्ट में पसंदीदा जजों की नियु‌िक्त और न्यायपालिका को नियंत्रित करने की कोशिश सबके सामने है। मजबूरन सुप्रीम कोर्ट के चार जजों को जनता के सामने आना पड़ा।

- विदेश नीति के क्षेत्र में दूरदृष्टि और सूझबूझ का अभाव साफ दिख रहा है। यह सरकार इजरायल के साथ मिलकर और उसी की तर्ज पर साम्राज्यवादी नीयत अपनाए हुए है। इससे हमारे आस-पड़ोस में ही विश्वसनीयता का सवाल खड़ा हो गया है।

अच्छी बात यह है कि चार साल बाद लोगों को जुमलेबाजी की यह राजनीति समझ आने लगी है। हाल के उपचुनाव और गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे इसी तरफ इशारा करते हैं। हालांकि, भाजपा जोड़तोड़ और धनबल का इस्तेमाल कर त्रिपुरा में चुनाव जीत गई, लेकिन चार साल पहले जो मोदी सरकार की साख थी, वह अब नहीं है।

अगर भाजपा और आरएसएस लोगों को भ्रमित करने में कामयाब रहे तो इसकी एक वजह हिंदुत्ववादी राजनीति के पक्ष में कॉरपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया का सम्मिलित प्रयास भी था। लेकिन उस प्रचार और लोगों के जीवन के वास्तविक अनुभवों में फर्क महसूस किया जाने लगा है। इसलिए गुजरात चुनाव से पहले अमित शाह को कहना पड़ा कि सोशल मीडिया पर ध्यान मत दीजिए। देश को इस फासीवादी दौर से उबारने और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए माकपा ने हाल में हुई पार्टी कांग्रेस में पहला लक्ष्य आरएसएस के नेतृत्व में चल रही इस भाजपा सरकार को हटाना तय किया है। हम गरीब, किसानों, मजदूरों, वंचितों, दलितों, युवाओं और अल्पसंख्यकों के सवालों पर जमीनी संघर्ष छेड़ेंगे और वामपंथी, जनवादी ताकतों को एकजुट करेंगे।

(लेखक माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं, यह लेख अजीत सिंह से बातचीत पर आधारित है)

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