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गेम नहीं, नेम चेंजर सरकार

हवाई वादों और फर्जी आंकड़ाें में उलझाकर नफरत, नाराजगी और निराशा ही एनडीए सरकार की कथा
जमीन पर नहीं उतरे वादे

अक्सर सरकारों को उनके चुनावी वादों की कसौटी पर परखा जाता है। लेकिन 2014 में देश में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार आने के बाद से ही चुनावी वादों को निरर्थक करार देने के प्रयास शुरू हो गए थे। यह सामान्य बात नहीं है। इससे चुनावी वादों की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठने लगे हैं। याद कीजिए, विदेशों में जमा काला धन वापस लाने को जिस पार्टी ने जोर-शोर से चुनावी मुद्दा बनाया था, उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ने उस वादे को ही जुमला करार दिया। जाहिर है, यह सरकार असलियत का सामना करने से बच रही है। ऐसा रवैया किसी भी सरकार के कामकाज की समीक्षा में सबसे बड़ा अवरोधक है।

आज जब केंद्र की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार अपने चार साल पूरे करने जा रही है तो भय का माहौल है। ऐसा माहौल देश में आजादी के बाद पहली बार देखने को मिल रहा है कि जब सारे वर्ग सरकार को लेकर चिंतित हैं। ऐसा भय, आतंक, घृणा और हिंसा का माहौल पहले कभी नहीं देखा गया। किसान दुखी है, युवाओं के साथ धोखा हुआ है। महिलाएं दुखी हैं, बलात्कार और महिला हिंसा की घटनाएं कितनी बढ़ी हैं, सबको मालूम है। महंगाई की मार कितनी पड़ी है, कोई सोच नहीं सकता था। कच्चा तेल सस्ता होने के बावजूद पेट्रोल-डीजल के दामों ने महंगाई के रिकॉर्ड तोड़ दिए। जो भी वादे नरेंद्र मोदी और भाजपा ने चुनाव के समय किए थे पिछले चार साल में वे वादे ही रह गए, जमीन पर कोई नहीं उतरा।

उदाहरण के तौर पर देश में 100 नई स्मार्ट सिटी बसाने की बात हुई थी। कहां हैं ये स्मार्ट शहर? एक स्मार्ट सिटी बताएं कि जो बन चुकी हो देश के अंदर? याद कीजिए कैसे 2014 के चुनाव के दौरान महिला सुरक्षा और बेटी बचाओ के नारे बुलंद किए गए थे। लेकिन आज देश में महिला असुरक्षा का माहौल है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि सरकार हिंसा, शोषण, बलात्कार पीड़िताओं के बजाय दोषियों के बचाव में खड़ी है। कठुआ और उन्नाव की घटनाओं से भाजपा और उसकी सरकारों का चरित्र उजागर हो गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौजवानों को हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वादा किया था। इसमें भी सरकार पूरी तरह विफल रही है। ऊपर से फर्जी आंकड़ेबाजी से हकीकत पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है। बार-बार पेपर लीक और परीक्षाओं में धांधलियों ने नाराज युवाओं को सड़क पर उतरने को मजबूर कर दिया है। ऐसा ही आक्रोश आज समाज के हर वर्ग में है। पिछले चार साल के दौरान देश के विभिन्न राज्यों से दलितों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। फिर भी दलितों की सुध लेना तो दूर उनके संरक्षण के लिए पहले से बने कानून को कमजोर किया जा रहा है। पिछले दरवाजे से आरएसएस और भाजपा से जुड़े प्रमुख लोग आरक्षण समाप्त करने के संकेत कई बार दे चुके हैं। सरकार के इस रवैए को लेकर दलितों में भी आक्रोश है। 

यही आक्रोश इस सरकार का सबसे बड़ा रिपोर्ट कार्ड है। पिछले साल भर से देश में जगह-जगह किसान आंदोलन हो रहे हैं। हताश किसान अपनी उपज सड़कों पर फेंकने को मजबूर हैं। किसानों की इन तकलीफों को समझने के बजाय उन्हें भी डेढ़ गुना दाम के हवाई दावों और झूठ में उलझाया जा रहा है। फसल बीमा के नाम पर किसानों की जेब काटकर बीमा कंपनियों को मालामाल करने का खेल चल रहा है। लेकिन समस्या यह है कि यह सरकार अपनी हर नाकामी, अपनी हर आलोचना को राजनीति से प्रेरित और देश विरोधी करार देती है। अपने कामकाज के मूल्यांकन से बचने का उन्होंने यही रास्ता निकाला है। 

एक और प्रवृत्ति इस सरकार पर हावी है। पहले से लागू योजनाओं के नाम बदलकर श्रेय लूटना या फिर फर्जी आंकड़ेबाजी का सहारा लेकर कामयाबी के दावे करना। लेकिन केंद्र की कई योजनाएं गेम चेंजर नहीं बल्कि नेम चेंजर हैं। इसी तरह कई योजनाओं की कामयाबी को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। मिसाल के तौर पर, उज्ज्वला योजना के तहत जिन बीपीएल उपभोक्ताओं को पूर्व में कनेक्शन जारी किए गए हैं, उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि वे महंगी दरों के एलपीजी सिलेंडर नहीं भरवा पा रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ एलपीजी सिलेंडर की महंगाई देश की आम जनता को चुभ रही है। इस पहलू की अनदेखी करके मोदी सरकार कामयाबी का ढोल पीट रही है। आर्थिक मोर्चे पर इस सरकार के अहंकार और नासमझी ने बड़ी मुसीबतें पैदा कर दी हैं। नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसले और इनके क्रियान्वयन की खामियां उद्योग-धंधों और कारोबारियों की कमर तोड़ रही हैं। 

संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर हमले और उन्हें कब्जाने की कोशिशें भी इन चार वर्षों में सरकार की पहचान बन चुकी हैं। चार वर्ष गुजर जाने के बाद भी लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई। संसद को चलने नहीं दिया जा रहा। न्यायपालिका की यह स्थिति है कि सर्वोच्च अदालत के चार जजों को जनता के सामने आकर कहना पड़ा कि लोकतंत्र खतरे में है। नोटबंदी के दौरान रिजर्व बैंक के फैसले सरकार लेती रही। चुनाव आयोग की साख पर भी सवाल उठ रहे हैं।

इन हालात में नफरत और हिंसा की राजनीति के बजाय भाईचारे और सामाजिक सद्‍भाव की राह अपनाने और बेरोजगारी, गरीबी और किसानों की समस्याओं के हल निकालने की जरूरत है। स्पष्ट रूप से देश में एक नए नेतृत्व और नई सोच के लिए जगह बन रही है।

(लेखक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के संगठन महासचिव हैं, यह लेख अजीत सिंह से बातचीत पर आधारित है)

 

 

 

 

 

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