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न कुछ किया, न कुछ हुआ

काली कमाई का जरिया पहले की तरह ही बरकरार, नासमझ फैसलों से नहीं पड़ा फर्क
केवल कानूनों से काले धन की समस्या का समाधान  संभव नहीं

काला धन 2009 से मुद्दा बनना शुरू हुआ और 2014 के आम चुनावों में भाजपा को इसका फायदा मिला। पार्टी ने विदेशों से काला धन लाने और काले धन की अर्थव्यवस्‍था पर अंकुश लगाने का वादा किया। चार साल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस दिशा में कौन-कौन से कदम उठाए और उसके क्या नतीजे निकले, इसे जानने से पहले काला धन और काली कमाई के अंतर को समझना होगा।

काली कमाई हर दिन की जाती है और इसमें बचत कर काला धन जमा किया जाता है। मेरे अनुमान से देश की आबादी के तीन फीसदी लोग काली कमाई में लगे हैं और काला धन जमा कर रहे हैं। इसके अलावा मौका मिलने पर कोई छोटी-मोटी कमाई कर लेता है तो वह उसकी जरूरतें पूरी करने में खर्च हो जाती है। उसके पास काला धन नहीं बचता। हम काली कमाई को कम कर देंगे तो काला धन भी धीरे-धीरे कम हो जाएगा।

काली कमाई और काला धन में फर्क कर पाने में मौजूदा सरकार नाकाम रही है। यही कारण है कि बतौर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि सारा काला धन बाह‌र है और उसे हम ले आएंगे तो 15 लाख रुपये हर परिवार को मिलेंगे। मेरे अनुसार जो काली कमाई है, उसका 10 फीसदी ही बाहर जाता है। 90 फीसदी देश के अंदर ही रहता है। जो पैसा देश के बाहर गया है, वह किस रूप में है, यह जानना भी जरूरी है। सारी रकम वहां के बैंकों में ही पड़ी नहीं है। उसे इंडस्ट्री, रियल एस्टेट में निवेश किया गया होगा। बच्चों की पढ़ाई, इलाज वगैरह पर खर्च किया गया होगा। तो विदेश में कितना पैसा बचा है? मैंने एक अनुमान लगाया था कि 70 साल में जो पैसा देश से बाहर गया, अगर वह बैंकों में होता और उस पर ब्याज मिल रहा होता तो काला धन दो खरब डॉलर होता। लेकिन उसमें से पैसे खर्च या निवेश किए गए, इसलिए ज्यादा से ज्यादा चार से पांच सौ अरब डॉलर काला धन ही देश के बाहर होगा। उस समय जो भाजपा का कैंपेन चल रहा था, उसके मुताबिक, सात-आठ खरब डॉलर काला धन विदेश में होने का अनुमान था, जो निराधार था।

इसके अलावा 90 टैक्स हेवेन जगहें हैं। इन जगहों पर कैसे और किनके नाम से पैसे हैं, जब यही पता न हो तो आप वहां से पैसे भला कैसे ला सकते हैं। असल में यह मुद्दा चुनाव जीतने के लिए उठाया गया था। इसलिए सरकार बनने से पहले भाजपा ने इसे काफी तवज्जो दी। केंद्र में सरकार बनने के बाद पहली कैबिनेट बैठक में काले धन पर एसआइटी का गठन किया गया, क्योंकि अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी। चार साल हो गए, लेकिन एसआइटी से निकला क्या है, यह आज तक पता नहीं चला। इस बीच एचएसबीसी, एलजीटी, पनामा पेपर्स, पैराडाइज पेपर्स जैसे कई मामलों के खुलासे हुए। इनमें भी कुछ नहीं हुआ। इनकम डिक्लरेशन स्कीम आई। नोटबंदी का धमाका किया गया। बेनामी प्रापॅर्टी पर कानून बना। डिजिटलाइजेशन पर जोर दिया गया। जीएसटी लागू किया गया। लेकिन, इन सबसे कोई फायदा नहीं हुआ।

काले धन की अर्थव्यवस्‍था से एक गलत धारणा जुड़ी है। काला धन का मतलब मोटे तौर पर नगदी से लगाया जाता है। लेकिन, काले धन का एक फीसदी ही नगदी में होता है। नोटबंदी के बाद जब सभी नोट वापस आ गए तो इसका मतलब यह हुआ कि काले धन का एक फीसदी भी कम नहीं हुआ। जीएसटी का कलेक्‍शन बता रहा है कि लोग अभी भी बिना बिल के काम कर रहे हैं। इस सरकार की शुरुआत में लगा था कि घोटाले नहीं हो रहे हैं। लेकिन अब धड़ाधड़ एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं। घोटाले तीन-चार साल बाद ही पता चलते हैं। ऐसे में मेरा मानना है कि काले धन की अर्थव्यवस्‍था पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। आज भी काली कमाई का जरिया वैसे ही बरकरार है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस सरकार के आने से काली कमाई तेज हुई है। लेकिन, जो कदम उठाए गए हैं, उनसे कोई फायदा निश्चित रूप से नहीं हुआ है।

काले धन की अर्थव्यवस्‍था करीब साठ फीसदी है। इतने बड़े पैमाने पर गैर-कानूनी काम तभी हो सकता है जब उसमें राज्य-व्यवस्‍था शामिल हो। काले धन की अर्थव्यवस्‍था भ्रष्ट नेता, अफसरशाह और बिजनेसमैन की तिकड़ी चला रही है। जरूरत है जवाबदेही तय करने की और इसके लिए मूवमेंट खड़े करने होंगे। ऐसे मूवमेंट जो सस्टेन कर सकें, क्योंकि इस समस्या का शॉर्ट टर्म सल्यूशन नहीं है। वैसे भी 1948 के बाद कम से कम चालीस समितियों ने काले धन के किसी न किसी पक्ष का अध्ययन किया। सभी सरकारों ने इस दिशा में कुछ न कुछ कानून बनाए। लेकिन, इसका समाधान केवल कानून बनाने से ही नहीं निकलेगा।

इसके समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। लेकिन जिस ‌तरह सिर्फ राजनीतिक विरोधियों पर चुनिंदा कार्रवाई की गई है उससे नहीं लगता है कि काले धन पर रोक के लिए पूरी तरह सरकार में कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति है।  मौजूदा सरकार के इरादों पर शक न भी करें तो फैसलों से साफ है कि उसे पूरे मसले की समझ ही नहीं है। 

(लेखक जेएनयू में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं। काले धन पर उनकी चर्चित किताबें हैं। यह लेख अजीत झा से बातचीत पर आधारित है)

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