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निवेश का माहौल न बना तो घटे रोजगार के मौके

2011-12 के बाद निवेश और रोजगार घटने का जो दौर शुरू हुआ, उसे बदलने में मौजूदा सरकार बहुत सफल नहीं रही है, गैर-कृषि क्षेत्रों में नौकरी बढ़ने की दर कम, स्टार्टअप, मुद्रा जैसी योजनाओं से भी फायदा नहीं
बदलती आकांक्षाएंः युवाओं को गैर कृषि रोजगार की जरूरत

2014 के आम चुनावों में भाजपा ने जो वादा किया था उस पर क्यों जाया जाए, क्योंकि नौकरियां देना सरकार के हाथ में नहीं है। रोजगार तो निजी क्षेत्र में ही पैदा होते हैं। यह अलग बात है कि केंद्र और राज्य सरकारें नीतियों से ऐसा माहौल बना सकती हैं जिससे रोजगार बढ़े या न बढ़े। यह उम्मीद करना कि सरकार की लेबर मिनिस्ट्री नौकरियां पैदा करेगी, बेमानी है।

एक जमाना था जब सरकार नौकरियां बांटती थी तो रोजगार बढ़ते थे। उस समय निजी क्षेत्र उतने महत्वपूर्ण नहीं थे। लेकिन, अब रोजगार निजी क्षेत्र में ही बढ़ते हैं। सरकारी नौकरियों की बात करें तो देश के मौजूदा हालात को देखते हुए चार क्षेत्रों में रोजगार देना सरकार के हाथ में है। लगभग सभी प्रदेशों में पुलिसकर्मियों और जजों की जरूरत है। स्वास्थ्य क्षेत्र में डॉक्टरों और खासकर नर्सों की ज्यादा जरूरत है। इसी तरह माध्यमिक स्तर पर शिक्षकों की बहुत कमी है, विशेषकर साइंस, टेक्नोलॉजी और गणित के शिक्षकों की। इन चारों क्षेत्रों में नौकरी बढ़ने की बहुत आवश्यकता है। लेकिन, अफसोसनाक यह है कि कोई भी सरकार इन क्षेत्रों को अधिक वित्तीय सहायता देने को तवज्जो नहीं देती है।

सरकार कहती है कि हमने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर दी है। लेकिन, इससे फायदा केवल उन्हीं को हुआ जो आज सरकारी नौकरी कर रहे हैं। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों में भी तकरीबन 90 फीसदी कर्मचारी ग्रुप सी और डी के हैं। इनकी कुछ सुविधाएं बढ़ी हैं लेकिन अब सरकार कह रही है कि उसके पास पैसा नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि बीस साल से सरकार में नौकरियां बढ़ी ही नहीं हैं। यही कारण है कि कभी-कभार कुछेक सौ पद के लिए भर्तियां निकलती हैं तो हजारों की संख्या में आवेदन आते हैं। यह सरकारी क्षेत्रों की स्थिति है जहां रोजगार पैदा करना सरकारों के हाथ में है।

अब बात निजी क्षेत्र की। किसी भी अर्थव्यवस्था के तीन हिस्से होते हैं। कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र। जैसे-जैसे विकास होता है और प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है तो यह लाजिमी है कि कृषि में काम कर रहे लोगों की संख्या कम हो। यह अच्छी बात भी है। यह भ्रम है कि कृषि में लोग कम होंगे तो पैदावार कम हो जाएगी। ऐसा कभी नहीं होता। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान केवल 14 फीसदी है, जबकि 2015-16 में देश की 47 फीसदी कामगार आबादी कृषि से जुड़ी थी। जब 47 फीसदी कामगार आबादी सकल घरेलू उत्पाद में केवल 14 फीसदी का योगदान दे रहे हैं तो साफ है कि उत्पादकता बहुत कम है। यह अर्थव्यवस्‍था की खस्ताहाली ही जाहिर करती है। बहुत जरूरी है कि लोग कृषि क्षेत्र से बाहर आएं। लेकिन, कृषि क्षेत्र लोग तभी छोड़ेंगे जब गैर-कृषि क्षेत्रों में नौकरियां बढ़ रही हों।

दो तरह के लोग कृषि छोड़ना चाहेंगे। भूमिहीन किसान और छोटे किसान। ऐसे लोग गैर-कृषि क्षेत्र में भी काम कर सकते हैं। छोटे और भूमिहीन किसान बहुत पढ़े-लिखे भी नहीं होते। 2004-05 के बाद कंस्ट्रक्‍शन में बहुत तेजी से निवेश बढ़ा और रोजगार बढ़े। यह वृद्धि करीब दस साल चली। इसके कारण कृषि छोड़ने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गई, जबकि आजादी से 2004 तक कृषि क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के अनुपात में भले कमी आई हो लेकिन उनकी कुल संख्या बढ़ ही रही थी। 2004-05 के बाद कुल संख्या में कमी आई, जो खुशखबरी थी।

2005-12 के बीच करीब 50 लाख लोग हर साल कृषि छोड़ रहे थे। ऐसा कंस्ट्रक्‍शन में निवेश बढ़ने के कारण हुआ। इससे मजदूरी दर भी बढ़ी। इसका फायदा यह हुआ कि गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले परिवारों की संख्या कम हुई। ऐसा 2004 तक कभी नहीं हुआ था। भारत की जनसंख्या में गरीबों का अनुपात भले कम हो रहा था, लेकिन गरीबों की कुल संख्या में कोई कमी नहीं आ रही थी। नेशनल लेबर ब्यूरो के सैंपल सर्वे के 2015-16 के आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 से 2015-16 के बीच लोग कृषि तो छोड़ रहे थे, लेकिन कंस्ट्रक्‍शन में रोजगार पाने वालों की संख्या में भारी कमी आई। यह संख्या 50 लाख से गिरकर 10 लाख हो गई। ऐसा निवेश कम होने के कारण हुआ। सरकार ऐसा माहौल नहीं बना पाई, जिससे कंस्ट्रक्‍शन में निवेश होता रहे।

नौकरियां तेजी से तब बढ़ती हैं जब निवेश की दर खासकर निजी क्षेत्र में बढ़ती है। 2002-03 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 24 फीसदी निवेश की अनुपात दर थी। यह बड़ी तेजी से बढ़कर 2007-08 में 38 फीसदी पर पहुंच गया। निवेश दर जब इतनी तेजी से बढ़ती है तो नौकरियां भी बढ़ती हैं। 2008 में वैश्विक मंदी के कारण निवेश दर गिरी। 2013-14 में यह करीब 34 फीसदी थी। इसके बाद से गिरकर आज 29 फीसदी तक आ चुकी है। 2003-04 से 2011-12 के बीच औसत विकास दर आठ फीसदी थी। उसमें भी कमी आई है। लिहाजा रोजगार में वृद्धि की दर कम हो गई है। 2004-05 से 2011-12 के बीच औसतन 75 लाख नई नौकरियां  हर साल गैर कृषि क्षेत्र में पैदा हो रही थीं। आज गैर कृषि क्षेत्र में केवल सालाना 25 लाख नौकरियां पैदा हो रही हैं।

बीते दस साल में शिक्षा में बड़ी उन्नति हुई है। इससे युवाओं की आशाएं और आकांक्षाएं बहुत बदल गई हैं, जो खेती कर रहे हैं वह जब कृषि छोड़ना चाहते हैं तो पढ़ा-लिखा ग्रामीण युवक क्यों खेती करना चाहेगा। उसे कंस्ट्रक्‍शन में लेबर का भी काम नहीं चाहिए। लेकिन, विकास दर और निवेश दर के कारण मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विसेज में भी रोजगार की वृद्धि में कमी आ गई है, शिक्षित युवा जो नौकरी ढूंढ़ रहे हैं उनकी संख्या में बढ़ोतरी हुई है। जो नई इंडस्ट्री स्‍थापित हो रही हैं, उनमें तकनीक का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि, लेबर सस्ता है, लेकिन सिर्फ सस्ता होने से फायदा नहीं होता। गुणवत्तापूर्ण कामगार होने चाहिए। उनमें स्किल होनी चाहिए। दिक्कत यह है कि स्किलिंग का प्रोग्राम बीते दस साल से चल रहा है लेकिन सरकार ने जो रवैया अपनाया हुआ है वह है जल्दी से जल्दी तीन-चार महीने में स्किल दे दो और उनको नौकरियां मिल जाएंगी। लेकिन नौकरियां नहीं मिलतीं। जो अर्ध शिक्षित हैं उनको तीन-चार महीने में हुनरमंद नहीं बनाया जा सकता। ऐसी स्थिति में उद्योगपति चाहते हुए भी ऐसे वर्कर को नहीं रख सकता और वह फिर तकनीक का इस्तेमाल करने लगता है। इससे भी नौकरियां कम हो रही हैं।

उच्च शिक्षा में ग्रॉस इनरोलमेंट रेट 2006 में 11 फीसदी था, जो अब बढ़कर 26 फीसदी हो चुका है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2004-05 से 2011-12 के बीच पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या में कमी आई थी। लेकिन, 2011-12 से 2015-16 के बीच इसमें जबर्दस्त बढ़ाेतरी हुई। लेबर ब्यूरो के वार्षिक सर्वे इसकी पुष्टि करते हैं। 2015-16 के बाद क्या हुआ, इसके आंकड़े सरकार ने जारी नहीं किए हैं। लेकिन, सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) व्यापक रूप से (एक नेशनली रिप्रजेंटेटिव सैंपल सर्वे के द्वारा) इससे जुड़े आंकड़े इकट्ठा कर रहा है। ये आंकड़े बताते हैं कि हालात में कोई सुधार नहीं हुआ है।

करीब चार-पांच महीने पहले घोष ऐंड घोष का एक अध्ययन आया था। प्रधानमंत्री ने भी इसका जिक्र किया था। आइआइएम बेंगलूरू के प्रोफेसर पुलक घोष और एसबीआइ के ग्रुप चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर सौम्यकांति घोष ने दावा किया था कि 75 लाख रोजगार हर साल पैदा हो रहे हैं। इस बात में कोई दम नहीं था। असल में हुआ यह है कि जीएसटी लागू होने के बाद असंगठित क्षेत्र की छोटी-छोटी इकाइयां पंजीकृत होकर संगठित क्षेत्र में आ गईं हैं। यह अच्छी बात है। लेकिन इसी आधार पर घोष ऐंड घोष ने नए रोजगार पैदा होने का दावा कर दिया, जबकि यह केवल असंगठित क्षेत्र का संगठित क्षेत्र में परिवर्तन था। वित्त मंत्रालय के आर्थिक सर्वेक्षण से भी इस बात की पुष्टि हुई कि जीएसटी के बाद संगठित क्षेत्र में इकाइयों की संख्या बढ़ गई। इससे संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ते दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन ये इकाइयां रातोरात खड़ी नहीं हुई थीं और न ही नए रोजगार पैदा हुए थे। सीएमआइई के भी आंकड़े बता रहे हैं कि नौकरियों में बढ़ाेतरी नहीं हो रही। 

स्टार्टअप इंडिया, मुद्रा जैसी योजनाओं से भी फायदा होता नहीं दिख रहा। मुद्रा के तहत काफी पैसे बांटे गए हैं। लेकिन, इस योजना में औसतन एक व्यक्ति को 17 हजार रुपये का कर्ज मिल रहा है। अर्ध शिक्षित युवा इतने पैसे से एकाध महीने अपना जीवन-यापन तो कर सकते हैं, लेकिन दूसरों के लिए रोजगार पैदा नहीं कर सकते। यही पैसा स्वयंसेवी समूहों को देकर उन्हें सुदृढ़ किया जाए तो काफी फायदा होगा। लघु उद्योगों को कर्ज नहीं मिलता तो उनको क्यों न इसका पैसा दिया जाए। क्योंकि जैसे-जैसे उनकी उन्नति होगी वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार देंगे। यानी इस सरकार की कोशिशें रोजगार पैदा करने में बहुत सफल नहीं हुई हैं। लेकिन यह कहना जरूरी है कि सरकार ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सामूहिक सुरक्षा देने के लिए एक कानून जरूर तैयार किया है, जिसे शीघ्र लागू करना देशहित और मजदूरों के लिए बहुत अच्छा होगा ।

(लेखक जेएनयू में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर और द सेंटर फॉर लेबर के चेयरपर्सन हैं। यह लेख अजीत झा से बातचीत पर आधारित है)

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