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वादे और नतीजे में फर्क भारी

चुनावी साल में मोदी सरकार क्या किसानों से किए वादे पूरा कर पाएगी या नाराजगी का शिकार होगी
किसानों को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देने का वादा कैसे होगा पूरा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 26 मई, 2014 को केंद्र में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के सत्तासीन होने में देश के किसानों की बड़ी भूमिका रही है। किसानों को खेती-किसानी की लागत से 50 फीसदी मुनाफा देने का वादा जो नरेंद्र मोदी और भाजपा ने किया था। यकीनन, इस माह जब मोदी सरकार को चार साल पूरे हो रहे हैं तो उस पर सबसे अधिक दबाव किसानों से किए वादे को पूरा करने का ही है। इसका प्रधानमंत्री को एहसास भी है। यही वजह है कि पिछले कुछ माह से उन्होंने इस वादे को पूरा करने की अपनी प्रतिबद्धता कई बार दोहराई है। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए अपनी पार्टी का कैंपेन शुरू करने के दिन भी उन्होंने यह वादा पूरा करने की बात कही।

असल में पिछले चार साल में सरकार के कामकाज पर नजर दौड़ाएं तो कृषि और किसानों के लिए कई कदम उठाने की कोशिश सरकार ने की लेकिन नतीजे उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहे। कुछ ऐसी ही स्थिति सबसे बड़े वादे की भी है। उस पर चालू साल के बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जिस तरह उपलब्धि की मुहर लगाने की नाकाम कोशिश की, उससे मामला कुछ उल्टा पड़ गया है।

हालांकि, सरकार ने अपनी नीतियों के केंद्र में किसान की आय को रख लिया है और उपज बढ़ाने पर नीतियों का फोकस घटा दिया है। इसीलिए 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य तय कर दिया गया है। कृषि मंत्रालय के एक एडिशनल सेक्रेटरी की अध्यक्षता में कमेटी बना दी गई है। यह कमेटी सैकड़ों पन्नों की रिपोर्ट तैयार कर रही है।

लेकिन बजट के बाद मुद्दा बहुत पेचीदा हो गया कि आखिर किसानों को किस लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिया जाए। नीति आयोग बीच का रास्ता निकालने की बात कर रहा है। लेकिन किसानों को न तो बीच के रास्ते से कोई मतलब है और न ही 2022 में दोगुना आमदनी के फार्मूले से। उनका साफ कहना है कि जिस सी-2 फार्मूले से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय होता है, उसी पर 50 फीसदी मुनाफा हमें चाहिए। इस मसले पर अब गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाला मंत्री-समूह माथापच्ची कर रहा है जिसका नतीजा शायद कर्नाटक चुनावों के बाद आए। हालांकि, मामले को उलझाने के लिए भावांतर योजना और कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों व सेवानिवृत्त अधिकारियों का फार्मूला भी आया है जिसमें एमएसपी और डेढ़ गुना दाम के चक्कर को छोड़कर सीधे किसानों के खाते में पैसा ट्रांसफर करने की बात की गई है।

अब यह वादा कैसे पूरा होगा यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा लेकिन चार साल की देरी भी बड़ी देरी होती है और उसकी कुछ राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ सकती है।

दाम के अलावा सरकार ने किसानों को प्राकृतिक आपदा और दूसरे नुकसानों से संरक्षण देने के लिए फसल बीमा सुरक्षा देने का वादा किया था। इस दिशा में पुरानी फसल बीमा योजना में कई बदलाव किए गए और इसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का नाम देकर लागू किया गया। प्रीमियम घटाया गया और क्लेम के भुगतान के लिए प्रक्रिया आसान बनाई गई। कागजों पर यह बेहतर योजना लगती है लेकिन जमीन पर उतनी ही नाकाम साबित हुई। इसके तहत प्रीमियम और केंद्र व राज्यों से मिलने वाली सब्सिडी की राशि तो 24 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गई लेकिन किसानों के क्लेम इससे आधे भी नहीं दिए गए। फिर, क्लेम सेटलमेंट में कम से कम छह माह की देरी रही। इससे किसान का फायदा हुआ हो या नहीं लेकिन निजी बीमा कंपनियों की चांदी जरूर हो गई। इसके तहत किसानों की संख्या बढ़ने के बजाय घटने लगी है। यानी यह किसानों के बदले निजी बीमा कंपनियों के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित हो रही है।

ग्राम सड़क योजना में जरूर अच्छी प्रगति हुई है और उससे किसानों की मार्केट तक कनेक्टिविटी का ढांचा बेहतर हुआ है। इसी तरह 'हर खेत को पानी' के खातिर सिंचाई के लिए एआइबीपी योजना में संसाधन बढ़े हैं और सिंचाई के तहत आने वाली जमीन में इजाफा हुआ है। माइक्रो इरीगेशन में भी काम हो रहा है।

लेकिन सॉयल हेल्थ कार्ड के बारे में कोई स्पष्ट रिपोर्ट नहीं है। करोड़ों कार्ड बनने के बाद भी कितने किसान इसके अनुसार न्यूट्रिएंट उपयोग करते हैं, कहना मुश्किल है क्योंकि इसके अनुसार बाजार में उत्पाद ही नहीं है। नीम लेपित यूरिया का 100 फीसदी लक्ष्य पूरा हो गया है लेकिन यह किसान से ज्यादा सरकार के लिए फायदेमंद है क्योंकि इसके चलते यूरिया का इंडस्ट्री को डायवर्सन बंद हुआ है और सरकार की सब्सिडी बची है।

यहां रिसर्च पर बात करनी जरूरी है। कृषि में रिसर्च पर फोकस ही नहीं रह गया है। जीएम फसलों पर फैसला नहीं ले पाना और आइसीएआर के संस्थानों के प्रमुखों की नियुक्ति न हो पाने का प्रतिकूल असर पड़ा है। साइंटिफिक रिसर्च के बजाय परंपरागत खेती और गोकुल मिशन जैसे मसलों पर समय लगाया जा रहा है।

अब असली बात है किसानों की माली हालत की। इस मामले में स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ी है। किसानों को बेहतर दाम के लिए ई-नैम के तहत ऑनलाइन मार्केट की कोशिश बेमानी साबित हुई है। उलटे नवंबर 2016 में नोटबंदी से कृषि जिंसों का कारोबार ही चौपट हो गया। रिजर्व बैंक के साथ वित्त मंत्रालय के समझौते में इनफ्लेशन टार्गेटिंग के चलते एमएसपी में मामूली बढ़ोतरी करना किसानों के लिए नुकसानदेह रहा है। यही वजह है कि अधिकांश फसलों के दाम एमएसपी से नीचे जाने के साथ ही गैर-एमएसपी वाली फसलों के लिए भी किसान डि-फ्लेशन के दौर से गुजर रहे हैं। अब तो दूध किसानों की भी हालत पतली होती जा रही है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों और उसके बाद पिछले साल विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री ने गन्ना किसानों को वाजिब दाम देने और समय से भुगतान का वादा किया था। लेकिन इस समय गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर देश भर में करीब 20 हजार करोड़ रुपये और अकेले उत्तर प्रदेश में करीब 11 हजार करोड़ रुपये का बकाया है। इसका कोई समाधान भी जल्द नहीं दिख रहा है।

अब तो बस यही देखना है कि चुनावी साल में नरेंद्र मोदी सरकार किसानों से किए वादे किस तरह पूरा करती है और किसानों की बढ़ती नाराजगी दूर करती है या यह चुनावी नतीजे प्रभावित करने वाली नाराजगी में तब्दील होती है।   

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