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पी.सी. बरुआ और सहगल की ‘देवदास’

देश की लगभग हर भाषा में देवदास को न जाने कितनी बार फिल्माया गया, हाल में सुधीर मिश्रा की दास देव बनी, आखिर क्या है इसका मर्म! पहली फिल्म के कुछ खास प्रसंग और व्याख्या
सहगल वाली देवदास

“लगता है मेरा जन्म देवदास

लिखने के लिए हुआ था और तुम्हारा

उसे परदे पर नया अर्थ देने के लिए।”

–शरत् चंद्र चट्टोपाध्याय (पी.सी. बरुआ से)

प्रमथेश चंद्र बरुआ के निर्देशन में 1935 में न्‍यू थिएटर्स ने देवदास पर पहली बोलती फिल्म बांग्ला में बनाई, फिर हिंदी और असमिया में। इसने देवदास कल्ट को पूरे हिंदोस्तान में पहुंचा दिया। इसमें देवदास (1935) की भूमिका स्‍वयं बरुआ ने की थी। पारो थीं उनकी पत्नी जमना और चंद्रमुखी थीं चंद्रवती देवी। बांग्ला फिल्म में सहगल को चंद्रमुखी के कोठे पर आने वालों में से एक के रूप में दिखाया गया था। न्‍यू थिएटर्स में लगी भयानक आग में बांग्ला प्रिंट खाक हो गया था।

बरुआ ने मूल उपन्यास को जैसे का तैसा नहीं ‌फिल्माया था। उन्होंने उपन्यास के कथानक का मूल तत्व पकड़ा, देवदास और पार्वती की दुखांत प्रेम कथा। उन्होंने देवदास का बचपन नजरअंदाज कर दिया। उपन्यास का अंत भी बदल दिया। यह त्रासदी नायक और नायिका की निजी त्रासदी न रह कर सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में प्रेमी युगल की त्रासदी बन गई।

पार्वती दुस्साहसी है, समाज की सीमाओं को तोड़ती है और अंत में परिवार की चहारदीवारी में घुटने को विवश हो जाती है। देवदास कमजोर है, समाज और परिवार की सीमाओं की घुटन तो महसूस करता है, पर उन सीमाओं को तोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वह न इधर का है, न उधर का। न पार्वती का हो सकता है, न चंद्रमुखी का रह सकता है। उसकी जिंदगी शराब में और आवारगी में निकास देखती है। पर इसमें भी कोई निकास नहीं है। निकास है तो अभिशप्त जीवन से मुक्ति में है।

यही देख कर शरत् बाबू ने बरुआ से कहा था, “लगता है मेरा जन्म देवदास लिखने के लिए हुआ था और तुम्हारा उसे परदे पर नया अर्थ देने के लिए।”

बांग्ला का हिंदी रीमेक किया बरुआ ने अगले साल 1936 में। देवदास की भूमिका कुंदन लाल सहगल को दी गई, पार्वती रहीं वही जमना और चंद्रमुखी बनीं अभिनेत्री राजकुमारी।

शुरुआत होती है, बंगाल की शस्‍य श्‍यामला धरती के एक टुकड़े से। बीचोबीच किसी युवती का सिर, केश की लट पीठ पर लटक रही है। दाहिने कंधे पर थाली में फूल रखे हैं। वह हमसे दूर जा रही है। धीरे-धीरे हम उसे सिर से पैर तक देखते हैं। यह पार्वती है जो हमारी संस्कृति का प्रतीक बन जाती है। इसी दृश्य में हमें मिलता है नटखट देवदास। वह गा क्या रहा है उसे छेड़ रहा है, पुकार रहा है–‘बालम आय बसो मेरे मन में।’ पार्वती भी कम शरारती नहीं है। देव के कान में तिनका करती है। पार्वती से ही देवदास को पता चलता है कि उसे दूर कलकत्ता भेजा जा रहा है कॉलेज में इंग्लिश पढ़ने।

पूरा संवाद इस प्रकार है-हंसते-हंसते पार्वती गंभीर हो आई। सहम कर कहने लगी, “देवदास, अब मजाक छोड़ो। मुझे तुमसे एक जरूरी बात पूछनी है।”  “क्‍या?” “तुम कलकत्ते जा रहे हो?” पार्वती की आवाज में उदास गंभीरता थी। “कलकत्ते!” देवदास हैरान रह गया। “हां।” पार्वती कह रही थी। “मैंने सुना है तुम जा रहे हो।” “तुमसे किसने कहा?” “तुम्‍हारे पिता जी ने।” “पिता जी ने?” एक पल देवदास चुप रहा फिर उसने पार्वती को विश्‍वास दिलाया, “मैं कहीं नहीं जाऊंगा।” “अगर जबरदस्‍ती भेजा गया, तो?” “जबरदस्‍ती! हुंहुंहुं?” देवदास हंसा। फिर बोला, “नहीं, पार्वती, मैं तुम्‍हें छोड़ कर हरगिज नहीं जाऊंगा।” पिता की एक घुड़की उसे चुप कर देती है। जागीरदार साहब ने हुक्‍म सुना दिया, “कल सुबह-दस बजे की गाड़ी से तुमको जाना पड़ेगा। समझे?”

दानवी रेलगाड़ी देव को कलकत्ता ले जा रही है। गाड़ी के पहिए घूमते दिखाई देते हैं। कई ऐंगल से। कलकत्ता निकट आ रहा है, धुमैला, अप्रिय।

कलकत्ते वाले उसके पहनावे पर हंसते हैं। हंसने वालों में एक है गलमुच्छों वाला चुन्नीलाल–बीमा कंपनी का एजेंट। देवदास के एक-एक वस्‍त्र को इशारा करता कहने लगा, “उं हूं यह यहां नहीं चलेगा। अजब! ये कोई यहां चलने के काबिल है? ये धोती! ये गंजी! ये कोट, मैं सब ठीक कर दूंगा।” उसके लिए देवदास एक शिकार भर है पैसा ऐंठने का।

परोक्ष रूप से निर्देशक दर्शक के मन में देवदास की निजी ट्रैजडी के छिपे कारण अच्‍छी तरह स्‍थापित कर देता है। उस जमाने के आम भारतीय की तरह देवदास की ट्रैजडी आधुनिकता की ओर यात्रा के कारण होती है। ‘आधुनिकता’ की तलाश में अपना स्‍वाभाविक प्राकृतिक वातावरण छोड़ कर उसे शहर आना पड़ा। ‘आधुनिकता’ की प्रतीक दैत्‍याकार रेल उसे उसकी प्रेमिका से दूर ले आई। ‘आधुनिकता’ उस देहाती पर ठठा कर हंसी और अब जब उसने पूर्णत: ‘आधुनिक’ होने का फैसला कर ही लिया तो आधुनिकता के एजेंट उससे छलपूर्वक कमीशन वसूल कर रहे हैं। चुन्नीलाल ही उसे चंद्रा के कोठे पर ले जाता है। ग्लानि से बटुआ वहीं फेंक जाना और चुन्नी का हत्प्रभ रह जाना और चंद्रा का देवदास में कुछ अनोखा देखना–यह सब बरुआ और सहगल बड़े सशक्त तरीके से दिखा पाते हैं।

देवदास फिर चंद्रा के पास आता है। पार्वती से शादी न हो पाने से क्षुब्ध देवदास हमें जब मिलता है तो चंद्रा के बेडरूम में। उसके कानों में अभी तक पार्वती की शादी की शहनाई गूंज रही है, जो भीतर वाले कमरे की पिछली खिड़की से आ रही है। देवदास उठता है, वह खिड़की बंद करता है। शहनाई बंद हो जाती है। देवदास के मन से पार्वती की शादी अब इतिहास हो जाती है।

बरुआ फिल्म आगे बढ़ाते हमें गांव में पार्वती के साथ दिखाते हैं। पार्वती चाहती है कि देवदास को अपने साथ ससुराल ले जाए। उसे गुमान है कि वह ससुराल की प्रमुख है। जागीरदार पति यह सह लेंगे। देवदास साथ जाने से इनकार कर देता है, पर वादा करता है जीवन में एक बार वह पारो के पास आएगा जरूर। जिस हंसमुख देवदास को हमने पहले दृश्य में देखा था, धीरे-धीरे वह विचारशील, फिर कुछ हताश-सा, कभी पार्वती पर झुंझलाता छड़ी से वार करता दिखाई देता है, तो कभी पगलाया-सा पक्षियों का शिकार करता, इधर-उधर भटकता, पार्वती से कहता कि तुम मेरी जिंदगी में होती तो कुछ और बात होती, अंत तक लाचार, अपनी आंखों में इतना घिनौना महसूस करता है कि मां को मुंह दिखाने लायक नहीं समझता। एकमात्र निजी सेवक धर्मदास पर आश्रित, बीमार, अशक्त, दुखों का मारा। पर वह ट्रैजिक हीरो कहीं नहीं है। दर्शक उसकी त्रासदी महसूस करता है।

पूरी ‌फिल्‍म में निर्देशक बरुआ ने रेलगाड़ी का, विभिन्‍न कोणों से लिए गए रेल के चलने के दृश्यों का और उसकी आवाज का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है। पुराने देहाती संस्‍कारों में पले देवदास को पार्वती से दूर ले जाने वाली आधुनिकता और शहर की प्रतीक यह मशीन फिल्‍म के अंत तक पहुंचते-पहुंचते देवदास की आवारगी, लाचारी और दयनीयता की प्रतीक बन जाती है। यह प्रतीक भारतीय अवचेतन में इतने गहरे घर कर गया कि सत्‍यजित राय की पथेर पंचाली, अपराजित और अपूर संसार की रेलें बरुआ की रेलों से ही प्रभावित मालूम होती हैं और बाद में अवतार कौल की सत्ताइस डाउन में रेल के डिब्बों में बीतती जिंदगी पर भी देवदास के दृश्यों की छाप है।

अंत की ओर जाती देवदास की वहशियत और आवारगी दिखाने का माध्यम भी रेलगाड़ी है-एक शहर से दूसरे शहर। देश के कोने-कोने में भागते रहने में। रेल में ही उसका बिगड़ता स्वास्थ्य दिखाया जाता है। पार्वती के पास लौटने के लिए उसे बैलगाड़ी में सवार होना पड़ता है। बैलगाड़ी की रफ्तार कम है, उसकी हालत बिगड़ रही है, उसे चिंता है कि क्या वह पहुंच पाएगा? वह पूछता है, “बैलगाड़ी वाले यह सफर कब खत्म होगा?” 

बरुआ का मास्टरस्ट्रोक पारो का गुमान चकनाचूर करने में था। जब पार्वती को मालूम होता है कि हवेली के पास जो मरा पड़ा है, वह देवदास है, तो उसे देखने को दौड़ती है। जागीरदार परिवार के सब सदस्य हवेली का मुख्य फाटक बंद कर देते हैं। पार्वती की असली त्रासदी यही है। अपने परिवेश में सब कुछ नियंत्रित करने वाली पार्वती बस एक मनोकल्पना थी।

सहगल वाली देवदास (हिंदी) के लेखक थे पंडित केदार शर्मा। उन्हींने फिल्म जोगन में अभिव्यक्ति की जुगत सिखाई थी दिलीप कुमार को–, “मैं तुम्हें शेर सुनाता रहूंगा, तुम रीऐक्ट करते रहना।” बिमल राय वाली फिल्म में देवदास थे दिलीप कुमार। प्रीमियर के अंत में दिलीप ने केदार शर्मा से राय मांगी। पंडित जी ने कहा, “तुझे तो फिल्म का अंत पहले शॉट से ही पता था।” उनके कहने का मतलब था कि दिलीप पहले सीन से ही ट्रैजिक हीरो बने हुए थे।

(लेखक कोशकार और प्रतिष्ठित फिल्म पत्रिका माधुरी के संपादक रहे हैं)

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