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जिनसे बदला भारतीय वांग्मय का इतिहास

सक्रिय राजनीतिज्ञ, घुमक्कड़, उपन्यासकार, शोधार्थी, अध्यापक और बहुभाषाविद महापंडित राहुल जी को याद करना हमारे लिए आज के हालात से उबरने में मददगार होगा
महान कार्यः राहुल जी द्वारा तिब्बत से लाई एक पांडुलिपि

राहुल सांकृत्यायन को महापंडित की उपाधि से याद किया जाता है। जहां तक मेरी जानकारी है यह उपाधि किसी और साहित्यकार या विद्वान के नाम के आगे नहीं लगाई जाती। इसका कारण है कि राहुल जी ने विद्वत्ता के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किया। वे सक्रिय राजनीतिज्ञ, घुमक्कड़, उपन्यासकार, शोधार्थी, अध्यापक और बहुभाषाविद भी थे। वे सहृदय महान तेजस्वी व्यक्ति तो थे ही। राहुल जी का जन्म नौ अप्रैल 1893 को हुआ था। निम्न मध्यवर्गीय परिवार में उनका जन्म हुआ। उन्होंने गांव में ही शिक्षा प्राप्त की। कभी किसी विश्वविद्यालय में कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की। उन्होंने संस्कृत अवश्य पढ़ी। उसका कारण यह था कि इसे पढ़ने के लिए अधिक पैसे की जरूरत नहीं पड़ती थी।

राहुल जी की शादी बहुत कम उम्र में हो गई। शायद 11 साल की उम्र में ही उनका पहला विवाह हुआ और कुछ दिन के बाद वे घर से बाहर निकल पड़े। घर से घुमक्कड़ी के लिए निकलने को वे उड़ान कहते हैं। घर से बाहर निकले तो पहले वह किसी महंत के शिष्य बनकर महंत हो गए और उनका पहला नाम रामउदार दास हुआ। फिर वे आर्यसमाजी हो गए। इसके बाद वे बौद्ध हुए, फिर कम्युनिस्ट हुए, फिर सोवियत संघ में लोला नाम की रूसी लड़की से उनका प्रणय संबंध हुआ। वहां से भारत आए तो यहां कुछ दिनों के बाद कमला जी से विवाह हुआ और दो संतानें हुईं।

उनका जीवन ऐसी नाना प्रकार की सम और विषम घटनाओं से भरा पड़ा है। शायद ही किसी अन्य विद्वान ने विभिन्न देशों की इतनी यात्राएं कीं। उनकी यात्राओं के बारे में विशेष बात यह जानने की है कि यद्यपि उन्होंने यूरोप की भी यात्रा की, लेकिन अमेरिका की यात्रा उन्होंने शायद कभी नहीं की। उन्होंने उन देशों की यात्राएं कीं, जिन देशों की यात्राएं अक्सर लोग नहीं करते हैं। उनकी यात्राएं शोधकार्य के सिलसिले में होती थीं। जैसे उन्होंने मध्य एशिया की विस्तृत यात्रा की। वे कई बार तिब्बत गए। वे तेहरान, उज्बेकिस्तान, सोवियत संघ और नेपाल भी गए। उनकी आत्मकथा पढ़ने से पता चलता है कि तिब्बत किस तरह से गए। तिब्बत जाना एक बात है और राहुल जी का इस तरह से तिब्बत जाना बिलकुल अलग। उस समय एक सामान्य व्यक्ति की हैसियत से वहां जाना काफी मुश्किल होता था। मैंने पढ़ा है कि वहां पर लोगों को रोककर तलाशी ली जाती थी। सतर्कता के लोग संतुष्ट हो जाते थे कि तिब्बती है तभी जाने देते थे। अब आप समझिए कि ऐसी कठिन परिस्थितियों में कोई आदमी यात्रा करता है, वह भी पोथियों के लिए। ऐसी पोथियां, जिसने भारतीय वांग्मय, धर्मशास्‍त्र, दर्शनशास्‍त्र का इतिहास बदल दिया। मैं यहां दो रचनाओं की चर्चा करूंगा। एक है धर्मकीर्ति की प्रमाण वार्तिक्य, जो मिलती ही नहीं थी। यह ऐसी रचना है जिसका पुनरुद्धार उन्होंने किया। इसके बारे में प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक श्चेरवास्की ने कहा था कि राहुल जी ने अगर कुछ न किया होता और केवल यही एक काम किया होता तो यही आठ जन्मों के काम करने के बराबर होता। दूसरा, उन्होंने सरहपा की रचनाओं का उद्धार किया। यह सुनने में अजीब लगता है कि एक ही आदमी इतना बड़ा काम कैसे कर सका, क्योंकि लोग एक काम ही जीवन में नहीं कर पाते हैं।

सरहपा की रचना मूल रूप से अपभ्रंश की है, जिसे बाद में राहुल जी ने पुरानी हिंदी कहा। वह यहां से कभी चली गई थी, जो तिब्बत में फिर मिली। तिब्बत में उसका तिब्बती में अनुवाद हो गया था। राहुल जी ने तिब्बती पढ़ी-सीखी और उस रचना का तिब्बती से छंदोबद्ध अपभ्रंश दोहा में अनुवाद किया। उसे दोहाकोश के नाम से प्रकाशित कराया।

राहुल जी तिब्बत से 21 खच्चरों पर पांडुलिपियां लेकर लौट रहे थे। इसी बीच कहीं पहुंचे तो लाठीचार्ज हो रहा था। सक्रिय राजनीति में कुछ आंदोलन चल रहा था। राहुल जी ने लिखा है, “मेरा मन ललचाने लगा, लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकता था। राजनीति या आंदोलन में भाग नहीं ले सकता था। मेरा मन तो था कि सब छोड़छाड़ कर आंदोलन में भाग लूं, लेकिन 21 खच्चरों पर पांडुलिपियां थीं तो मैं नहीं कर सका।” राहुल जी का जीवन तमाम विविधताओं से भरा हुआ है। उनकी कुल मिलाकर करीब 150 रचनाएं हैं और विविध प्रकार की हैं। इनमें शोध, कोश, जीवनियां, उपन्यास, कथा साहित्य, संस्मरण और घुमक्कड़ शास्‍त्र हैं। कविताएं भी राहुल जी ने लिखी हैं। हिंदी में घुमक्कड़ शास्‍त्र पर राहुल जी की छोड़कर कोई किताब नहीं है। उन्होंने भोजपुरी, संस्कृत और पालि में भी रचना की है। राहुल जी ने अपनी डायरी शायद अरबी में लिखी है। यह मैंने कहीं पढ़ा है। यानी वे अरबी भी जानते थे।

सहसा विश्वास नहीं होता कि एक आदमी अपने समय में इतना काम करेगा। अगर आप सिर्फ फॉर्म यानी रूप की ही बात करें तो उसकी कल्पना मात्र से ही आदमी स्तब्ध हो जाएगा। अपभ्रंश की रचना जिस छंद में है, उसी छंद में राहुल जी उसका अनुवाद करते हैं। वह अनुवाद ऐसा करते हैं कि जो मूल रचना के जो शब्द हैं, लगभग उन्हीं हिंदी प्रतिशब्दों में अनुवाद किया है। यह काम बहुत कठिन है। ये सिर्फ अनुवाद नहीं है, बल्कि शब्दकोश भी है। अब इस फॉर्म की कल्पना करना भी मुश्किल है।

इतिहास की दृष्टि से आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास एक हजार ईस्वी से माना है। राहुल जी ने यह प्रस्तावित किया कि आठवीं सदी के कवि सरहपा हिंदी के पहले कवि हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इस मान्यता का समर्थन किया, क्योंकि कई दृष्टियों से सरहपा को हिंदी का आदि कवि मानना उचित है। एक तो उनकी भाषा को चंद्रधर शर्मा गुलेरी, द्विवेदी जी और राहुल जी ने पुरानी हिंदी कहा है। इसके पीछे कई कारण हैं। अपभ्रंश व्याकरणिक दृष्टि से हिंदी से मिलती-जुलती है। दूसरी बात यह कि जो रूप हैं, वह दोहा, चौपाई, गेय पद जिससे परवर्ती हिंदी साहित्य पटा पड़ा है। आगे चलकर स्वयंभू, जायसी, तुलसीदास ने चौपाई में रचनाएं की। उस फॉर्म की शुरुआत सबसे पहले सरहपा ने की थी। यह जो एक तरीके से हिंदी का काव्यरूप बन गया है, उसका प्रारंभ सरहपा ने किया। राहुल जी ने कहा कि हिंदी साहित्य का प्रारंभ सरहपा से होता है। इस तरीके से राहुल जी ने हिंदी साहित्य को 200 वर्ष और दे दिए। यह तो सिर्फ हिंदी साहित्य की बात है। राहुल जी ने एक किताब वोल्गा से गंगा लिखी। इसमें पूरी मानव जाति के विकास का इतिहास है कथा के रूप में।

राहुल जी का जो फलक या कार्यक्षेत्र है, उस पर एक लेख में चर्चा नहीं हो सकती है। इतिहास पर उनका कितना असर है, यह इतिहासकार बता सकते हैं। राजनीति में राहुल जी सिर्फ सिद्धांतकार नहीं थे। उनके जो विचार और भावनाएं थीं, उनमें वे सक्रिय रहते थे। मैं समझता हूं कि हिंदी में दूसरा कोई ऐसा नहीं दिखता, जो इतना बड़ा साहित्यकार हो और जिसने सत्याग्रह में डंडा खाया हो, जिसके सिर से लहू की धार निकली हो।

यद्यपि राहुल जी के विरोधी और आलोचक भी बहुत थे, लेकिन ऐसा व्यक्तित्व अगर बहुसमादृत हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इतिहासकार केपी जायसवाल उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने यह कहा कि राहुल सांकृत्यायन बुद्ध और गोरखनाथ की तरह के महानायक थे। उन्हें लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में अध्यापन के लिए भी बुलाया गया। पंडित जवाहरलाल नेहरू भी उनको बहुत मानते थे। कहते हैं कि राहुल जी का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किसी ने कोई व्याख्यान आयोजित कराया था, जिसकी अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे। वहां राहुल जी ने जो भाषण दिया उसे सुनकर नेहरू जी ने कहा कि हमारे देश में ऐसे कितने लोग हैं जो ऐसी बातें निर्भीक होकर कह सकें। मैंने सुना है कि किसी ने, शायद इतिहास के प्राध्यापक डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने राहुल जी के बारे में कहा कि वे जीवनभर तैरते ही रहे हैं, कभी कोई थाह नहीं पा सके। इस पर नेहरू जी ने कहा कि वे समुद्र में तैरते रहे हैं इसलिए थाह नहीं पा सके, आप लोग कुएं में तैरते हैं तो थाह जल्दी पा लेते हैं।

राहुल जी के मन में जो बातें होती थीं, उसे निर्भीक होकर कहते थे। फिर उसका जो विरोध होता था, उसे वे झेलते और सहते थे। मैं उन दिनों काशी विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था। वहां वामपंथी छात्रों में विद्यासागर नौटियाल, विष्णुचंद्र शर्मा आदि ने विश्वविद्यालय की यूनियन के सत्र का उद्‍घाटन करने के लिए राहुल जी को बुलाया था। राहुल जी ने भाषण देना शुरू किया तो पहला ही वाक्य कहा कि ‘हमारे देश में कई शताब्दी पूर्व (धर्मकीर्ति का ही शायद नाम लिया उन्होंने) का एक ग्रंथ है, उसमें तीन प्रकार के मूर्ख बताए गए हैं। एक मूर्ख वह जो यह माने कि दुनिया को बनाने वाला कोई ईश्वर है। दूसरा मूर्ख वह जो ज्योतिष में विश्वास करे। तीसरा वह जो स्नान में धर्म समझे।’ यह सुनते ही वहां के उन दिनों के कुलपति सर सीपी रामास्वामी अय्यर उठकर चले गए। उनके साथ कई चापलूस प्रोफेसर भी चले गए। केवल राजबली पांडे और हजारीप्रसाद द्विवेदी रह गए थे। यानी राहुल जी अपनी बात हमेशा निर्भीकतापूर्वक कहते थे। यह सिर्फ विद्वत्ता के क्षेत्र में ही नहीं था।

राहुल जी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। लेकिन हिंदी के प्रश्न पर वे पार्टी से निष्कासित किए गए। राहुल जी का विचार था कि इस्‍लाम का भारतीयकरण होना चाहिए। वे हिंदुत्व के समर्थक नहीं थे। कोई मूर्ख या अज्ञानी ही कह सकता है कि राहुल जी धर्मनिरपेक्ष नहीं थे। उनसे बड़े धर्मनिरपेक्ष बहुत कम लोग हुए होंगे। वे जहां-जहां संकीर्णता और सांप्रदायिकता देखते आलोचना करते थे। राहुल जी कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित किए गए और बाद में फिर पार्टी में आए, क्योंकि राहुल जी का कहना था कि ‘मैं बिना यज्ञोपवीत धारण किए मरना नहीं चाहता हूं।’ यहां यज्ञोपवीत से मतलब पार्टी मेंबरशिप से है।

मैं एक और घटना का साक्षी हूं, जिससे पता चलता है कि महापंडित कितने विनम्र थे। जिस तरह उनकी विद्वता, निर्भीकता असीम थी, वैसे ही उनकी विनम्रता भी असीम थी। उस समय काशी विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग के सम्मानित अध्यापक थे पंडित रामअवध द्विवेदी। उनके घर पर प्रगतिशील लेखक संघ की एक गोष्ठी हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यासों पर आयोजित की गई। रामअवध द्विवेदी ने राहुल जी के वक्तव्य की कुछ आलोचना की। गोष्ठी समाप्त हुई तो राहुल जी वापस जाने लगे। हमलोग भी उनके पीछे-पीछे हो लिए। वे करीब एक फर्लांग आगे बढ़ गए। एकाएक लौट पड़े। वे पंडित रामअवध द्विवेदी के घर पहुंचे और कहा कि ‘पंडित जी मैं आपको प्रणाम करना भूल गया था।’ अब एक दूसरी बात बताऊं कि वे पंडित चंद्रबली पांडेय से मिलने गए। पंडित चंद्रबली पांडेय हिंदी के दूसरे बड़े तपस्वी-साधक थे। राहुल जी कार में थे। उन्होंने कार उनके घर से काफी पहले रुकवा दी। कहा कि कार से उनके घर नहीं जाऊंगा।

विद्वता के क्षेत्र में राहुल जी केवल भारतीय नहीं थे। वे संसार के शीर्षस्थ विद्वानों में से थे, जो हिंदी और भारत का नाम ऊंचा करते हैं। वे सिर्फ विद्वान नहीं थे, बल्कि सक्रिय राजनीतिज्ञ भी थे और कुशल गृहस्थ भी। यद्यपि इतने बड़े आदमी के जीवन में कुछ ऐसी बातें हो जाती हैं, जिनसे उनके व्यक्तित्व पर कुछ खरोंच भी आ जाती है। लेकिन कुल मिलाकर वे पाखंडी नहीं थे। अच्छा या बुरा उनसे जो हुआ वह सबके सामने है। 14 अप्रैल उनकी पुण्यतिथि का दिन है। ऐसे अवसर पर उनके स्मरण से आज देश की जो स्थिति है उससे उबरने में हमें मदद मिलेगी।  

(लेखक हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार हैं)

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