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गहरी हुईं जाति की दरारें

जातिगत टकराव में बदला दलित संगठनों का भारत बंद
हिंसक प्रदर्शन: मुरैना में भारत बंद के दौरान उपद्रव, पुलिस पर भी उठ रहे सवाल

सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले ने देश भर में दलितों को उद्वेलित किया, उसकी लपटें ग्वालियर-चंबल तक भी पहुंचीं। दो अप्रैल के भारत बंद और उसके बाद की घटनाओं ने इस अंचल में दो वर्गों के बीच चंबल के बीहड़ जैसी खाइयां खोद दी हैं। अप्रैल के पहले पखवाड़े में हुई हिंसा और तोड़फोड़ ने राजनैतिक दलों को भी हिलाकर रख दिया। इसके नफा-नुकसान का हिसाब-किताब लगाया जा रहा है।

अप्रैल की दो तारीख को देश के तमाम हिस्सों में उपद्रव हुए, लेकिन सबसे ज्यादा हिंसा ग्वालियर, भिंड और मुरैना में हुई। सुबह कुछ ही घंटों में जब तक लोग कुछ समझ पाते, सात जिंदगियां हिंसा की भेंट चढ़ चुकी थीं। बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ और आगजनी हुई। इन तीन जिलों के नाम सुर्खियों में थे। दरअसल, यह पूरी हिंसा स्थानीय प्रशासन और पुलिस के सुस्त रवैये से हुई। सुप्रीम कोर्ट का एससी-एसटी एक्ट में कुछ प्रावधानों में फेरबदल का फैसला 20 मार्च को आया था। उसके बाद से ही सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ अभियान शुरू हो गया था। बिना किसी संगठन का नाम लिए दो अप्रैल को भारत बंद का आह्वान चल रहा था। दलित बस्तियों में यह अफवाह चल पड़ी कि केंद्र सरकार आरक्षण खत्म करने वाली है। इसने आग में घी का काम किया।

राज्य की खुफिया एजेंसी ने बाकायदा सभी जिलों को इनपुट भेजा कि हालात बिगड़ सकते हैं, लेकिन किसी ने कान नहीं दिया। 30 मार्च को ग्वालियर में दलित संगठनों ने शांति मार्च निकाला जो हिंसक हो गया। बाजारों में अराजकता रही। इसके बावजूद प्रशासन ने दो अप्रैल के बंद से निपटने की कोई खास तैयारी नहीं की।

दो अप्रैल को जब तीनों जिलों में दलितों के जुलूस निकलना शुरू हुए तो शुरुआती दो-तीन घंटों में ही भीड़ हिंसा पर उतर आई। पुलिस की गैर-मौजूदगी के चलते सवर्ण भी सड़कों पर आ गए और सीधा संघर्ष होने लगा। इस टकराव में कुल सात जानें चली गईं। इनमें से एक पुलिस की गोली से मारा गया। जब तक पुलिस ने मोर्चा संभाला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दो वर्गों के बीच खून की लकीर खिंच चुकी थी। उपद्रवग्रस्त तीनों जिलों के तमाम इलाके कई दिन कर्फ्यू की गिरफ्त में रहे।

दो अप्रैल की प्रतिक्रिया में अज्ञात लोगों ने आरक्षण के विरोध में भारत बंद का आह्वान कर डाला। दलितों के प्रति आग उगलने वाली भड़काऊ पोस्ट और अफवाहों ने दोनों वर्गों के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया। सोशल मीडिया का हर औजार इस आह्वान को हवा देने के काम आया। हालात यह हो गए कि बिना किसी संगठन के पूरा ग्वालियर-चंबल अंचल 10 अप्रैल को बंद रहा। दूध की जली पुलिस ने तीनों जिलों को खाकी वर्दी से पाट दिया।

दो अप्रैल की हिंसा के बारे में अग्रिम सूचनाओं के बावजूद अधिकारियों ने कोई एहतियाती इंतजाम नहीं किए थे। इस बड़ी नाकामी के बाद भी मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव बसंत प्रताप सिंह कलेक्टर, एसपी की पीठ ठोंक गए। उपद्रव के बाद सिंह तीनों जिलों के दौरे पर आए और जाते-जाते अफसरों को क्लीन चिट दे गए। जबकि क्षेत्रीय विधायक और शिवराज सरकार में काबीना मंत्री माया सिंह कह चुकी थीं कि हालात से निपटने में प्रशासन ने देरी की।

मध्‍य प्रदेश के आइजी, इंटेलिजेंस मकरंद देउस्कर कहते हैं कि दो अप्रैल से पहले हिंसा की आशंका का इनपुट लिखित में भेजा गया था। मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ला को तीनों जिलों में हर वर्ग से यही बताया गया कि हिंसा के लिए प्रशासन-पुलिस की उदासीनता जिम्मेदार है, फिर भी अफसरों को क्लीन चिट देने पर सवाल उठ रहे हैं।

मध्य प्रदेश में नवंबर में विधानसभा चुनाव होना हैं। ऐसे में दलितों की नाराजगी भाजपा को चौथी बार सत्ता में आने से रोक सकती है। खासकर ग्वालियर चंबल में दलित वोट बैंक के खिसकने का खतरा गहरा है। इस अंचल में बसपा की जड़ें अब भी जमी हैं। मुरैना की दो सीटें पिछले चुनाव में बसपा ने जीती थीं। इसके अलावा बाकी सीटों पर भी बसपा अच्छे-खासे वोट जुटाती रही है। जहां बसपा की पैठ नहीं है, वहां स्वाभाविक तौर पर दलित वोट कांग्रेस को मिलते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को शेष मध्य प्रदेश की तुलना में ग्वालियर-चंबल से सम्मानजनक सीटें मिली थीं।

दलितों की नाराजगी का खामियाजा बघेलखंड और बुंदेलखंड में भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। दलित आक्रोश को समझने में चूक को लेकर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काडर भी सवालों के घेरे में है। करीब दस दिन तक दलितों में गुस्सा सुलगता रहा, लेकिन संघ, भाजपा काडर समझ नहीं पाया। दोनों संगठनों में अंदरखाने जमीनी स्थिति से कटे होने के सवाल उठ रहे हैं। 

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