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बढ़ती दूरियों का दंश

भारत बंद के बाद दलितों पर हमले और अंधाधुंध ‌गिरफ्तारियों से जातिगत टकराव बढ़ने की आशंका
दलित युवक की हत्या से गुस्साई शोभापुर की महिलाएं

पश्चिमी यूपी का मेरठ शहर दो चीजों के लिए मशहूर है। खेल का सामान और कैंचियां। लेकिन दो अप्रैल के भारत बंद के बाद मेरठ के शोभापुर गांव से जो तस्वीर उभरी, वह किसी दूसरे ही खेल और तैयार होते उसके सामान का आभास देती है। दमन, दबंगई और अविश्वास का माहौल भाईचारे के बचे-खुचे तानेबाने पर कैंचियां चला रहा है। शोभापुर की गलियों में पुलिस का पहरा इसी का नतीजा है। बंद के दो दिन बाद ही यहां गोपी पारिया (28) नाम के दलित युवक की हत्या कर दी गई थी। उसका नाम बंद में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले लोगों की कथित “हिट लिस्ट” में सबसे ऊपर था। इस हत्या से पैदा खौफ और पुलिस की गिरफ्तारी के डर से दलित युवक और पुरुष घरों से गायब हैं।

सपा-बसपा के सियासी गठजोड़ की तैयारियों के बीच जिस भारत बंद को दलितों के आक्रोश और उनकी ताकत के उभार के तौर पर देखा जा रहा था, वह कैसे दलितों को अलग-थलग करने के काम आ रहा है, यह शोभापुर पहुंचकर समझ आता है। करीब छह हजार की आबादी वाले इस गांव में आधे से ज्यादा दलित हैं, बाकी आबादी बनिया, ब्राह्मण, कश्यप, मुस्लिम और गुर्जर समुदाय के लोगों की है। गांव में तैनात पुलिसकर्मियों के “अब सब ठीक है” के दावों के बावजूद दलित घरों पर ताले लटके हैं। बंद में शामिल युवकों के खिलाफ बड़ी संख्या में एफआइआर दर्ज होने और उन्हें सबक सिखाने की धमकियों से गांव में तनाव का माहौल है। मृतक गोपी के घर पर जमा दलित महिलाएं धर्म-परिवर्तन की आवाजें उठा रही हैं।

थोड़ा कुरेदने पर शांतिप्रिय से दिखने वाले शोभापुर निवासी भारत भूषण बौद्ध कहते हैं, “भाई साहब, हम अपनी पर आ जाएं तो इन दबंगों से आराम से निपट सकते हैं। ये हैं ही कितने, हम फिर भी इनकी दबंगई झेल रहे हैं। पुलिस भी हमारे ही पीछे पड़ी है।” यह बताते हुए वह एक बहुमंजिला इमारत की ओर इशारा करते हैं, “यह सिर्फ दलित समुदाय की लाइब्रेरी नहीं है। यहां हर समुदाय के करीब 200 बच्चे पढ़ने आते थे। आज इस कमरे में पीएसी के जवानों का डेरा है!”

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 के प्रावधानों को हल्का करने और दलित उत्पीड़न के खिलाफ दो अप्रैल को हुए भारत बंद में कई राज्यों से हिंसा की तस्वीरें सामाने आई थीं। उस उपद्रव में कुल 10 लोगों की मौत हुई, जिनमें दो उत्तर प्रदेश के थे। इस दौरान शोभापुर के नजदीक मेरठ बाइपास पर पुलिस चौकी फूंक दी गई और कई वाहनों, दुकानों में तोड़फोड़ की गई। मेरठ के अलावा मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलंदशहर, हापुड़, आगरा में हिंसा हुई। उग्र प्रदर्शन की इन तस्वीरों ने जातिगत दरारों को गहरी करने का काम किया। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद यह इलाका सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में रहा है, लेकिन इस बार मामला दलित बनाम गैर-दलित का होता नजर आ रहा है। उस दिन को याद करते हुए शोभापुर निवासी दीपक बताते हैं, “बड़ी तादाद में मुंह पर कपड़ा लपेटे लोग बाईपास पर इकट्ठा थे। पता नहीं इतने लोग कहां से आ गए! ज्यादातर लोग बाहर के लग रहे थे।” गांव वालों का कहना है कि आसपास के कई गांव से प्रदर्शनकारी हाईवे जाम कराने के लिए जुटे थे, इनमें अराजक तत्वों के शामिल होने से इंकार नहीं किया जा सकता। 

मेरठ में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं कि दो अप्रैल का बंद इतना प्रचंड होगा, इसका अंदाजा पुलिस को भी नहीं था। दोपहर तक किसी तरह हालात काबू में आए तो फिर पुलिस वाले भी प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़े। शाम तक पश्चिमी यूपी में बसपा के कद्दावर नेता और पूर्व विधायक योगेश वर्मा को माहौल बिगाड़ने और हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका था। पुलिस वर्मा को ही बंद के दौरान हिंसा भड़काने का सूत्रधार बता रही है। लेकिन बंद को बदनाम करने की किसी साजिश की आशंका पर पुलिस मौन है।

दलित कार्यकर्ता देवाशीष जाजरिया का कहना है कि भारत बंद को हिंसक बनाकर बदनाम करने में ऊंची जातियों और पुलिस की भूमिका की जांच होनी चाहिए। लेकिन ऐसा करने के बजाय पुलिस दलितों पर ही टूट पड़ी। उन्हें जेलों में ठूंसा जा रहा है, यातनाएं दी जा रही हैं। शोभापुर में जिम चलाने वाले राजीव राणा बताते हैं, “बंद के अगले ही दिन वाट्सऐप पर दलित युवकों की एक लिस्ट आ गई थी। इनसे बंद का बदला लेने और सबक सिखाने की बातें सुनाई देने लगीं। सुगबुगाहट थी कि यह लिस्ट गांव की ऊंची और दबंग जातियों के लोगों ने तैयार कर पुलिस को दी है।” चार अप्रैल को इस कथित हिट लिस्ट के सामने आने के कुछ ही घंटों के भीतर दलित युवक गोपी पारिया की हत्या कर दी गई। वह योगेश वर्मा का करीबी माना जाता था और बिरादरी में उसका ठीकठाक रसूख था। 

गोपी की हत्या के पांच आरोपियों - मनोज गुर्जर, आशीष गुर्जर, कपिल राणा, अनिल गुर्जर और सुनील गुर्जर में से पुलिस ने चार लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। दूसरी तरफ, बंद में शामिल दलित युवकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर एफआइआर दर्ज हुई हैं। भारत भूषण बौद्ध बताते हैं कि सोशल मीडिया पर जारी “हिट लिस्ट” के बहुत से नाम पुलिस की एफआइआर से मेल खाते हैं। मृतक गोपी के पिता ताराचंद के मुताबिक, “जिन लोगों ने मेरे बेटे ही हत्या की, जिन लोगों ने दलितों की हिट लिस्ट तैयार की, पुलिस उन्हीं के साथ मिलकर दलितों के नाम एफआइआर में डाल रही है। ऐसी पुलिस पर कैसे भरोसा करें।” बौद्घ कहते हैं कि दबंगों से बचाने के बजाय पुलिस ने दलितों का ही उत्पीड़न शुरू कर दिया। मानो विरोध-प्रदर्शन करना कोई अपराध हो, जबकि यह भी स्पष्ट नहीं कि बंद के दौरान उपद्रव मचाने वाले लोग दलित थे या कोई और!

पुलिस के रवैए पर इसलिए भी सवाल उठ रहे हैं क्योंकि एफआइआर में ऐसे लोगों के भी नाम हैं, जिनके बारे में दावा है कि बंद के दौरान वे गांव में मौजूद नहीं थे। सोनू नाम का युवक यूपी पुलिस में है और शामली में तैनात बताया जा रहा है। लेकिन एफआइआर में उसका भी नाम है। कुछ लोग बंद के दौरान वैष्णो देवी यात्रा पर गए बताए जाते हैं, उनके भी नाम एफआइआर में हैं। मृतक गोपी के परिजनों के मुताबिक, “उसका छोटा भाई प्रशांत मेरठ के एक मॉल में काम करता है। बंद के दौरान वह भी गांव में नहीं था, इसकी पुष्टि मॉल के सीसीटीवी फुटेज से हो सकती है। लेकिन उसका नाम एफआइआर में दो बार शामिल है।”

पुलिस के मुताबिक, मेरठ रेंज के छह जिलों में बंद के दौरान हिंसा से जुड़े मामलों में कुल 177 एफआइआर दर्ज हुई हैं, जिनमें करीब 1400 लोगों के नाम हैं। इनमें से 430 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। दलित प्रदर्शनकारियों को पुलिस द्वारा निशाना बनाए जाने को लेकर बसपा प्रमुख मायावती समेत तमाम दलित नेता सवाल उठा रहे हैं। हालांकि, सवाल केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा सांसदों और विधायकों पर भी उठे। इनमें से केवल पांच सांसद यशवंत सिंह, छोटेलाल खरवार, सावित्री बाई फुले, अशोक दोहरे और उदित राज भाजपा नेतृत्व के सामने दलित उत्पीड़न का मुद्दा उठाने की हिम्मत जुटा पाए। बहराइच से भाजपा सांसद सावित्रीबाई फुले का कहना है कि पुलिस बेकसूर लोगों को जेल में डाल रही है। 

बंद के बाद पुलिस द्वारा दलितों को निशाना बनाए जाने के सवाल पर मेरठ रेंज के पुलिस महानिरीक्षक राम कुमार ने आउटलुक को बताया कि पुलिस कतई पक्षपातपूर्ण कार्रवाई नहीं कर रही है। जरूरी नहीं कि जिनके नाम एफआइआर में हैं, वे सभी गिरफ्तार किए जाएं। एफआइआर में किसी का भी नाम हो सकता है, लेकिन कार्रवाई जांच के बाद ही होगी। अगर कोई कहता है कि वह उपद्रव के दौरान कहीं बाहर था तो इसका सबूत पेश करे।

भाई की हत्या से सदमे में आई गोपी की बहन पिंकी कहती है कि ऐसे माहौल में वह बीएड के इम्तिहान देने घर से कैसे निकलेगी। अगर पुलिस-प्रशासन का यही रवैया रहा तो वे लोग धर्म-परिवर्तन कर लेंगे। पिंकी की इस बात में वहां मौजूद दर्जन भर महिलाएं भी अपनी आवाज मिलाती हैं। सुध-बुध खोई गोपी की विधवा अपने तीन बच्चों के साथ उसकी तस्वीर के पास चुपचाप बैठी है।    

गांव के कुछ लोग इस हत्याकांड को गोपी और मनोज गुर्जर के बीच पुरानी रंजिश से जोड़कर देखते हैं तो कुछ लोगों के लिए यह भारत बंद का बदला है। उधर, गांव के गिने-चुने गुर्जर परिवारों के लोग इस मामले को दलित नौजवानों की ‘गुंडागर्दी’ का नतीजा मानते हैं। बहरहाल, हिंसा और भय के इस खेल में सबके पास अपने-अपने तर्क हैं। सबके पास नफरत के अपने-अपने सामान! 

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