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बुद्धिजीवी का जनसरोकार

अतीत को प्रश्नांकित करने के साथ-साथ्‍ा अतीत के ज्ञान के आलोक में वर्तमान पर सवाल भी उठाती हैं थापर
Intellectual public opinion

प्राचीन भारत की अन्यतम इतिहासकार प्रोफेसर रोमिला थापर इस समय देश के उन कुछेक बुद्धिजीवियों में से हैं जो निर्भीकता के साथ उस भूमिका को निभा रहे हैं जिसे पिछली शताब्दी में ज्यां पॉल सार्त्र, अल्बर्ट आइंस्टाइन और बर्ट्रेंड रसेल ने निभाया था। जन सरोकारों से जुड़े पब्लिक इंटैलैक्चुअल यानी जन-बुद्धिजीवी की भूमिका, जो वह यथास्थिति पर सवालिया निशान खड़े कर निभाता है। बुक रिव्यू लिटरेरी ट्रस्ट ने रोमिला थापर को तृतीय निखिल चक्रवर्ती स्मृति व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने विषय चुना : ‘प्रश्न यह है कि प्रश्न किया जाए या न किया जाए।’ इस व्याख्यान का व्यापक स्तर पर स्वागत हुआ। इसे दर्शनशास्‍त्री सुंदर सरुक्कई, विज्ञान दर्शन के अध्येता ध्रुव रैना, राजनीतिशास्‍त्री पीटर रोनाल्ड डिसूजा, इतिहासकार नीलाद्रि भट्टाचार्य और पत्रकार जावेद नकवी के पास उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए भेजा गया। थापर द्वारा लिखित नई प्रस्तावना ‘भारत में पब्लिक इंटैलैक्चुअल’ के साथ मूल व्याख्यान के संशोधित एवं परिवर्धित रूप तथा इन सभी प्रतिक्रियाओं को एक स्थान पर संकलित कर अलेफ बुक कंपनी ने 2015 में इसी शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की जिसका अनुवाद अब वाणी प्रकाशन से आया है।

सार्त्र का कहना था, “जब कोई अपने काम से हटकर ऐसे मामलों में दखल दे जिससे उसका सीधे-सीधे कोई सरोकार नहीं है, तो वह बुद्धिजीवी की भूमिका में आता है। मसलन यदि कोई परमाणु वैज्ञानिक है और आणविक अस्‍त्रों के विकास के लिए काम कर रहा है, तो वह केवल वैज्ञानिक है। लेकिन वही व्यक्ति नैतिक और मानवीय आधार पर आणविक अस्‍त्रों के विकास और उनके इस्तेमाल का विरोध करता है, तो वह बुद्धिजीवी है।” थापर इसी आदर्श का जीता-जागता उदाहरण हैं। इतिहासकार के रूप में वे अतीत को प्रश्नांकित करती हैं, वहीं, अतीत के ज्ञान के आलोक में वर्तमान पर सवाल भी उठाती हैं।

संशय और प्रश्न, किसी भी विषय में शोध और खोज के दो अनिवार्य प्रस्थान बिंदु हैं। प्रस्तावना और व्याख्यान के आलेख, दोनों में उन्होंने धार्मिक राष्ट्रवाद का स्रोत औपनिवेशिक मान्यताओं में दर्शाया है। समकालीन भारतीय समाज में परंपरागत मान्यताओं पर सवाल उठाने वालों को ही निशाना बनाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है। थापर के शब्दों में, “पुस्तकों को प्रतिबंधित करने या उन्हें लुगदी बना देने की मांग तेजी से बढ़ती जा रही है और इसके साथ ही लेखकों को विद्वेषपूर्ण तरीके से अपमानित किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर यह अधिक होता है। ऐसा अपमान उन लोगों की तरफ से ज्यादा होता है जिन्होंने पुस्तक पढ़ी नहीं होती। अब प्रकाशक पहले कानूनी सलाह लेने लगे हैं। फिल्मों और वृत्तचित्रों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है या फिर धमकी दी जाती है कि उन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाएगा।”

भारत में प्रश्न-प्रतिप्रश्न करने, वाद-विवाद करने और स्वीकृत मान्यताओं को चुनौती देने की सुदीर्घ परंपरा रही है। अन्य देशों में भी सुकरात जैसे निर्भीक दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने जीवन और उसके बारे में प्रचलित विचारों की सतत परीक्षा करते रहने की अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने के लिए जीवन की बाजी तक लगा दी। थापर इस परंपरा से प्रेरणा ग्रहण करने की बात करती हैं लेकिन आधुनिक भारत के इतिहासकार नीलाद्रि भट्टाचार्य इसमें ‘अतीत का उत्सव’ मनाना देखते हैं और छोटे-छोटे स्तरों पर होने वाले प्रश्नांकनों पर अधिक ध्यान देने की वकालत करते हैं। ध्रुव रैना की चिंता है कि सदियों तक एक साथ विकसित होते रहने के बाद विज्ञान और लोकतंत्र 21वीं सदी में अलग-अलग रास्तों पर चल निकले हैं। जावेद नकवी ने धार्मिक पुनरुत्थानवाद की समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। सुंदर सरुक्कई जन-बुद्धिजीवियों द्वारा समाज में प्रश्न पूछने की आदत पैदा करने में सफल होने के बाद एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां इन बुद्धिजीवियों की जरूरत नहीं रहेगी।

हिंदी में लंबे अरसे से अनुवाद की समस्या बनी हुई है। अच्छे अनुवादक को दोनों भाषाओं के ज्ञान के साथ विषय की भी समझ होनी चाहिए। यह पुस्तक भी अनुवाद की दृष्टि से बहुत आश्वस्तिदायक नहीं है। ‘प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए प्रस्तावना के पहले पैराग्राफ में ही निखिल चक्रवर्ती के बारे में वर्तमान काल का प्रयोग किया गया है मानो वे आज भी जीवित हों। दूसरे पैराग्राफ में ‘हैं’ की जगह ‘थे’ आता है। इसी तरह ‘वेलकमिंग’ का अनुवाद ‘अभिनंदनीय’ किया गया है जो सिरे से गलत है। पूरे मूल पाठ का अनुवाद के साथ मिलान करना संभव नहीं है लेकिन चावल के एक दाने से ही उसके गलने का पता चल जाता है। मूल पुस्तक में दिए गए नोट्स, संदर्भों और अनुक्रमणिका को भी हिंदी संस्करण में शामिल नहीं किया गया है।

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