Advertisement

पचास साल बाद भी वही राग वही दरबार

निस्संदेह राग दरबारी हिंदी के महानतम उपन्यासों में से एक है और इसलिए यह हर वक्त प्रासंगिक रहेगा, पचास साल बाद भी शिवपालगंज हर जगह है कायम
आज भी मौजूंः राग दरबारी के रचयिता श्रीलाल शुक्ल

महान साहित्यिक रचनाओं के बारे में कहा जाता है कि वे इसलिए हर वक्त पढ़ी जाती हैं क्योंकि हर वक्त पाठक उनमें कुछ ऐसा पाता है जो उसके मन को छूता है। ऐसी रचनाएं हर दौर में प्रासंगिक होती हैं क्योंकि वे ऐसी मानवीय भावनाओं, विचारों या परिस्थितियों का बखान करती हैं जो प्रायः हर दौर में मौजूद रहती हैं। महाभारत के बारे में कहा ही जाता है कि महाभारत हर वक्त घटित होता रहता है। यह भी कहा जाता है कि जो महाभारत में है वह सब कुछ दुनिया में है। जो महाभारत में नहीं है वह दुनिया में भी नहीं होता। हिंदी क्षेत्र में आधुनिक साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की खास संस्कृति नहीं है। इसमें दोष केवल पाठकों या अपाठकों का ही नहीं है। हिंदी में लेखकों और रचनाओं को लेकर याददाश्त की कोई रियायत भी नहीं है।

अमूमन लेखक और उनकी कृतियों का सम्मान लेखक की अपनी सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक हैसियत पर और लेखक के जनसंपर्क की व्यापकता पर निर्भर करता है, इसलिए लेखक की मृत्यु के बाद लेखक और उसकी कृतियां भी याददाश्त से बाहर हो जाती हैं। अक्सर इस प्रक्रिया में बहुत मूल्यवान लेखक और कृतियां भी अतीत के संग्रहालय के किसी अंधेरे कमरे में खो जाती हैं। कुछ बड़े लेखक इस निर्मम प्रक्रिया के बावजूद याद किए जाते हैं जैसे, गजानन माधव मुक्तिबोध। उनकी जन्मशती पर उन्हें कायदे से याद किया गया। लेकिन उनके हमउम्र दूसरे बड़े कवि त्रिलोचन को यह सम्मान नहीं मिला। ऐसे में किसी बड़ी कृति के पचास साल होने पर उसे याद किया जाए तो यह सुखद है। राग दरबारी के पचास साल होने पर जैसी हलचल है वैसी हिंदी में शायद ही कभी रही हो।

बल्कि राग दरबारी के पचास साल पर पहला लेख शायद अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस में प्रतापभानु मेहता ने लिखा है। ऐसा भी नहीं कि राग दरबारी को पचास साल होने पर ही याद किया जा रहा है। यह ऐसा उपन्यास है जो कभी भी पाठकों के मंजर से दूर नहीं रहा। प्रकाशक के मुताबिक इसकी दो ढाई हजार प्रतियां हर साल बिकती हैं। यह भी हम जानते हैं कि राग दरबारी के पाठकों में ज्यादा तादाद उन लोगों की है जो अमूमन कोई साहित्यिक उपन्यास नहीं पढ़ते या जिनके साहित्य पढ़ने की शुरुआत राग दरबारी से हुई है। ऐसे भी पाठक हैं जिन्होंने राग दरबारी कई-कई बार पढ़ा है और उन्हें उसके कई हिस्से कंठस्थ हैं, उनमें से एक मैं भी हूं। राग दरबारी कालजयी उपन्यास की तरह याद किया जाए, यह खुशी की बात है।

निस्संदेह यह हिंदी के महानतम उपन्यासों में से एक है और इसलिए यह हर वक्त प्रासंगिक भी होगा। लेकिन मुश्किल यह है कि उसकी एक प्रासंगिकता अलग किस्म की भी है और वह प्रासंगिकता हमारे देश के बारे में अच्छी खबर नहीं देती। अगर हम कहें कि राग दरबारी इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि उसके पात्रों की प्रवृत्तियां, हरकतें, उपन्यास की भाषा, उसका व्यंग्य हमें आज भी ताजा लगता है तो यह बहुत अच्छा है। लेकिन अगर हम कहें कि शिवपालगंज के हालात पचास साल बाद भी वैसे ही हैं, सरकारी तंत्र अब भी उतना ही संवेदनहीन, भ्रष्ट और निकम्मा है, इस वजह से अगर यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है तो यह अच्छी खबर नहीं है। राग दरबारी जब प्रकाशित हुआ था तब देश को आजाद हए इकत्तीस बरस ही हुए थे। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, कांग्रेस और सत्ता पर उनकी पकड़ नहीं बनी थी। बाहर विपक्ष एक साथ संयुक्त विधायक दल बनाकर कांग्रेस को पहली बार गंभीर चुनौती देने की प्रक्रिया में था। नेहरू युग का आदर्शवाद मोहभंग की प्रक्रिया से गुजर रहा था और युवाओं में बेचैनी थी।

पश्चिम बंगाल में अतिवामपंथी संगठन हिंसक राजनीति के दौर में थे और समूचे भारत में युवा असंतोष बस कुछ ही वर्षों की दूरी पर खड़ा था। शिक्षा व्यवस्था में अराजकता का माहौल था, ‘छंगामल इंटर कॉलेज’ जगह-जगह अशिक्षा, अराजकता और बेरोजगारी फैला रहे थे। राग दरबारी में जिक्र है कि किसानों के लिए “अधिक अन्न उपजाओ” के विज्ञापन ऐसे लगे होते हैं मानो किसान अधिक अन्न नहीं उपजाना चाहता। हरित क्रांति की बस शुरुआत थी और हमारी पीढ़ी राशन की लंबी-लंबी लाइनों में खड़ी होने की अभ्यस्त हो रही थी। शादियों के लिए चीनी का परमिट लेना पड़ता था। देश में आमतौर पर अभाव की अर्थव्यवस्था थी जिसमें जरूरी चीजें भी विलासिता की वस्तु बना दी गई थीं। काला बाजारी फलता-फूलता धंधा था और सरकारी नौकरी पाना नौजवानों का एकमात्र उद्देश्य था।

यानी ऐसा माहौल था कि सबको लग रहा था, “क्या करिश्मा है ऐ रामाधीन भीकमखेडवी, खोलने कालिज चले आटे की चक्की खुल गई।”

हिंदी साहित्य उस वक्त अकविता, अकहानी, भूखी पीढ़ी और ऐसे ही किस्म के अजूबों से निकलने की प्रक्रिया में था और वामपंथी साहित्य का जलवा बस शुरू ही हुआ था, जिसमें आम जनता का जितना शोर था, पाठक वर्ग उतना ही छोटा हुआ जा रहा था। हिंदी के लेखक लंबे-लंबे बाल बढ़ा कर कॉफी हाउस में चारमीनार सिगरेट के साथ ब्लैक कॉफी पीते थे और प्रेमिकाओं पर इंप्रेशन डालने की कोशिश करते थे। शाम को ‘बैठने’ का रिवाज उतना आम नहीं था हालांकि, चरस, गांजा वगैरह काफी लोकप्रिय थे।

लेखकों को तब तक अपने महत्वपूर्ण होने का गुमान था। आंचलिक साहित्य के दिन खत्म हो गए थे और साहित्य से गांव तकरीबन गायब था। परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल जैसे लोगों की वजह से व्यंग्य की पहचान और लोकप्रियता बन रही थी। ऐसे वक्त में राग दरबारी आया। ऐसा उपन्यास पहले हिंदी में लिखा नहीं गया था। श्रीलाल जी राग दरबारी के बीज निराला के बिल्लेसुर बकरिहा में बताते हैं जो खुद निराला के लेखन में बहुत याद किए जाने वाली किताब नहीं है। हालांकि, यह कहना होगा कि वह अद्‍भुत और अनोखी किताब है। राग दरबारी की विशेषता यह थी कि वह सचमुच जमीनी मोहभंग की कथा है, उस दौर के रूमानी मोहभंग की नहीं। गांव इस उपन्यास में बिना किसी रूमानियत के पूरे ‘सिनिसिज्म’ के साथ मौजूद है।

वह हिंदी के शहरी पाठकों को याद दिलाता है कि वे चाहकर भी गांव और उसकी बदहाली को नहीं भूल सकते, क्योंकि वह उनके जीवन की बदहाली में मौजूद है और उन दोनों को जोड़ने वाला तत्व है देश की राजनैतिक, प्रशासनिक व्यवस्था, जो अपनी निरर्थकता और बंजरपन के साथ देश की किस्मत लिख रही है। राग दरबारी में करुणा और आर्द्रता का अभाव कभी-कभी हमें बेचैन कर देता है लेकिन यह निर्मम सिनिसिज्म इस उपन्यास की असाधारणता और प्रभाव को बढ़ा देता है। राग दरबारी का उद्देश्य हमें तिलमिलाना है और इस उद्देश्य को पाने के लिए श्रीलाल जी कोई कोना नहीं छोड़ते। राग दरबारी की कोई कथावस्तु नहीं है, रंगनाथ शिवपालगंज आता है और लौट आता है, इस बीच जो कुछ शिवपालगंज में घटता है उसका एक यात्रा वृत्तांत जैसा उपन्यास में है।

तमाम प्रसंग लगभग एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, जिन्हें अलग-अलग व्यंग्य कथाओं की तरह पढ़ा जा सकता है। संरचना के स्तर पर भी ऐसा उपन्यास इसके पहले हिंदी में नहीं था। कई अर्थों में राग दरबारी हिंदी साहित्य के पूरे परिदृश्य को तोड़ देने वाला उपन्यास था, वह तत्कालीन हिंदी लेखन की ‘एंटी थीसिस’ था। फिर भी राग दरबारी का हिंदी साहित्य में जोरदार स्वागत हुआ क्योंकि तब हिंदी साहित्य को जकड़बंदी से जो मुक्ति चाहिए थी वह राग दरबारी ने दिलाई।

राग दरबारी ने जो दरवाजा खोला, वह बहुत चौड़ा था और उससे गुजर कर हिंदी साहित्य साठ के दशक की कई बुराइयों से मुक्त हो सका। यथार्थपरक और जनाधारित साहित्य के लिए राग दरबारी और राही मासूम रजा के आधा गांव जैसे लेखन को श्रेय मिलना चाहिए, जिन्होंने भाषा, विषयवस्तु और समझ की कई रूढ़ियां तोड़ीं।

आम पाठकों ने भी राग दरबारी को हाथों-हाथ लिया। यह ऐसा उपन्यास था जो जनता की बात को, उनकी पीड़ा और शिकायत को व्यंग्य के अंदाज में कह रहा था। व्यवस्था पर जो प्रहार आम लोग करना चाह रहे थे वह इस उपन्यास ने किया। इस साल इस उपन्यास के प्रासंगिक बने रहने की एक वजह यह भी है कि लोगों को अपने आसपास का प्रतिबिंब इसमें दिख रहा है। हमारी व्यवस्था इस मायने में बड़ी टिकाऊ है। राग दरबारी के पचास साल बाद देश और शिवपालगंज में बहुत बदल गया है और बहुत कुछ वैसा ही है।

अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुए तीस साल होने को आए और इस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से है। सारे देश में मोबाइल फोन छा गए हैं तो शिवपालगंज भी विकास से अछूता नहीं रह सकता। लेकिन सरकार और प्रशासकीय व्यवस्था के साथ आम जनता का रिश्ता वही है।

राग दरबारी में थाना उन्नीसवीं सदी में था सो अब भी वहीं है। लंगड़ की व्यवस्था के साथ “सत की लड़ाई” भी पचास साल बाद वैसे ही जारी है। पंचायत के चुनावों में जातियों का सत्ता समीकरण बदल गया है लेकिन बुनियादी रूप से सब कुछ वैसा का वैसा ही है। अब भी रुप्पन बाबू बेला को प्रेम-पत्र लिखें तो वैसे ही बवाल होता है और अंतिम निष्कर्ष वही निकाला जाता है कि बेला एक चरित्रहीन लड़की है।

छंगामल इंटर कॉलेज, पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज हो गया हो, उसे चलाने वालों ने हो सकता है दो-चार इंजीनियरिंग कॉलेज और एकाध मेडिकल कॉलेज खोल लिया हो या नई यूनिवर्सिटी खोल ली हो, लेकिन छंगामल कॉलेज में शिक्षा का तरीका और स्तर वही का वही होगा। यह बहस का विषय है कि हमारा समाज उतना ही संकीर्ण और सांप्रदायिक है या ज्यादा हो गया है। इसलिए राग दरबारी की प्रासंगिकता अच्छी खबर भी है और बुरी भी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकर्मी हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement