Advertisement

आंग सान सू की को जेल: हालिया घटनाओं के बीच कितने बदल जाएंगे भारत और म्यांमार के रिश्ते?

दुनिया के तमाम विरोधों को नजरअंदाज करते हुए म्यांमार की एक अदालत ने नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू...
आंग सान सू की को जेल: हालिया घटनाओं के बीच कितने बदल जाएंगे भारत और म्यांमार के रिश्ते?

दुनिया के तमाम विरोधों को नजरअंदाज करते हुए म्यांमार की एक अदालत ने नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की को 4 साल की सजा सुनाई है। उनके समर्थक और अधिकतर अंतरराष्ट्रीय समुदाय मान रहे हैं कि उन्हें झूठे आरोपों में फंसाया गया है। उनका मानना है कि देश की कोई भी अदालत, बिना सेना के समर्थन के देश के सबसे प्रसिद्ध चेहरे को जेल भेजने की हिम्मत नहीं कर सकती थी।

म्यांमार में 1 फरवरी से गतिरोध चल रहा है, जब सेना ने सू की और नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी के अन्य नेताओं को गिरफ्तार किया था और फिर सत्ता पर काबिज हो गयी थी। 1 फरवरी वह दिन था, जब आंग सान सू की की पार्टी के चुनाव जीतने और सैन्य समर्थित पार्टियों को हराने के बाद नया संसद सत्र बुलाया जाना था। म्यांमार के संविधान के अनुसार, 25 प्रतिशत सीटें सशस्त्र बलों के लिए आरक्षित हैं। एनएलडी की जीत से नाखुश सेना ने तख्तापलट किया और विपक्षी नेताओं को देश भर की जेलों में बंद कर दिया। हालांकि, इसके विरोध में आम नागरिक सड़क पर उतर आए, लेकिन विरोध झड़प में तब्दील हो गई और कई प्रदर्शनकारियों को सैनिकों ने मार डाला। तब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तख्तापलट की निंदा की और लोकतंत्र की तत्काल बहाली के लिए कहा था। लेकिन, सेना ने अब तक झुकने से इनकार किया है और देश पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए है। आसियान (दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन) नेता म्यांमार के आर्मी जनरलों को राजनीतिक नेताओं को रिहा करने और बातचीत शुरू करने के लिए कह रहे हैं, लेकिन इसका उनपर कोई असर नहीं हुआ।

सेना द्वारा किये गए अंतरराष्ट्रीय राय की अवहेलना सोमवार को सू की की सजा के साथ भी स्पष्ट थी। हालांकि ऐसे संकेत हैं कि 76 वर्षीय सू की की को दो साल के लिए कम सजा दी जाएगी। यह राज्य-नियंत्रित टेलीविजन चैनल द्वारा रिपोर्ट किया गया था, जिसमें कहा गया था कि उन्हें आंशिक क्षमा प्रदान किया गया है।

भारत ने मंगलवार को म्यांमार में नवीनतम घटनाक्रमों पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और ऐसा संभवतः इसलिए हुआ क्योंकि विदेश मंत्रालय कल भारत-रूस शिखर सम्मेलन में व्यस्त था। म्यांमार तख्तापलट दिल्ली के लिए भी चिंताजनक है। एक लोकतांत्रिक देश के रूप में, भारत को पड़ोस में एक सैन्य तख्तापलट की कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। फिर भी इसके सुरक्षा हित और तथ्य यह है कि म्यांमार के संवेदनशील पूर्वोत्तर क्षेत्र की सीमा में कई विद्रोही समूहों के घर है जो सैन्य शासकों के लिए एक पंक्ति को बरकरार रखने का आह्वान करता है।

भारत म्यांमार के साथ 1,643 किलोमीटर की खुली सीमा साझा करता है। इसमें से 520 किलोमीटर की सीमा अरुणाचल से सटे है, 215 किलोमीटर नागालैंड के साथ, 398 किलोमीटर मणिपुर के साथ और 510 किलोमीटर की सीमा मिजोरम से जुड़ता है। म्यांमार की तरफ भारत की सीमा काचिन, सागिंग और चीन से मिलती है। पूर्वोत्तर विद्रोही समूहों के म्यांमार में सीमा पार शिविर हैं और वे वहां से बिना इम्प्यूनिटी के काम कर सकते हैं। हालाँकि, हाल के वर्षों में म्यांमार की सेना ने भारतीय अधिकारियों का सहयोग किया था और अपनी धरती पर, सीमा पार विद्रोहियों के खिलाफ की जाने वाली भारतीय अभियानों की अनुमति भी दी थी।

इसलिए, भारत ने बार-बार लोकतांत्रिक ताकतों और सेना के बीच मेलजोल की अपील की है और ऐसा करके भारत सेना से अपना जुड़ाव जारी रखना चाहता है। पहले के समय में, भारत ने अपने ही लोगों पर सेना की कार्रवाई से भाग रहे शरणार्थियों का स्वागत किया था। लेकिन इस बार, असम राइफल्स और सीमा सुरक्षा बल को पूर्वोत्तर के सीमावर्ती राज्यों में शरण की उम्मीद कर रहे शरणार्थियों को वापस भेजने के लिए सख्त निर्देश भेजे गए थे।

विदेश कार्यालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक बयान जारी कर कहा है, "हम हाल के फैसलों से परेशान हैं। एक पड़ोसी लोकतंत्र के रूप में, भारत म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन का लगातार समर्थन करता रहा है। हमारा मानना है कि कानून के शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बनाए रखा जाना चाहिए। कोई भी विकास जो इन प्रक्रियाओं को कमजोर करता है और मतभेदों को बढ़ाता है वो एक गहरी चिंता का विषय है। यह हमारी आशा है कि अपने देश के भविष्य को ध्यान में रखते हुए, सभी पक्षों द्वारा बातचीत को आगे बढ़ाने के प्रयास किये जाएंगे।"

जबकि पश्चिमी देशों ने म्यांमार पर प्रतिबंध लगाए हैं। भारत ने कहा है कि वह प्रतिबंधों में विश्वास नहीं करता है और उसका मानना है कि अक्सर यह उन लोगों को आहत करता है जिन्हें पश्चिमी देश मदद करना चाहता है। इसके अलावा, एनडीए के सहयोगी और मिजोरम के मुख्यमंत्री ने रिफ्यूजियों के लिए कोई फरमान न होने के बावजूद आगे बढ़कर सेना के दमन से भागने वालों को आश्रय दिया था। क्योंकि म्यांमार में सीमा पार रहने वाले लोग एक ही आदिवासी समूह से हैं और उनके पारिवारिक संबंध भी हैं। हालांकि, मुख्यमंत्री राज्य में शरणार्थियों को अनुमति नहीं दे सकते थे लेकिन फिर भी उन्होंने दिया।

पहले के समय में सू की के खिलाफ हुए फैसले से कई भारतीय शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए थे। यह विरोध 1989 में हुआ था जब सेना ने उन्हें नजरबंद कर दिया था। इस बार उनके अनुचित अभियोग पर शायद ही कोई कानाफूसी हो।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement