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पुस्तक समीक्षाः ढलती सांझ का सूरज

यह उपन्यास सार्थकता और सकारात्मकता की अद्भुत खोज करता आख्यान है। तमाम आशाओं, निराशाओं से गुजरते जीवन...
पुस्तक समीक्षाः ढलती सांझ का सूरज

यह उपन्यास सार्थकता और सकारात्मकता की अद्भुत खोज करता आख्यान है। तमाम आशाओं, निराशाओं से गुजरते जीवन में सार्थकता और सकारात्मकता की खोज करने का अविस्मरणीय है।

किताब का नायक अविनाश अंत में कहता है, "कुछ जीवन अपने अधूरेपन में ही संपूर्ण होते हैं। यह समय, इसका सरगम, इसकी अंदरूनी धड़कनें, इसका हवा-पानी अधूरा ही सही पर मुझे फिर से गढ़ रहा है। अभी तो मन रमा है इसी आसमान में, अपने इसी अधूरेपन में, इसी यथार्थ की धूप में, इसी स्वप्न की चांदनी में। यही तो वह नक्षत्र है जिसकी रोशनी में अंधेरे में चलता यात्री खोजता है अपनी मंज़िल!"

वही अविनाश, जिसकी बीस साल बाद स्वदेश वापसी से इस उपन्यास का आगाज़ होता है। अपने एक मित्र और उसकी मां के साथ घटी दुर्घटना से बौखलाया, बदहवास अविनाश मां से मिलने की ख्वाहिश लिए पूरे रास्ते अतीत की स्मृतियों में डूबता, उतराता हिंदुस्तान लौटता है। घर पहुंचकर पता चला कि घर बंद है। पड़ोसी के घर पहुंचा तो चाबी के साथ ही मां द्वारा छोड़ा गया संदेश भी मिला कि उनसे मिलने के लिए उसे पारतुल जाना होगा।

यहीं से शुरू होती है, ऐसी यात्रा जो अविनाश के जीवन को संपूर्ण अर्थों में बदलकर रख देती है। लगातार हो रही इन यात्राओं में अविनाश जिसे भी अपना गंतव्य समझता वह दरअसल एक पड़ाव होता जिसे मां ने उसके लिए पहले ही निश्चित कर रखा था। मां की इच्छा थी कि अविनाश उस जीवन जगत से साक्षात्कार करे जो उसके समय का सत्य है।

जितना कठिन यह सफर था उतने ही त्रासद और विचलनकारी वह अनुभव जिनसे अविनाश इस यात्रा के दौरान रूबरू होता है। इसी समयान्तराल में यह शाश्वत जिज्ञासा उसके मन में जागती है कि "हम सबने जीवन से क्या पाया और अंततः उसे क्या और कितना लौटाकर गए!" यहीं आकर अविनाश देख सका कि "ज़िन्दगी की इस चादर में कितने छेद हैं!"

अपने समय की तमाम विद्रूपताओं, विसंगतियों, दुःख के अनेकानेक चेहरों, जीवन की छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए अनथक संघर्ष करते, जान गंवाते और सब कुछ हारकर भी जिंदा रहने के लिए अभिशप्त मनुष्यों को देखने, उनके सुख-दुःख का सहभागी बनने के साथ ही दुर्धर्ष, विषम परिस्थितियों का सामना करने, इनसे संघर्ष करते हुए इन्हीं के बीच से रास्ते तलाशने का सुख वही समझ सकता है जिसमें अपने कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकलने का हौसला हो! अविनाश का व्यक्तित्व परिवर्तन न सिर्फ इस उपन्यास का प्रस्थान बिन्दु है बल्कि अदम्य साहस और प्रेरणा की एक मिसाल भी! वह जिस जुनून, जिद और लगन से इसे संभव कर दिखाता है, उसके सूक्ष्म विवरण इस किताब को वास्तविकता और सार्थकता के एक अलग धरातल पर ले जाते हैं।

किसान आत्महत्या और उनकी अथाह दुश्वारियां इस उपन्यास की मूल थीम ज़रूर हैं किन्तु यह उपन्यास उससे बहुत आगे तक की बात करता है जो स्वयं में अपूर्व और बेहद महत्त्वपूर्ण है।

अपने जीवन अनुभवों को कहानियों का जामा पहनाने और उसे एक अविस्मरणीय आख्यान में तब्दील कर देना एक ऐसा हुनर है जिसे साधने में वक़्त लगता है, लंबी साधना करनी पड़ती है क्योंकि इसका कोई  शॉर्टकट फ़िलहाल कहीं मौजूद नहीं है। मधु कांकरिया जी ने इस हुनर को बखूबी साध लिया है, इसे उनका हर उपन्यास सिद्ध करता रहा है।

मधु कांकरिया के उपन्यासों के विषय कोरी कल्पना पर कभी आश्रित नहीं होते। उनके सब्जेक्ट सीधे फील्डवर्क से हासिल हुए अनुभवों की उपज हैं। उनकी प्रखर संवेदना और सिद्धहस्त लेखन इन विषयों की औपन्यासिक प्रस्तुति में अहम भूमिका निभाते हैं।

ढलती सांझ का सूरज

मधु कांकरिया

राजकमल प्रकाशन

199 पृष्ठ

 

समीक्षक ः गंगा शरण सिंह

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