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पुस्तक समीक्षा - सुखी घर सोसाइटी : त्रासद कहानियों में रचा-बसा उपन्यास

‘सुखी घर सोसाइटी’ विनोद दास का इसी वर्ष (2022) प्रकाशित उपन्यास है। विनोद दास की पहचान कवि, समीक्षक और...
पुस्तक समीक्षा - सुखी घर सोसाइटी : त्रासद कहानियों में रचा-बसा उपन्यास

‘सुखी घर सोसाइटी’ विनोद दास का इसी वर्ष (2022) प्रकाशित उपन्यास है। विनोद दास की पहचान कवि, समीक्षक और अनुवादक के रूप में रही है। कविता लिखना और देश-दुनिया की कविताओं का हिंदी अनुवाद करना जो मूल कविताओं सा ही रस प्रदान करती हैं, में वे लगातार सक्रिय नज़र आते हैं। लेकिन उनके गद्य लेखन की भाषा की रचनात्मकता भी पाठकों को आकृष्ट करती है। उनके गद्य की भाषा में कविताओं जैसी तरलता और बिंबात्मकता और सहजता और संवेदनशीलता को आसानी से पहचाना जा सकता है। उनके गद्य की भाषा में जटिलता और उलझाव नहीं है तो सरलता और सपाटता भी नहीं है। उनकी गद्य भाषा के सौंदर्य को उनके इस उपन्यास में और अधिक प्रभावी रूप में देखा और महसूस किया जा सकता है। 

 

‘सुखी घर सोसाइटी’ लगभग तीन सौ पृष्ठों का उपन्यास है जो मुंबई के पास बसे उपनगर मीरा रोड की एक सोसाइटी में रहने वाले लोगों के जीवन की कहानी कहता है। इन कहानियों के बहाने मुंबई की एक ऐसी तस्वीर उभरती है जिसके बारे में यह तो दावा नहीं किया जा सकता कि यह मुंबई की वास्तविक तस्वीर है, बल्कि इस तस्वीर की रंग-रेखाएं उन बाशिंदों के कड़वे-मीठे अनुभवों से रची गयी हैं जो, कई-कई दशकों से बिहार और उत्तर प्रदेश से आकर मुंबई में बसे हुए हैं। उपन्यास के केंद्र में सुखी घर सोसाइटी है, लेकिन उपन्यास इस सोसाइटी से बंधा नहीं है। यहां तक कि इसमें रहने वालों से भी बंधा नहीं है। उपन्यास की संरचना कुछ इस तरह की है कि उसकी कहानी अपने बाशिंदों के साथ सोसाइटी से बाहर निकलकर कहीं भी पहुंच सकती है। बिहार और उत्तर प्रदेश के किसी गांव में, किसी कस्बे और शहर में। मुंबई के ही किसी मोहल्ले, दफ्तर, क्लब, रेस्तरां, सड़क, बाज़ार और समुद्र तट में और इनके बहाने सुखीघर सोसाइटी में रहने वाले लोगों के जीवन की किताब के वे पन्ने हमें पढ़ने को मिलते हैं जो इस सोसाइटी में नहीं लिखे गये हैं लेकिन जिनको पढ़ने से ही इन बाशिंदों के मौजूदा जीवन के सुख-दुख को समझा जा सकता है। लेकिन इससे भी ज्यादा इस सत्य को समझा जा सकता है कि मुंबई हो या लातूर या गोंडा या कोई भी गांव गरीबों, दलितों, मुसलमानों, स्त्रियों के जीवन की पीड़ाएं उनका कहीं भी पीछा नहीं छोड़तीं। व्यवस्था चाहे दावा जो भी करती हो, लेकिन इन मेहनतकशों और बदहाल जीवन जीने वालों की ज़िंदगी को कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी क्षेत्रीयता और भाषा के नाम पर और कुछ नहीं तो औरत होने के कारण उस नरक की ओर धकेल दिया जाता है जिससे निकलना आसान नहीं है।

 

सुखी घर सोसाइटी के बहाने ऐसी कई कहानियां कही गयी हैं जिनका सीधे तौर पर सोसाइटी से कोई संबंध नहीं है। धारावी में रहने वाली रज़िया को दंगे में अपने किशोर वय के बेटे नूर को खोना पड़ता है क्योंकि उसका नाम नूर है और वह मुसलमान मां-बाप का बेटा है। इस सदमे को रज़िया सहन नहीं कर पाती और जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाती है। कृष्णा को गटर साफ करते हुए अपनी जान गंवानी पड़ती है क्योंकि किसी फ़िल्म अभिनेता के घर में गटर की दुर्गंध जा रही है। कृष्णा सपना देखता है कि वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर इस नरक से दूर रखेगा। लेकिन खुद उसे उस अभिशाप से मुक्ति नहीं मिलती जहां उसे और उस जैसे हजारों युवाओं को सफाई के लिए गटर के गंदे और जहरीले पानी में उतरना पड़ता है। कृष्णा जैसे कई युवक रोज़ अपनी जान देने के लिए मज़बूर हैं लेकिन अंधी और बहरी व्यवस्था पर कोई असर नहीं होता क्योंकि व्यवस्था से भी ज्यादा संवेदनहीन और आत्ममुग्ध है हमारा समाज जहां अछूत समझे जाने वाले समुदायों को इंसान ही नहीं समझा जाता। इसलिए उनका मरना क्या और जीना क्या। दलित होने के कारण मनोज आर्य को घोड़ी पर बारात निकालने की सजा भुगतनी पड़ती है, तो सफाई कर्मचारी संगीता को सुपरवाइजर रामधन पांडे के हाथों अपमानित होना पड़ता है। एक ग्रामोफोन ठीक करने वाले बुजुर्ग मुसलमान को अपने बेटे के टाडा में जेल हो जाने के सदमे से बेमौत मरना पड़ता है। बैंक से मामूली कर्ज लेने वाले किसानों को रोज आत्महत्या करनी पड़ती है लेकिन बैंकों का करोड़ों और अरबों रुपया डकार जाने वाले पूंजीपतियों का नाम तक उजागर करने में सरकारों को शर्म आती हैं। हर महीने लाखों रुपया कमाने वाले बच्चे अपने बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रमों में छोड़कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। उन्हें इतनी फुरसत भी नहीं होती कि अपने बूढ़े और लाचार मां-बाप से जाकर मिल आयें। इस उपन्यास में ऐसी कई दर्दनाक कहानियां कही गयी हैं जो सुखीघर सोसाइटी में रहने वाले लोगों की भी हैं और उनकी भी हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस सोसाइटी से जुड़े हैं। 

 

ये वे गरीब और मेहनतकश लोग हैं जो इस या ऐसी कई सोसाइटियों में रहने वाले मध्यवर्गीय लोगों के जीवन को कुछ हद तक जीने योग्य बनाते हैं। गटर में मरने वाला कृष्णा संगीता का पति है और संगीता सुखीघर सोसाइटी में झाड़ू लगाती है। मनोज आर्य सोसाइटी में सिक्युरिटी का काम करता है। मंगला सोसाइटी के घरों में काम करती है लेकिन जो मंगला होने से पहले रोज़ी थी और रोज़ी होने से पहले वहीदा। जो कभी पेट के लिए देह बेचने के लिए मजबूर थी और जिसका एक प्रेमी भी था मोहन जो मुंबई शहर में टेक्सी चलाता था और एक दिन उसे सड़क पर शिवसेना के लोगों ने इसलिए पीट दिया था क्योंकि वह महाराष्ट्र का नहीं था और वह मराठी नहीं बोल सकता था। सोसाइटी में रहने वाली पत्रकार जया की कहानी भी कम विडंबनापूर्ण नहीं है जिसे बैंकों से कर्ज लेने वाले उन उद्योगपतियों की स्टोरी करने की सजा अपनी नौकरी गंवाकर भुगतनी पड़ी जो बैंकों का कर्ज हड़प कर जाते हैं। बैंक में काम करने वाले उसके प्रेमी अशोक का तबादला दूर लातूर में कर दिया जाता है जिसने जया की मदद की थी, लेकिन लातूर में रहते हुए उन किसानों की कहानी भी इस उपन्यास का हिस्सा बनती है जो बैंकों का कर्ज न चुकाने के कारण आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। इसी सोसाइटी में रहने वाली बार गर्ल गीता, रूबी और ब्यूटी की कहानियां भी कम त्रासद नहीं है। 

 

इन कहानियों में हमारे वर्तमान समय की कमोबेश सभी विडंबनाएं एक-एक कर सामने आती हैं। किस तरह सांप्रदायिकता का जहर चारों ओर फैल रहा है, कैसे ब्राह्मणवाद से गांव ही नहीं महानगर भी अछूते नहीं है और पढ़े-लिखे लोग अब भी अंधविश्वासों के मायाजाल में फंसे हैं। सुखीघर सोसाइटी तो नहीं लेकिन उसके बहाने बना संसार एक अर्थ में लघु भारत है और इस भारत में व्यवस्था की प्राथमिकताएं बिल्कुल बदल गयी है। भारत का संविधान जिसने सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किये हैं, लेकिन यह व्यवस्था लोगों को हिंदू और मुसलमान के रूप में देखती है, ब्राह्मण और दलित के रूप में देखती है। उसके लिए स्कूल और अस्पताल नहीं बल्कि मंदिर और मूर्तियां ज्यादा ज़रूरी है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि कोरोना महामारी के दौर में लाखों लोगों को समुचित इलाज के अभाव में अपनी जान गंवानी पड़ी और करोड़ों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ा लेकिन इन्हीं दो सालों में पूंजीपतियों की संपत्तियों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। यह उपन्यास ऐसा प्रतीत होता है कि महामारी के दौर से ठीक पहले लिखा गया है। लेकिन इसे पढ़ने से इस सत्य को आसानी से समझा जा सकता है कि देश किस तेजी से विनाश की ओर बढ़ रहा था। उपन्यास में नोटबंदी से जुड़े प्रसंग इसी सत्य के संकेत भर है।  

इस उपन्यास के अध्यायों को न कोई शीर्षक दिया गया है और न ही संख्या दी गयी है बल्कि उन्हें ऐसे कथनों से अलगाया गया है जिसमें आगे आने वाली कहानी का मर्म एक अर्थ में उद्घाटित हो जाता है। जैसे उपन्यास के पहले अध्याय में बोल्ड में एक उद्धरण है, ‘उपनगर अपने महानगर की अवैध सन्तान की तरह होता है जिसे वैध संतान की तरह न तो प्यार, न ही सुख-संपत्ति और न ही नाम मिलता है’। इसके बाद हमारे सामने पानी के अभाव में आकाश और वसुधा को सुबह निवृत्त होने के लिए किस तरह दर-दर भटकना पड़ता है, इसे बहुत ही मार्मिक रूप में कहा गया है। इसी तरह एक अन्य अध्याय की शुरुआत इस कथन के साथ होती है, ‘इतिहास अतीत की लाश ही नहीं, एक ऐसा जीवित विवेक भी है जो टार्च की तरह अँधेरे रास्ते को रौशन करता है’। इस अध्याय में धारावी के मुसलमान घरों पर सांप्रदायिक संगठनों के हमलों की कहानी कही गयी है। एक और अध्याय का कथन, ‘महानगर में वे हर दिन मलमूत्र की अंधी गुफा में आत्महत्या के लिए उतरते जबकि यह सफ़ेदपोशों द्वारा की गयी हत्या होती है’। इसमें कृष्णा के गटर में मर जाने की त्रासद कहानी कही गयी है। इस तरह के कथन जो अध्यायों के आरंभ में हैं, वे बाद में अध्याय के बीच में भी आते हैं। लेकिन अध्यायों में इनके अलावा भी कई कथन आते हैं जो गहरा अर्थ संप्रेषित करते हैं। मसलन, ‘इस दुनिया में हर जगह ग़रीबों के लिए क़तार होती। अमीरों के लिए रास्ते में कालीन बिछी होती’।

 

उपन्यास में इस तरह के कथन बताते हैं कि कथाकार न केवल कहानी कहता जाता है बल्कि ठीक उसी समय उसका चिंतनशील मानस भी सक्रिय रहता है। ‘सुखी घर सोसाइटी’ में कोई नायक या नायिका नहीं है। दरअसल, स्वयं यह सोसाइटी भी नायक नहीं है। उपन्यास में आकाश और वसुधा की कहानी शुरू से अंत तक फैली हुई जरूर है और पानी की समस्या शायद वह अकेली समस्या है जिसकी डोर से सोसाइटी के बाशिंदे ही नहीं वहां काम करने वाले भी बंधे हुए हैं। लेकिन आकाश और वसुधा जो अपने अन्य पड़ोसियों की तुलना में अधिक प्रगतिशील और मानवीय नज़र आते हैं, वे भी मानवीय कमजोरियों से मुक्त नहीं है। उनके जीवन की अपनी पीड़ाएं हैं। सोसाइटी में हिंदू और मुसलमान, मराठी और गैरमराठी साथ-साथ रहते हैं। उनके अपने अंतर्विरोध हैं, टकराव हैं, लेकिन धीरे-धीरे जो टकराव सबसे अधिक तेजी से और उग्र रूप में उभर रहा है, वह है हिंदू-मुसलमानों के बीच का टकराव। वह टकराव सोसाइटी में होने वाले चुनावों के दौरान उग्र रूप लेने लगता है, लेकिन उपन्यास उससे पहले ही समाप्त हो जाता है। 

 

इस तरह उपन्यास एक ऐसे मोड़ पर या ऐसे बिंदु पर खत्म हो जाता है जहां कोई भी कहानी दरअसल खत्म नहीं हुई है। उनके अभी और कई पृष्ठ लिखे जाने हैं। सुखी घर सोसाइटी के बहाने रचनाकार की अंतर्दृष्टि रूपी यह वीडियो कैमरा अपने दायरे में आने वाले लोगों के जीवन में दूर तक यात्रा करता है और उनके जीवन की सच्चाइयों को, अंतर्विरोधों को, विडंबनाओं को, टकरावों और संघर्षों को, इच्छाओं और आकांक्षाओं को और सपनों को और उनके टूटने को हमारे सामने पूरी शिद्दत, ईमानदारी और गहरी संवेदना के साथ लाता है। विनोद दास की भाषा की विशिष्टता यह है कि वह घटनाओं, प्रसंगों, स्थितियों और चरित्रों का वर्णन नहीं करता बल्कि उनका गत्यात्मक चित्र निर्मित करता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारे सामने एक फ़िल्म चल रही है जिसने हमें अपने लगातार बदलते दृश्यों में बांध रखा है। लेकिन अचानक कैमरामेन ने कैमरा बंद कर दिया है। वह उसी बिंदु पर क्यों खत्म करता है? वह कुछ देर बाद भी कैमरा बंद कर सकता था और कुछ पहले भी। वह कोई और कहानी भी जोड़ सकता था। दरअसल इस उपन्यास की बुनावट की जो शक्ति है वही उसकी सीमा भी है। इस बुनावट में कहानियां दर कहानियां जोड़ी जा सकती हैं और ये कहानियां हमारे समय और समाज के यथार्थ की द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति है जिसे चाहे जितना विस्तार दिया जा सकता है। 

 

मुक्तिबोध ने अपनी लंबी कविताओं के बारे में कहा था कि ‘कहीं भी खत्म कविता नहीं होती’। इस उपन्यास की संरचना भी लंबी कविता की तरह है जो कहीं खत्म नहीं होती। उसमें दृश्य दर दृश्य जुड़ते जाते हैं और हर दृश्य हमारे समय के यथार्थ के एक नये पहलू को उसमें निहित विडंबनाओं और त्रासदियों के साथ उजागर करता है। लेकिन अभी भी बहुत कुछ है जो अनकहा है और कहा जाना है क्योंकि यथार्थ निरंतर बदल रहा है। लेखक के पास निश्चय ही एक ऐसी प्रगतिशील दृष्टि है जो हमारे समय के यथार्थ को, उनके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को अपनी संपूर्णता में देखने की क्षमता रखता है। लेकिन इन सब कहानियों को उपन्यास में कथाकार ऐसे अनवरत गतिमान धागे से बांधने में शायद सफल नहीं रहा है (या शायद वह ऐसा चाहता भी नहीं है) जिसकी डोर उसके अपने हाथ में हो और पाठक को यह लगे कि वह एक ऐसा मुकम्मल उपन्यास पढ़ रहा है जिसकी एक शुरुआत है और उस शुरुआत की एक मंजिल है, भले ही उस मंजिल पर पहुंचा न गया हो।

 

 

 

सुखी घर सोसाइटी (उपन्यास) : विनोद दास

2022, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली। 

 

 

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