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रविवारीय विशेषः रजनी गुप्त की कहानी ठिठुरती हथेलियां

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए रजनी गुप्त की भीन-भीनी...
रविवारीय विशेषः रजनी गुप्त की कहानी ठिठुरती हथेलियां

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए रजनी गुप्त की भीन-भीनी सी खुशबू वाली एक अल्हड़ प्रेम कहानी। प्रेम का आकर्षण ही है, जो सालों बाद भी दिलों में जिंदा रहता है। बचपन में जिसे दोस्ती या सिर्फ अपनापन कह कर कभी-कभी भुला दिया जाता है, वही बाद में ऐसा प्रेम बन जाता है, जिसकी याद हमेशा रहती है।

मिनी और राजन के पास बातों के अजस्र खजाने होते। दोनों लीक से हटकर कुछ अलग करेंगे, ऐसे इरादे से पढ़ते। वे न जाने कहां-कहां के किस्‍से ले आते। राजनीति, क्रिकेट, टीवी, मुहल्‍ले में चल रही गप्‍पें, किसी लड़का-लड़की के बीच चल रही गर्मा-गर्म खबरें। वे हर प्रसंग पर खूब चर्चा करते। किस्‍सों के थान खुलते, तो खुलते चले जाते। दोनों थकते नहीं थे। दोनों स्‍कूल से लेकर कॉलेज शुरू होने तक साथ पढ़ने वाले पक्‍के दोस्‍त थे। इस दोस्‍ती में कोई मिलावट नहीं थी। दोनों की पारिवारिक मित्रता थी। उत्‍सव, त्‍योहारों पर भी एक-दूसरे के घर आवाजाही लगी रहती। उस वक्त लड़के-लड़कियों के बीच ऐसी आत्‍मीयता को शक की नजरों से देखने का उतना चलन नहीं था। छोटे शहरों में किताबें या नोटबुक लेने-देने के कुछ किस्‍से प्रेम प्रसंग में बदलते जरूर थे लेकिन ये लोग प्रेम प्रसंग के प्रचलित फार्मूलों में यकीन नहीं करते थे। हम यहां ऐसे ही किस्‍से पर लौटते हैं, जहां लगभग दो दशक बाद राजन और मिनी मिल रहे हैं।  

“ऐ मिनी, सुन ये घिसी-पिटी हालचाल लेने वाली इधर-उधर की बातें कुछ जम नहीं रहीं। चल, कुछ लीक से हटकर बातें की जाएं।” राजन ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।

“क्‍यों न हम अपनी जी गई जिंदगी को फिर से देखें। सबसे पहले तुम आलथी-पालथी मारकर आंखें बंद कर बैठ जाओ। फिर पीछे लौटते हुए अपनी दुनिया की तरफ मुड़कर देखो। यहां-वहां मत देखना, सीधे 25 साल पहले लौटना जहां, दौड़ता-भागता लड़का राजन है। बस अपने को वहीं से देखना शुरू करो।” लंबी सांस लेकर राजन सुकून से पालथी मारकर बैठ गया। मिनी ने रिप्‍ले बटन ऑन कर दिया।

वो कस्‍बेनुमा छोटे शहर की शांत दुनिया थी। वह घर से बाजार या बाजार से घर लौटते हुए हमेशा मिनी के बारे में ही सोचता रहता था। आज मिनी ने ये किया होगा या आज उसने इस विषय में पूरा रट्टा लगा लिया होगा। स्‍कर्ट-ब्‍लाउज पहने मिनी और राजन अक्‍सर दुनिया भर की बातें करते। अपने करिअर की योजना बनाते। दोनों के बीच अनकही सी रेखा थी, जिसे दोनों में से किसी ने लांघने के बारे में नहीं सोचा।  

कभी दोनों सीढ़ियों पर बैठकर मीठी गोलियां खाते, तो कभी मूंगफली या बेर। कभी रेलवे प्‍लेटफार्म पर बिकती कचौड़ियां खाते ट्रेन के आने और गुजर जाने का इंतजार करते, कभी पैसेंजर्स की संख्‍या गिनते। कभी अजीबो गरीब शर्त लगाते, पैसेंजर गाड़ी ठीक 5 बजे तक आई तो कचौड़ी मिनी खिलाएगी। लेट होने पर राजन। पीछे वाले डब्‍बे में दो महिलाएं होंगी तो मिनी जीतेगी वरना राजन।”

“मिनी, देखो, इस बार तुम जीत गईं। ये देखो, पीछे से उतर रहीं हैं दो लड़कियां।” राजन ने चिढ़ाते हुए कहा।

“तुम ट्रेन के डब्‍बे में चढ़ जाते, तो मैं घबराने लगती। ऐ, चलती ट्रेन से मत उतरो, मैं डरकर चिल्‍लाने लगती तो तुम हंसते हुए पीछे से आकर चौंका देते। तुम्‍हारी बातों से मैं अक्‍सर मुंह फुला लेती। तुम किसी न किसी बात पर हंसा देते। यदि मैं रूठी रही तो तुम घर आ धमकते, “मिनी कहां है काकी? जरूरी बात करनी है।”  

“होगी ऊपर, किताबों के ढेर में।” जवाब छोटी बहन देती, तो मैं धड़धड़ाते हुए सीधे छत पर जाने के‍ लिए ऊपर वाले कमरे की तरफ मुड़ता कि तुम्‍हारे भाई चिल्‍लाने लगते, “क्‍यों रे, तू पढ़ने में तो ठीक है। काहे मिनी का टाइम खोटी करता है? पढ़ रही है वो।” सुनकर मैं सिटपिटा जाता और झूठमूठ बोल देता, “उसे आज का होमवर्क बताना था।”

“ठीक है, अब तू जा यहां से।” भाई आंखें तरेरते हुए डपट देते, मैं भारी मन से सीढ़ियां उतरते हुए लौटता। बालकनी से हाथ हिलाती हुई तुम दिख जातीं, दुपट्टे से आंखें पोंछती। बड़ी सेंसिटिव है ये मिनी... सोचते हुए मैं चिंता करने लगता। इसकी इतनी केयर कौन करेगा जितनी मैं करता हूं। इसे अकेले यहां छोड़कर कैसे बाहर जा पाऊंगा, सोचते हुए परेशान हो जाता। पढ़ने में मन लगाने की कोशिश करता। मम्‍मी मुझे कमरे में पढ़ते देखकर, “समय से सो जाना राजन”, कहकर वापस चली जातीं। मैं कंबल में सिर छिपाकर सोने की कोशिश करता लेकिन पलकों के अंदर पसरे अंधेरे में तुम्हारी बातों और रोज की घटनाओं की जुगाली चलती रहती।

धीरे-धीरे 12वीं पास करते ही मैं आगरा से दिल्‍ली भेज दिया गया। एक झटके में ऐसा निर्णय सुना दिया गया, जबकि मैं इंजीनियरिंग न करके आईएएस बनना चाहता था। वह आखिरी दिन था, जब मुझे शहर छोड़ना था। बहुत बार तुम्हारे घर के घर चक्‍कर काट आया मगर तुम नहीं मिलीं, बहुत परेशान रहा। आखिर किससे कहता अपनी तकलीफ?

आखिरकार दिल्ली जाने के लिए मैं स्‍टेशन आ गया। टिकट खिड़की पर खड़ी दिख गईं थीं तुम।  

मैंने चौंककर पूछा था, “तुम यहां? इतनी रात को, नौ बज चुके हैं?”

“तो जा रहे हो, ऐसे अचानक बिना बताए?” रूंधे कंठ से शिकायती लहजे में बोली थी तुम।

“तुम्‍हारे घर दो-तीन बार गया था। कहां-कहां नहीं तलाशा तुम्‍हें मगर तुम तो...।”  शब्‍द, निरर्थक लगने लगे। गीली आंखों को पोंछते हुए किसी तरह इतना बोल पाया, “मिनी, बस पढ़ती रहना।”

पूरी ताकत से कहे गए शब्‍द ट्रेन की गड़गड़ाहट में बिखर गए, बिखरती स्‍याही की तरह जिसके धब्‍बे मिनी के दिल में जज्‍ब होते गए। “पढ़ती रहना” सुनकर जोर से रो पड़ी थी मैं। तुम्हारे बिना कैसे जी पाऊंगी मैं, इस दुनिया में कौन समझेगा मुझे? मेरे जीवन के हाजिरी रजिस्‍टर के हर पन्‍ने पर दर्ज थे तुम्हारे हस्‍ताक्षर। सुबह उठने से लेकर स्कूल जाने, लौटकर पढ़ने या शाम को खेलने, दोस्‍तों के जन्‍मदिन पर संग साथ जाने में तुम्हारे साथ ही तो जाती थी मैं। देर रात छत पर कक्‍का से कहानी सुनने से लेकर सोने तक, कहां नहीं थे तुम?” सोच-सोचकर मिनी के आंसू रूकते ही नहीं थे कि ट्रेन सरकने लगी। राजन खिड़की से हाथ हिलाता रहा। मिनी आंसू पोंछती फिर अगले ही पल वेग से आंसू उमगने लगते। मन करता बुक्‍का फाड़कर, चीखकर रोक ले मगर आवाज गले में ही घुटकर रह गई। किसी तरह चप्‍पल घसीटते हुए घर लौटी। महीनों चुपचाप रहकर सिर्फ और सिर्फ पढ़ती रही। मन बदलने के लिए यहां वहां उन सब जगहों पर जाती जहां राजन के साथ वक्‍त गुजारती थी। वॉलीबॉल खेलना राजन ने ही सिखाया था। क्‍या-क्‍या याद करे वह और क्‍या भूल जाए? कुछ भी तो नहीं भूल सकती क्‍योंकि कुछ भी तो यादों से निकलता नहीं। स्‍टडी को महफूज रखना, राजन की कही यह बात दोहराती, इसी बात को ओढ़ती-बिछाती और चौबीस घंटों की रामधुनी बनकर सुमिरती रहती। कभी कंठी बनाकर पहन लेती तो कभी किताबें पढ़ते हुए राजन को महसूस करती। रात-दिन का साथ और इतनी लंबी यात्रा, पल भर के लिए भी वह नहीं बिसरा सकती अपने मनमीत को। कहता राजन था लेकिन महसूस करती थी मिनी। इस कदर एक-दूसरे से कम बोले या बिना बोले ही समझ लेते थे वे। हम एक ही समय में दो तरह का अलग-अलग जीवन जी रहे होते हैं और हमें इसका अहसास तक नहीं होता। परत-दर-परत कई रिश्‍तों की महीन परतें हमारे लहू का शोर बनती जाती हैं।

वह सोचते हुए बोलने लगा, “मिनी, मैं जब भी अंधेरों में घिरता, ऐसे में हमेशा तुम्हारी नाजुक हथेली की याद आ जाती। किस कदर मैंने सालों साल अपने करिअर को बनाने में खपा दिए मगर हासिल क्‍या रहा? सिर छिपाने को घर, घूमने-फिरने को गाड़ी और दुनियादारी की वही रस्‍में निभाते-निभाते उम्र का पहिया खरामा खरामा खिसकता रहा। सब कुछ मेरी जद से बाहर फिंकता जा रहा था, पत्‍नी, बेटा, सबकी अपनी पसंद-नापसंद, उनकी अपनी जिंदगी को नापने के वही परंपरागत पैमाने या उनकी नित नई उगती महत्‍वाकांक्षाएं। किसी का कुछ भी नहीं छूटता, बस हमारे भीतर का सब कुछ रीतता-छूटता जाता है। हम हांफने लगते हैं, चलते-चलते और कोई हमें समझने की जेहमत नहीं उठाता, न ही कोई कंपकंपाते लम्‍हों में हमारा हाथ थामने आगे आता है। पहले मैं कुछ और सोचता था, करिअर की विशाल दुनिया मुझे सम्‍मोहित करती। बड़ा बनने का जुनून मेरे सिर पर सवार रहता। तुम्‍हें छोड़ना बहुत आसान तो नहीं था पर विवशता थी मेरी। पहले ये सब हासिल कर लूं, तब तुमसे मुखातिब होऊंगा मगर यही चूक थी मेरी। हम सब कुछ दोबारा हासिल कर सकते हैं मगर किशोरवय में पनपे उस अहसास को दोबारा फिर कभी महसूस नहीं कर पाते, उसके लिए तो फिर से नया जन्‍म लेना पड़ेगा।” लंबे अहसास साझा करके एक लंबी सांस खींची राजन ने।

“हां, राजन, सारे लड़के एक ही तरह से सोचते कि सबसे ज्‍यादा जरूरी है करिअर। फिलहाल आज के बड़े सपने के आगे फीका है वह अनमोल अहसास, सोचकर तुमने उस दौर की कीमत को कमतर आंका। हमारे साथ भी यही हुआ। तुम्‍हारी प्राथ‍मिकता में लड़की सबसे अंतिम पंक्त्‍िा में, जबकि करिअर पूरे जीवन का सच नहीं हो सकता। तब भी और आज भी।” अनुभव में मंजे दार्शनिक की तरह बोलती रही वह।

“सही कहा। दूर से दिखती चीजें कितनी सम्‍मोहक, कितनी आकर्षक लगती थीं जैसे किसी तिलिस्‍मी गुफा में घुसते जा रहे हैं पर उससे बाहर निकलने की तरकीबें नहीं पता थीं। उस सीधे दरवाजे से हम एक बड़ी दुनिया में चहलकदमी करना सीख लेते हैं, मगर बाद में पता चलता है कि वह तो केवल हमारा भ्रम था। सालों बाद आज लगता ही नहीं कि हमने उस शानदार समय को जीया था। शायद वे दोनों हम नहीं, कोई और रहे होंगे। वैसे भी मैंने कभी अपने प्‍यार को जतलाया भी, तो नहीं तुमसे। चाहकर भी नहीं खोल पाए दिल के राज, संकोचवश।”

“जबकि मैं अक्‍सर सोचती थी‍ कि जाने के पहले तुम जरूर कहोगे मगर...”  

“मिनी, मुझे हमेशा लगता रहा कि इस रिश्‍ते को आगे खींचने के लिए या जाति की बेड़ियां काटने के लिए मुझे ऊंचा बनना होगा। तुम्‍हारे घर वाले कितना भरोसा करते थे मुझ पर। ऐसे में ऐसी बात अचानक से कहने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाया। मम्मी से कुछ कहने की सोचता, तो डर जाता कि वे क्‍या सोचेंगी कि इसीलिए ये लड़का मिनी के आगे-पीछे घूमता था। आने वाले कल के बारे में सोचकर घबराहट बढ़ने लगती। तब सच में कितना तूफान मच जाता?”  

“मगर तुम तो कन्‍नी काटकर पहले ही चल दिए, बिना मुझसे मशवरा किए?”

“नहीं मिनी, ऐसी बात नहीं। तुम्‍हें हर रोज याद करता। शाम होते ही छत पर बैठकर रेडियो पर गाने सुनना, ताश खेलने में तुम्हें जिताना और फिर बारी-बारी से छत को धोते हुए बिस्‍तर बिछाने में मदद करना। मिनी, तुम अक्‍सर सपने में आकर मुझे परेशान करतीं पर यह सोचकर खुद को समझा लेता कि पहले शिखर पर पहुंचूं तो सही, बाद में तुम्‍हें बुलवा लूंगा, मना लूंगा सबको मगर वक्‍त इतनी मोहलत कहां देता है? समय तेजी से निकलता गया, जिसने हमें दो अलग-अलग जिंदगियों से बांध दिया था।”

“तुमने कहा था इंतजार के लिए? एक बार कहा तो होता, फिर देखते, मैं तुम्हारे करिअर के लिए बाधक तो कतई नहीं बनती। यकीन तो किया होता मेरा। राजन, कितने दिनों तुम्‍हारी चिट्ठी का इंतजार किया। मैंने भी लिखा था पत्र मगर तुमने तो बस एक लाइन में जवाब दे दिया, ठीक हूं, मिनी, अपनी पढ़ाई का खयाल रखना। सबको सादर प्रणाम। ऐसी चिट्ठी का बाट जोहती थी मैं?” मिनी की आवाज में अनायास तल्‍खी उमड़ आई।

“दिल पर पत्‍थर रखकर जवाब दिया था। डरता था, किसी के हाथों चिट्ठी पड़ गई तो तुम पर कितनी मुसीबत आ जाएगी। बहुत सारा अनचाहा घट गया तो? इसका डर सताता था। कह सकती हो, कायर हूं। तब भी और आज भी कहां कुछ कह पा रहा हूं। मिनी, जिंदगी, तो तेज रफ्तार ट्रेन की तरह निकल गई, देखते-देखते सर्र से आंखों से ओझल भी हो गई। जिसे हमें उसी समय थाम लेना था। हम उसे ताकते रह गए और कारवां निकल गया। अब न तो वे धड़कनें बचीं, न वैसा जोशीला अहसास जिंदा बच पाया, न आवेगों की उठापटक।” उस आवाज में गहरा अफसोस झलकने लगा।

“वंस यू मिस्‍ड द ट्रेन, यू मिस्‍ड द लाइफ। राजन, तुम्‍हारे दब्‍बूपन को जानती थी। मैंने इशारों में तुम्‍हें जताया तो था, “यहां अकेले कैसे रहूंगी तुम्‍हारे बगैर तब तुमने जाते-जाते इतना ही कहा था, पढ़ना। तुम्‍हारा कहा मानकर खूब पढ़-लिखकर कॉलेज की नौकरी कर ली और जिंदगी के दर्द भरे गीत लिखने लगी। जिंदगी भर नौकरी की, घर गृहस्‍थी में वह सब कुछ किया मगर हर जगह तुम्‍हारी कसक, तुम्‍हारी तलब, तुम्‍हारे न होने का अहसास कचोटता रहा। तलाशती रहीं आंखें तुम्‍हें हर तरफ मगर तुम्‍हें तो कहीं होना ही नही था।”

“ऐ मिनी, रो मत। अब कुछ नहीं हो सकता। हम शिक्षा, नौकरी या दुनियादारी के दुष्‍चक्र में फंसे सब कुछ पाकर भी कुछ न पाने के अहसास को सालों साल जीते रहे। कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता अब। न मन को, न इस तन को। आज भी तुमसे बातें कर लूं तो दिन बन जाता है, वरना वही अकेलापन, वही सूखापन, वही खाली खोखले दिन रात।”

“सही कह रहे हो। हमेशा यही लगता जैसे इतना सब पाकर भी सब कुछ आधा अधूरा सा। कुछ बेशकीमती खोने का अहसास सालता रहता है। तुम्‍हारी तलब से बेचैन मन उचाट हो जाता, तो मनोरोगी जैसी हालत हो जाती कभी कभार।” कहते हुए अजीब सा दर्द उभर आया।

“मिनी, हम वक्‍त को फिजिक्‍स की तरह या गणित की तरह तौलते रहते हैं जबकि जिंदगी में सबसे बड़ी जरूरत है केमिस्‍ट्री की। वक्‍त कुछ और चाहता है हमसे, हम वक्‍त को समय पर जवाब न दें, तो आगे चलकर कुतरने लगता हमारे वजूद को। पूरी जिंदगी यूं ही बिताते जाते हैं कि अब आगे इससे बेहतर पल आएंगे मगर मुट्ठी में आई, राई की तरह सर्र से बाहर फिंक जाते हैं अहसास। अहसासों की कीमत समझने की फुर्सत है किसी के पास? मन में तब भी यही खयाल आता कि चलो, कोई बात नहीं। फिर कभी जी लेंगे इस दुनिया को मगर हमारे चलाने से कहां चलता है जिंदगी का गणित?”

“ऐसा फिर कर लेंगे, फिर कभी देखा जाएगा चक्‍कर में काफी कुछ छूटता गया। फिर कभी कुछ दोबारा वैसे नहीं घट पाता जैसा हमने सोचा होता है। जो जब जैसा छूट गया सो छूट गया हमेशा के लिए या अनायास हमने उसे छूट जाने दिया। समंदर की वह लहर तो दोबारा आने से रही, नहीं क्‍या?” एक लंबी सांस लेकर राजन चुप हो गया।

मिनी के कंधे पर राजन का हाथ था, “कहीं न कहीं आज भी यही गिल्‍ट सताता है, तुम्‍हारा गुनाहगार हूं। हो सके तो माफ कर देना।”

“अरे, इसमें माफी जैसी क्‍या बात है? तुम्‍हें दोष देने से क्या हमारा गुजरा वक्‍त लौट सकता है कभी? हम एक-दूसरे को दोषी ठहराकर फिर उसी सरगम को, तो नहीं छेड़ पाएंगे। हमारा सवाल तो अभी भी औंधे मुंह लटका है, आखिर क्‍यों किया तुमने ऐसा? एक बार मुझ पर भरोसा करके तो देखा होता कि मेरा इंतजार करना। मैं तो खुद तुम्‍हारे करिअर की खातिर खुद को लुटा देती मगर अफसोस कि तुम्‍हारे अंदर वही पूर्वाग्रह होगा कि ये लड़की, बेचारी मेरे पीछे पीछे कहां तक कैसे चल पाएगी? भरोसा ही नहीं रहा होगा।”

“न,‍ मिनी, बात तुम्‍हारे भरोसे की तो कतई नहीं। मम्मी के साथ बाकी लोगों की नजरों में तुम्‍हें गिरते हुए नहीं देखना चाहता था। यह सब मैं कैसे बर्दाश्‍त करता कि कोई तुम पर इल्‍जाम लगाए कि मैंने तुम्‍हें बरगलाया जबकि आज की जेनरेशन अपने लिए कोई कसक, कोई तलब या कोई खलिश नहीं छोड़ना चाहती। वे तो अपने हिस्‍से का हर सुख-दुख जीने में यकीन करते हैं। हम इस उतरती हुई उम्र में भी इतना बोझ लेकर चलने की आदत के मारे...”

“आज भी हम परंपरागत पैटर्न पर ही सोचे जा रहे हैं।” मिनी ने बीच में बात काटते हुए अपनी बात जोड़ने लगी, “वही माइंडसेट, वही परिवार-समाज के दायरे, वही परंपरागत बेड़ियां, जिसने निश्‍छल प्रेम करना तो कतई नहीं सिखाया गया बल्कि सुरक्षा के नाम पर औरत को सामानों की तरह घर में लाकर बंद कर दिया। तभी से बेकद्री भी शुरू हो गई। जैसे ही उस सुनहरे अहसास को कठघरे में कैद कर दोगे, तभी से प्रेम उड़नछू हो जाएगा।” भावावेश में वह बोलती जा रही थी।

“सही कहा मिनी। ये चूक तो हमसे हुई है। उड़ान भरने की तैयारियों में ही सारी जिंदगी निकाल दी और जब उड़ान भरने का मौका मिला, तो जिंदगी किसी टूटे फूटे जहाज के मलबे की शक्‍ल में नजर आई जिससे अब टेक ऑफ करना मुमकिन ही नहीं। मिनी, अब इसकी भरपाई असंभव है। समय को लौटाकर तो नहीं लाया जा सकता। जब से तुम छूट गई हो, कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता।”

“हां राजन, हम जो करना चाहते, वहीं इस या उस वजह से नहीं कर पाते, बाकी दुनियादारी निभाते रहते इससे क्‍या हासिल रहा? हम आइने के सामने खड़े होकर एनालाइज करें कि हमें जिंदगी से क्‍या चाहिए था और अब क्‍या करके सच्‍ची खुशी मिलेगी? हम हकीकत को बखूबी जानते हुए भी अगर मगर करते रहे। वीर भोग्या वसुंधरा, कहावत यूं ही नहीं बनी होगी? नाउ नो मोर रिप्‍ले इज पॉसीबल।” एक एक शब्‍द को चुनते हुए बोलती जा रही थी वह।

“हां, कुछ भी दोबारा नहीं मिलता, किसी भी कीमत पर। तो क्‍या यह मान लिया जाए कि सुविधा, सुकून या समय के घेरे में कैद हमारा जीवन, सीढ़ी दर सीढ़ी शिखर पर न चढ़ पाने की दास्‍तां भर है। कोई भी रिप्‍ले या वापसी अब उतनी खुशी नहीं दे सकती।” राजन ने हकीकत की तस्‍वीरें दिखा दी।  

“अजीब सी पहेली है यह जिंदगी, कि जब समय, सुकून यानी सब कुछ है, तो वैसा जोशीला अहसास ही हवा हवाई हो गया। वापस नहीं लाई जा सकतीं वे भावनाएं, उफनता आवेग और धड़धड़ाते दिलों की आकुल पुकारें। वैसी तलब, वे अंधड़ भरे जज्‍बात फिर नहीं आ पाते।”

क्रमश: शब्‍द मौन होते गए। दोनों अस्‍ताचल की तरफ जाते सूरज से पीले पड़ते आसमान की तरफ देखते रहे। अब वे क्षितिज की तरफ देखने लगे जहां सिर्फ धुंध ही धुंध थी। इस खूबसूरत अहसास का कोई आसमां नहीं, कोई क्षितिज नहीं, कोई किनारा भी नहीं। प्रेम की तेज फेनिल लहरें लौटकर फिर नहीं आतीं। अनायास मिनी ने दोनों हथेलियों के बीच गर्म शॉल लपेट लिया। निशब्‍द युगल एक-दूसरे की हथेलियों में गर्माहट तलाशने लगे मगर अफसोस कि वहां गर्माहट की जगह ठिठुरन ने ले ली। हवा अभी भी मंथर गति से बह रही थी। 

रजनी गुप्त

2 अप्रैल 1963, चिरगांव, झांसी, उत्तर प्रदेश में जन्म। कहीं कुछ और, किशोरी का आसमां, एक न एक दिन, कुल जमा बीस, ये आम रास्ता  नहीं, कितने कठघरे उपन्यास। पं. प्रतापनारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्य सम्मान, सर्जना पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, अमृतलाल नागर स्मृति पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान)

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