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अग्निपथ के ऐलान के बाद युवा नाराजगी आखिर क्यों भड़की

“अग्निपथ के ऐलान के बाद युवा नाराजगी आखिर क्यों भड़की, रोजगार के अवसरों की तलाश में परेशान युवाओं को...
अग्निपथ के ऐलान के बाद युवा नाराजगी आखिर क्यों भड़की

“अग्निपथ के ऐलान के बाद युवा नाराजगी आखिर क्यों भड़की, रोजगार के अवसरों की तलाश में परेशान युवाओं को शायद सेना की भर्ती की आखिरी आस भी टूटी”

कवि हरिवंश राय बच्चन ने भी शायद ही यह सोचा होगा कि उनकी एक कविता के कुछ शब्द वाकई ज्वाला धधकाने लगेंगे। राम जाने किन्हें सेना में रुकी भर्ती को शुरू करने की योजना को 'अग्निपथ' और उसके तहत भर्ती जवानों को 'अग्निवीर' कहने का ख्याल आया होगा। जाहिर है, यह मार्केटिंग का फंडा ज्यादा लगता है, क्योंकि अब तक के जवान जान की बाजी न लगाते हों, लड़ाई में आग से न खेलते होंगे, शायद ही कोई ऐसा सोच सकता है। बेशक, यह तो शायद ही सोचा गया होगा कि नया नामकरण वाकई देश भर में गुस्से के शोलों को हवा दे देगा। दो साल और पिछली बार भर्ती प्रक्रिया के लंबित नतीजों को जोड़ लें तो तीन से ज्यादा साल से रुकी भर्ती प्रक्रिया का ऐलान आपदा में अवसर के अंदाज में किया गया तो जैसे इन तमाम वर्षों में भर्ती की तैयारी कर रहे नौजवानों के धैर्य का बांध टूट गया। 19 जून को साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में एडिशनल सेक्रेटरी (सैन्य मामलों के विभाग) लेफ्टिनेंट जनरल अनिल पुरी ने यही बताया कि लंबे समय से लंबित सुधार-प्रक्रिया के लिए कोरोना ने मौका मुहैया करा दिया। (याद करें तो केंद्र की ओर से तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के लिए भी माकूल वक्त की दलील दी गई थी, जिन्हें साल भर चले किसान आंदोलन के बाद वापस ले लिया गया)। हालांकि पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश ने अपने ताजा लेख में लिखा, “देश की उत्तरी और पश्चिमी सीमा पर खतरनाक सुरक्षा हालात के साथ-साथ जारी घरेलू तनावों के मद्देनजर सशस्‍त्र बलों को बुनियादी और गैर-आजमाई नई भर्ती प्रक्रिया के झंझावात में झोंकने का यह सही वक्त नहीं है, जो पहले ही जवानों की कमी से जूझ रहे हैं।” 

तीनों सेना प्रमुखों के साथ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह

यह माकूल वक्त नहीं हो सकता है, ऐसी राय कुछ और पूर्व सैन्य अधिकारियों ने भी जाहिर की है। एडमिरल अरुण प्रकाश का कहना है, “आदर्श स्थिति तो यह होती कि रेगुलर या टेरिटोरियल आर्मी की कुछ यूनिट को ऐसी योजना के परीक्षण के लिए चुना जाता और उसके नतीजों का आकलन किया जाता।” यानी पहले इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर अमल में लाया जाता। विडंबना यह भी देखिए कि लेफ्टिनेंट पुरी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में उप-थल सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बी.एस. राजू ने एक सवाल के जवाब में कहा, यह पायलट प्रोजेक्ट ही तो है। लेकिन सवाल है कि क्या पायलट प्रोजेक्ट इतना व्यापक और समूची पुरानी व्यवस्‍था को एकबारगी बदल डालने वाले होते हैं क्या?

यकीनन माकूल वक्त के आकलन में मत-भिन्नता हो सकती है, लेकिन किसी भी बड़े बदलाव के लिए देश में हालात को भांपने में गफलत कैसे की जा सकती है। यह भी सही है कि यह दायित्व निर्वाचित सरकार का ही होना चाहिए और इस फैसले पर भी सरकार ही पहुंची होगी, जिसे देश में युवा रोष भड़कने के बाद दसियों ऐलान करने पड़े, जिसके इन पंक्तियों को लिखे जाने तक के ब्यौरे साथ की रिपोर्ट में हैं। ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी और जीएसटी के ऐलान के बाद सैकड़ों तब्दीलियां करनी पड़ीं। आखिर सरकारों और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों का यही तो काम होना चाहिए। यह अलग बात है कि अपने देश का संविधान ऐसे आमूलचूल बदलावों के लिए कार्यपालिका को अधिकार देता है, वरना दुनिया के कई देशों में ऐसे मौलिक बदलावों और संधियों के लिए रायशुमारी की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। हमारे यहां दलील दे दी जाती है कि लंबे समय से इस पर विचार चल रहा था और यही बेहतरी की राह है। मौजूदा मामले में भी, बकौल लेफ्टिनेंट जनरल पुरी, 1989 से ही विचार-विमर्श जारी था और करगिल युद्घ समीक्षा समिति, अरुण सिंह समिति जैसी कई समितियां सेना में आमूलचूल सुधारों की सिफारिशें कर चुकी हैं।

राजद नेता तेजस्वी यादव कर चुके हैं अग्निपथ योजना वापस लेने की मांग, नीतीश भी इस योजना के खिलाफ

राजद नेता तेजस्वी यादव कर चुके हैं अग्निपथ योजना वापस लेने की मांग, नीतीश भी इस योजना के खिलाफ

दलील यह है और जो बहुत हद तक सही भी हो सकती है कि सेना को चुस्त-दुरुस्त बनाया जाना चाहिए, ताकि आधुनिक लड़ाइयों के लिए वह तैयार हो सके। आधुनिक युद्घ टेक्नोलॉजी के सहारे लड़े जाते हैं, जैसा कि पहले अजरबैजान-अर्मीनिया और हाल में रूस-यूक्रेन युद्घ में देखा गया। अब ड्रोन वगैरह का इस्तेमाल ज्यादा होता है, इसलिए नई टेक्नोलॉजी में निष्‍णात जवानों की दरकार है। इस मकसद से अमेरिका, चीन और कई देशों ने अपना फौज का आकार घटाया है और टेक्नोलॉजी पर जोर बढ़ा दिया है। चीन ने अपनी पीपुल्स आर्मी का आकार 40 लाख से घटाकर 20 लाख कर दिया है। लेकिन गौरतलब यह भी है कि किस देश में इन बदलावों पर ऐसा हंगामा खड़ा हुआ या किस देश ने इसके लिए आपदा को अवसर बनाया।

असल में इस योजना की एक बड़ी वजह पेंशन का बोझ कम करना भी बताया जाता है। फिलहाल रक्षा बजट का 25 फीसदी हिस्सा पेंशन में चला जाता है। अग्निपथ योजना सैनिकों की संख्या से ज्यादा पेंशन का बोझ बड़े पैमाने पर घटाएगी। रक्षा मंत्रालय पर वित्त मंत्रालय लगातार यह दबाव डालता रहा है। एक आकलन के मुताबिक, मौजूदा योजना अगर चल पड़ी तो पेंशन का बोझ घटकर 10 फीसदी तक आ जाएगा। इसी वजह से विरोधी और प्रदर्शनकारी इसे तोड़ भर्ती या संविदा भर्ती कह रहे हैं। सेना के कई पूर्व अधिकारी इससे सेना का मनोबल टूटने की भी चेतावनी देते हैं और यह भी कह रहे हैं कि इसे रोजगार मुहैया कराने का बहाना नहीं बनाया जा सकता।

दरअसल, हंगामे की एक बड़ी वजह बेरोजगारी का पहाड़, रोजगारों का तबाह हो जाना और आर्थिक बदहाली है, जो कोरोना महामारी के पहले ही घटाटोप अंधेरे के लिए छाने लगी थी। 2018-19 और 2019-20 की लगातार पांच तिमाहियों में जीडीपी गोता लगाती जा रही थी। फिर कोविड आया तो वह दुनिया में सबसे निचले स्तर शून्य से 23 फीसदी नीचे लुढ़क गई। बेरोजगारी की दर 45 साल में सबसे ऊंची पहुंच गई। महंगाई ऐसे ही लोगों का जीना दूभर कर रही है। ऐसे में यह महज संयोग नहीं हो सकता कि 14 जून को अग्निपथ योजना के ऐलान के दिन ही प्रधानमंत्री कार्यालय से यह भी घोषणा हुई कि अगले 18 महीनों में 10 लाख सरकारी भर्तियां की जाएंगी। लेकिन लोगों को शायद जैसे अग्निपथ योजना पर संदेह है, वैसे ही सरकार की इस योजना पर भी शक-शुबहे हैं। बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्‍त्री तथा लॉकडाउन ऑर इकोनॉमिक डिस्ट्रक्‍शन के लेखक मदन सबनवीश ने एक लेख में लिखा, “कुल बेरोजगारी की तस्वीर आज बेहद पेचीदी दिखती है। सरकार का ऐलान स्वागतयोग्य है कि डेढ़ साल में 10 लाख भर्तियां करेगी लेकिन यह प्रशासनिक और वित्तीय दोनों ही मामलों में दुस्साहसिक और बेहद चुनौतीपूर्ण लगता है।”

संपूर्ण वापसी की मांगः अग्निपथ पर राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपता कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल

संपूर्ण वापसी की मांगः अग्निपथ पर राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपता कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल

मौजूदा हंगामे की भौगोलिक स्थितियों को देखें तो ज्यादातर प्रदर्शन, आगजनी और हिंसा बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्‍थान, झारखंड और तेलंगाना के कुछ इलाकों में है, जहां बेरोजगारी की हालत बेहद गंभीर है। इन इलाकों के छोटे उद्योग-धंधे नोटबंदी, जीएसटी और कोरोना के झटकों से पिछले कुछ वर्षों में तबाह हो चुके हैं। कृषि की हालत भी लगातार बिगड़ती जा रही है। यहां के लड़के जिन शहरों और देश के अन्य हिस्सों में रोजगार और नौकरियों के लिए जाते रहे हैं, वहां भी अर्थव्यवस्‍था की खस्ताहाली से अवसर काफी घट गए हैं। ऐसे में, यहां के नौजवानों के लिए सिर्फ सरकारी, खासकर सेना और पुलिस की भर्तियों का ही आसरा रहता है। याद करें, इस साल के शुरू में रेलवे में भर्तियों को लेकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में युवा आक्रोश की हिंसा भड़क उठी थी। यहां के नौजवान वर्षों से इसकी तैयारी करते हैं। कुछ तो सेना में भर्ती की प्रक्रिया कोरोना के पहले के वर्षों में ही पूरी कर चुके थे, कुछ को बस आखिरी नतीजे और चिट्ठियों का इंतजार था, जो कोरोना के चक्कर में रुका हुआ था। ऐसे में अग्निपथ के ऐलान से उनकी उम्मीदों पर बिजली-सी गिर गई।

बिजली-सी गिरने की वजह यह भी है कि हर साल सेना में 50,000 भर्तियों को घटाकर नई योजना में 40,000 कर दिया गया है और वह भी चार साल के लिए भर्ती उन्हें अपने पूरे जीवन को अंधियारे में ढकेलने जैसा लगा। सरकार कुछ राहत ऐलान करके यह दंश कम करना चाहती है (आगे की रिपोर्ट में ब्यौरे देखें)। लेकिन राहत की योजनाओं पर भरोसा इसलिए भी मुश्किल हो रहा है कि न कॉरपोरेट में नौकरियों की गुंजाइश बन रही है, न पुलिस-अर्द्घसैनिक बलों में भर्तियों के आश्वासन पर भरोसा करना आसान है। हर साल 50,000 की तादाद में रिटायर होने वाले पूर्व सैनिकों को इन बलों में खास जगह दी जाती है। गृह मंत्रालय लगातार ऐसी पहल का विरोध करता रहा है, क्योंकि सैनिकों की ट्रेनिंग दुश्मन पर सीधे गोली चलाने की होती है, जबकि पुलिस की एकदम अलग किस्म की।

इन्हीं तमाम वजहों से विपक्षी पार्टियां भी अग्निपथ योजना की विरोध कर रही हैं। कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल ने इसकी संपूर्ण वापसी के लिए 20 जून को राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा। बिहार में राजद के साथ जदयू ने भी युवाओं को अपना समर्थन जाहिर किया। बिहार में तो नीतीश कुमार सरकार ने अपनी सहयोगी भाजपा की प्रदर्शनकारियों के साथ कड़ाई से पेश आने की मांग पर कोई हरकत नहीं दिखाई। वहां प्रदेश भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल और उप-मुख्यमंत्री रेणु देवी की संपत्तियां भी प्रदर्शनकारियों के निशाने पर आईं। कई जगह भाजपा कार्यालयों को भी युवा आक्रोश की आंच झेलनी पड़ी। इस वजह से केंद्र सरकार ने बिहार भाजपा के 13 नेताओं को केंद्रीय बलों को सुरक्षा भी मुहैया कराई।

नीतीश कुमार ने सहयोगी भाजपा की प्रदर्शनकारियों के साथ कड़ाई से पेश आने की मांग पर ध्यान नहीं दिया

नीतीश कुमार ने सहयोगी भाजपा की प्रदर्शनकारियों के साथ कड़ाई से पेश आने की मांग पर ध्यान नहीं दिया

बहरहाल, उत्तर प्रदेश में प्रदर्शनकारियों पर काबू पाने के लिए अलीगढ़ में तो पुलिस के साथ गश्त के लिए बुलडोजर को भी उतार दिया और संपत्तियों के नुकसान की भरपाई करवाने का आदेश जारी कर दिया है। लेकिन भाजपा की दुविधा यह भी है कि इन नौजवानों में उसके समर्थन आधार वाले युवा भी हैं। बेहतर यही है कि युवाओं की आशंकाएं दूर की जाएं और रोजगार की व्यवस्‍था के गंभीर उपाय किए जाएं। 

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