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चुनाव आयोग: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या बदलेगा

“चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए 2 मार्च, 2023 को आए कॉलेजियम की स्थापना संबंधी सुप्रीम कोर्ट के एक...
चुनाव आयोग: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या बदलेगा

“चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए 2 मार्च, 2023 को आए कॉलेजियम की स्थापना संबंधी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का स्वागत सत्ताधारी दल को छोड़कर बाकी सभी पक्षों ने किया है।”

देश के मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति की प्रक्रिया में सुधार का विषय कई दशकों से बहस तलब रहा है। अब जाकर यह मामला न्यायपालिका की चौखट पर पहुंचा था, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सरकार से कहा कि वह प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश को मिलाकर कॉलेजियम प्रणाली बनाने के संबंध में कानून बनाए।

ऐसा कहते हुए पीठ ने स्पष्ट किया कि अगर विपक्ष का कोई नेता न हो, तो लोकसभा में सबसे बड़ी संख्या वाले विपक्षी दल के नेता को कॉलेजियम में शामिल किया जाना चाहिए। ‘यह तब तक उपयुक्त रहेगा जब तक संसद द्वारा कानून नहीं बनाया जाता।’

संविधान का अनुच्छेद 324 (2) कहता है कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, जो इस संबंध में संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों के अधीन होगी। संविधान को सात दशक हो गए लेकिन आज तक ऐसा कोई कानून नहीं बना है।

पीठ ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि कई सरकारें सत्ता में आईं लेकिन उनमें से किसी ने भी चुनाव आयोग में नियुक्ति के लिए कानून या प्रक्रिया नहीं बनाई। पीठ ने इसे कानूनी ‘खामी’ करार देते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत कानून का निर्माण एक अपरिहार्य आवश्यकता है।

फैसलाः चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम बने

अदालत ने कहा कि आधुनिक चुनाव प्रक्रिया के तहत चुनाव आयोग की भूमिका ही ऐसी है कि महज चुनाव कार्यक्रम से छेड़छाड़ कर उसका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। नियुक्ति में केवल कार्यपालिका की भूमिका है, लिहाजा यह तय हो जाता है कि चुनाव आयोग कार्यपालिका की एक शाखा के रूप में पक्षपातपूर्ण निकाय बनकर रह जाएगा। अदालत ने खास तौर से नियुक्त करने वाले निकाय के प्रति आयोग की वफादारी और दोनों के बीच पारस्परिक लेन-देन की संभावना के खतरे को रेखांकित किया। 

चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र प्रणाली की मांग लगभग पचास साल पुरानी है। बार-बार इस संबंध में सिफारिश की गई है। उनमें 1975 की जस्टिस तारकुंडे समिति, मई 1990 में डॉ. दिनेश गोस्वामी समिति, जनवरी 2007 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग और मार्च 2015 में विधि आयोग की 255 पन्ने वाली रिपोर्ट को इनमें गिना जा सकता है।

चुनाव लोकतंत्र का आधार हैं और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता लोकतांत्रिक वैधता की धुरी है। यही कारण है कि संविधान में चुनाव आयोग को कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखना तय किया गया था। नियुक्तियों की प्रणाली में आया यह ताजा सुधार आश्वस्त करेगा कि आयोग की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और संस्थागत अखंडता बरकरार और संरक्षित रहे।

न्यायालय ने कड़े शब्दों में इस सुधार के औचित्य को स्थापित किया है। अदालत कहती है, “एक व्यक्ति जो एहसान तले दबा या खुद को नियोक्ता के प्रति ऋणी महसूस करता है, वह राष्ट्र को विफल करता है, इसलिए चुनाव संचालन में उसकी कोई जगह नहीं हो सकती है क्योंकि चुनाव लोकतंत्र की बुनियाद बनाते हैं।” अदालत ने कहा, “नियुक्ति को लेकर यह धारणा तक नहीं बनने देनी चाहिए कि इस लोकतंत्र के भाग्य और उसके तमाम वादों पर फैसला लेने वाला व्यक्ति किसी का यसमैन है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।”

मैं लंबे समय से यह कहता आ रहा हूं कि दुनिया में कहीं भी कार्यपालिका बिना व्यापक परामर्श प्रक्रिया के एकतरफा ढंग से चुनाव आयोग की नियुक्ति नहीं करती है। ज्यादातर देशों में न केवल विपक्ष से सलाह ली जाती है बल्कि संसद नियुक्ति को मंजूरी देती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कई देशों में अपनाई गई प्रणाली को ध्यान में रखा है। मैंने हमेशा कहा है, भले ही मुझे भी उसी ‘त्रुटिपूर्ण’ प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया गया था, लेकिन मैं खुद को अधिक सशक्त महसूस करता, अगर विपक्ष के नेता की भी मेरी नियुक्ति पर सहमति होती।

यह नई प्रक्रिया एक संस्था के बतौर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता की छवि को मजबूत करेगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनाव आयोग की तटस्थता को लेकर धारणा कायम होगी। हम जानते हैं कि संस्थानों का महज स्वायत्त होना जरूरी नहीं है, बल्कि विश्वास बनाने के लिए जनता की धारणा में ऐसा दिखना भी जरूरी है।

यह निर्णय लोकतंत्र और संस्थागत स्वायत्तता को स्वतंत्र रूप से अक्षुण्ण रखने के लिए जिम्मेदार संस्थाओं और वैधानिक निकायों के भीतर नियुक्ति की प्रक्रियाओं में एक हद तक एकरूपता लाने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए क्योंकि हम पहले से ही उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों, केंद्रीय सूचना आयोग और केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसे कई संवैधानिक प्राधिकरणों में अन्य नियुक्तियों के लिए भी कॉलेजियम प्रणाली का ही पालन करते हैं। यहां तक कि सीबीआइ जैसे सरकारी विभाग में भी निदेशक की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कॉलेजियम प्रणाली के तहत लाया गया था क्योंकि लोकतांत्रिक शासन में उसकी निर्णायक भूमिका होती है।

इस फैसले की कई लोग आलोचना भी कर रहे हैं। उनका मानना है कि यह फैसला शक्तियों के विभाजन की अवधारणा का उल्लंघन करता है। इसके उलट, दरअसल यही अवधारणा इस फैसले का समर्थन करती है, इस अर्थ में कि संविधान खुद कहता है कि चुनाव आयोग को सरकार से अलग रखा जाए। यही कारण है कि एक सेवारत आइएएस अधिकारी जिसे चुनाव आयोग में नियुक्त किया जाता है, उसे पहले अपनी नौकरी से इस्तीफा देना पड़ता है और 35 वर्षों की अपनी सरकारी सेवा से पूरी तरह अलग हो जाना होता है। एक बार नियुक्त होने के बाद उससे उम्मीद की जाती है कि वह सरकार से एक हाथ की दूरी बनाए रखेगा। सरकार भी उसे मनमनाने ढंग से हटा नहीं सकती, उसके लिए महाभियोग की प्रक्रिया ही इकलौता रास्ता है।

फैसले पर कुछ आलोचकों ने अदालत पर न्यायिक सक्रियता का आरोप लगाया है। यह कतई गलत बात है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने न तो इसका स्वत: संज्ञान लिया था, न कि किसी जनहित याचिका या अपील या फिर पोस्टकार्ड पर भेजे आवेदन पर यह फैसला सुनाया है। अदालत ने एक-दो नहीं, बल्कि कुल चार सिविल रिट याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया है। अपने पास परमादेश के न्यायिक उपचार (मैंडामस रिट) की शक्ति होने के बावजूद अदालत ने ऐसा करने से परहेज किया है।

अदालत के समक्ष चुनाव सुधार के कुछ अन्य प्रस्ताव भी थे। जैसे, देश की समेकित निधि के खर्च पर चुनाव आयोग के लिए एक स्थायी सचिवालय की स्थापना। इस पर निर्णय लेने के बजाय अदालत ने सिर्फ एक ‘अपील’ की कि सरकार/संसद को यह आवश्यक बदलाव लाने पर विचार करना चाहिए ताकि देश का चुनाव आयोग वास्तव में स्वतंत्र हो सके।

कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को अनसुलझा छोड़ दिया गया है, जैसे कि चुनाव आयुक्तों को हटाए जाने से सुरक्षा प्रदान करने वाली बात, जैसा कि हमारा संविधान मुख्य चुनाव आयुक्त को देता है। न्यायमूर्ति रस्तोगी ने अपने अलग फैसले में बेशक यह उल्लेख किया कि चुनाव आयुक्त को हटाए जाने का आधार मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाए जाने के आधार के समान ‘वांछित’ है। हालांकि हटाए जाने को संरक्षण प्रदान नहीं किया गया, जो आयुक्तों की स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य है। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि संविधान मुख्य चुनाव आयुक्त को उसके पद से हटाए जाने के खिलाफ जो संरक्षण देता है, वह किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि संस्था के लिए था। उस वक्त इस संस्था में एक ही व्यक्ति होता था पर 1991 के अधिनियम के बाद से इसमें तीन आयुक्त होते हैं।

अदालत ने राजनीति के आपराधीकरण, धनबल की भूमिका और मीडिया की संदिग्ध भूमिका जैसे अन्य मुद्दों पर भी चर्चा की, लेकिन इन पर कोई फैसला देने से परहेज किया। उम्मीद की जा सकती है कि यह फैसला शेष मुद्दों पर भी कानून बनाने का रास्ता खोल सकता है।

कई लोगों का तर्क है कि कॉलेजियम प्रणाली इस बात की गारंटी नहीं है कि कार्यालय के पदाधिकारी वास्तविक स्वायत्तता के साथ काम करेंगे। इसके पक्ष में एक उदाहरण सीबीआइ का है जिसके निदेशक की नियुक्ति कॉलेजियम करता है, फिर भी उसका कामकाज कार्यपालिका से स्वतंत्र नहीं है। निश्चित रूप से यह फैसला कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन यह निश्चित रूप से संस्थाओं की स्वतंत्रता से जुड़ी जनधारणा को प्रभावित करेगा, जो देश में लोकतंत्र और उस पर राष्ट्र की आस्था के लिहाज से महत्वपूर्ण है।

एस वाय कुरैशी

(लेखक भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं और ऐन अनडॉक्युमेंटेड वंडर- द मेकिंग ऑफ द ग्रेट इंडियन इलेक्शन’ नामक किताब के लेखक हैं)

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