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परीक्षा के बिना उत्तीर्ण होना और 'कोरोना डिग्री' मिलने से छात्रों का भविष्य संकट में होगा?

कोविड-19 महामारी और बीते मार्च महीने से लागू लॉकडाउन की वजह से देश के शैक्षणिक संस्थान पूरी तरह से बंद...
परीक्षा के बिना उत्तीर्ण होना और 'कोरोना डिग्री' मिलने से छात्रों का भविष्य संकट में होगा?

कोविड-19 महामारी और बीते मार्च महीने से लागू लॉकडाउन की वजह से देश के शैक्षणिक संस्थान पूरी तरह से बंद हैं। इसकी वजह से कई राज्यों ने शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में बदलाव और कॉलेज व यूनिवर्सिटिज की अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को रद्द कर आंतरिक मूल्यांकन और अन्य माध्यमों से मूल्यांकन के अलावा पिछले सेमेस्टर में प्राप्त अंकों के औसतन के आधार पर उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को डिग्री प्रदान करने का निर्णय लिया है। शायद ये मुश्किल समय में हताहत होने वाला निर्णय है? इस तरह से स्नातक की बिना परीक्षा कराए "कोरोना डिग्री" देना गंभीर रूप से नकारात्मक पक्ष में है। जैसे, कोविड के बाद स्नातक की डिग्री में इस बात का उल्लेख होगा कि उनके फाइनल ईयर के अंक औसत है। इसका मतलब यही हुआ कि उन्होंने फाइनल एग्जाम नहीं दिया। ऐसे परिदृश्य में इन छात्रों के भविष्य में नौकरी के लिए इंटरव्यू में इस तरह की डिग्री का कितना महत्व होगा? इसके अलावा, क्या इस तरह की डिग्री कानूनी रूप से मान्य है?

आउटलुक ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के उपाध्यक्ष भूषण पटवर्धन से इस सवाल को लेकर पूछा। उन्होंने कहा, “इस वक्त डिग्री देने के लिए यह सबसे आसान तरीका है। लेकिन, यह छात्रों के भविष्य को दांव पर लगा सकता है। मार्क-शीट और ट्रांसक्रीप्ट्स किए जाने हैं, जिसमें उल्लेख किया जाएगा कि औसतन अंक के आधार पर ये दिया गया है। इस तरह से छात्रों को दी जाने वाली डिग्रियां हमेशा उनके लिए 'कोरोना डिग्री' के रूप में जानी जाएंगी।''

अपनी तरफ से यूजीसी परीक्षा रद्द कर पिछले सेमेस्टर के औसत अंकों के आधार पर डिग्री देने के पक्ष में नहीं है। इसीलिए, यूजीसी ने 8 जुलाई को एक निर्देश जारी किया कि सभी विश्वविद्यालय सितंबर तक फाइनल ईयर की परीक्षा ऑफलाइन, ऑनलाइन या दोनों तरह से आयोजित कराएं। परीक्षा लिए बिना छात्रों को डिग्री देना उनके पेशेवर विश्वसनीयता को कम कर सकता है। भले ही ये छात्र उज्ज्वल हो। यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष वेद प्रकाश कहते हैं, "यदि डिग्री औसतन अंकों के आधार पर छात्रों को दिया जाता है तो जो छात्र फाइनल ईयर में अच्छे मार्क्स की उम्मीद से कड़ी मेहनत कर रहे हैं वो स्कोर और अच्छे ग्रेडिंग से वंचित हो जाएंगे।”

संस्थानों और अधिकारिओं को भी इसे कानूनी तौर पर देखने की जरूरत है। परीक्षा के बिना डिग्री देने का निर्णय कानूनी रूप से उचित है अथवा नहीं। वेद प्रकाश कहते है, क्या होगा यदि कोई छात्र कोर्ट में औसत-अंक के आधार पर मार्किंग के फार्मूले को चुनौती देता है और दावा करता है कि इस प्रक्रिया ने उसके भविष्य को नष्ट कर दिया है? क्या होगा यदि वो कहता है कि यदि अंतिम वर्ष की परीक्षाएं आयोजित की जातीं तो उसे बेहतर स्कोर और ग्रेड मिलते?

बीते शनिवार को दिल्ली सरकार ने राज्य की सभी परीक्षाओं को रद्द कर दिया जो यूजीसी के निर्देश के खिलाफ था। जिसके बाद बिना परीक्षा के डिग्री देने को लेकर एक बहस शुरू हो गई। डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने घोषणा करते हुए कहा कि दिल्ली सरकार के अधीन आने वाले सभी आठ विश्वविद्यालय की परीक्षाएं कोविड महामारी को देखते हुए आयोजित नहीं की जाएगी। विश्वविद्यालयों को निर्देशित किया गया है कि वे छात्रों को उनके पिछले प्रदर्शन या किसी अन्य मूल्यांकन के आधार पर अगले सेमेस्टर में प्रमोट करें और बिना लिखित परीक्षा के आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर फाइनल ईयर के छात्रों को डिग्री दें। 

केजरीवाल सरकार का यह फैसला दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) सहित अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर लागू नहीं होता है। इसका फैसला केंद्र करेगी। राज्य सरकार के अधिकार में आने वाले आठ विश्वविद्यालय में अंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली फार्मास्युटिकल साइंसेज एंड रिसर्च यूनिवर्सिटी, दिल्ली टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी, गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, इंदिरा गांधी दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी फॉर वुमन, इंद्रप्रस्थ इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और नेताजी सुभाष यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी हैं।

इससे पहले महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल ने कोरोना महामारी को देखते हुए राज्य के विश्वविद्यालयों की अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को रद्द करने का फैसला किया था। लेकिन, 8 जुलाई को यूजीसी द्वारा जारी आदेश के बाद इन राज्यों ने कहा है कि वो अपने फैसले की समीक्षा करेंगे। हालांकि, महाराष्ट्र सरकार अपने फैसले पर जोर देते हुए कह रही है कि इस स्थिति में परीक्षा आयोजित करना संभव नहीं है। इस बाबत पुणे के एक सेवानिवृत्त शिक्षक धनंजय कुलकर्णी ने बॉम्बे हाईकोर्ट में राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की।

कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले राज्यों में से दिल्ली एक है। इसके मद्देनजर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखते हुए अपील की। उन्होंने कहा कि छात्रों के हित को ध्यान में रखते हुए देश भर के विश्वविद्यालयों की परीक्षाएं रद्द कर दी जाएं। यूजीसी द्वारा जारी आदेश के विपरित दिल्ली सरकार के अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह हैं जो परीक्षा आयोजित कराने के पक्ष में नहीं हैं। ममता बनर्जी और अमरिंदर सिंह ने पीएम से यूजीसी के निर्देश की समीक्षा करने का आग्रह किया है।

वहीं, यूजीसी अपने रुख में बदलाव लाने के पक्ष में नहीं है। यूजीसी के वाइस चेयरमैन भूषण पटवर्धन कहते हैं, मैं इसके कानूनी पहलुओं में नहीं गया हूं, लेकिन राज्य सरकारें राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल परीक्षाओं को रद्द करने के लिए कर रहे हों तो उन्हें छात्रों के हित को ध्यान में रखते हुए फैसले लेने चाहिए। यूजीसी के खंड 6.1 (औपचारिक शिक्षा के माध्यम से प्रथम डिग्री के अनुदान के लिए निर्देश के न्यूनतम मानक) विनियम, 2003 में कहा गया है कि विश्वविद्यालय यूजीसी और अन्य निकायों द्वारा समय-समय पर संबंधित दिशानिर्देशों को जारी करता है। आगे पटवर्धन कहते हैं, "परीक्षाओं का संचालन यूजीसी अपने दिशा-निर्देशों के आधार पर करता है। छात्रों के लिए ये कोविड की स्थिति की भी निगरानी कर रहा है"

 

 

 

 

 

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