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अदालत भाई, जरा समझाओ भाई!

आंदोलनरत किसानों को जितना सरकार और सरकारी भोंपूओं ने नहीं फटकारा होगा, उसे भी बुरी फटकार देश की...
अदालत भाई, जरा समझाओ भाई!

आंदोलनरत किसानों को जितना सरकार और सरकारी भोंपूओं ने नहीं फटकारा होगा, उसे भी बुरी फटकार देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार को लगाई। उसे सुनते हुए सरकार को क्या लगा, पता नहीं लेकिन हमें बारहा मुंह छिपाना पड़ा. सरकार को भी कोई ऐसा कहता है क्या! केंद्र सरकार के दूसरे नंबर के सबसे बड़े कानूनी नुमाइंदे बेचारे तुषार मेहता के कान भी जब वैसी फटकार से बजने लगे तो वे फट पड़े, ‘अदालत सरकार के प्रति बेहद कठोर शब्दों का प्रयोग कर रही है।’ अदालत तो वैसे ही फटी पड़ी थी, तुषार बाबू की बात से उसका पारा आसमान जा पहुंचा, ‘जैसी सच्चाई सामने हमें दिखाई दे रही है, उसमें सरकार के बारे में इससे मासूम कोई धारणा बनाई ही नहीं जा सकती है।’ बेचारे तुषार बाबू ठगे से देखते-सुनते रह गए। जब दो नंबरी से बात नहीं बनी तो सबसे बड़े कानूनी नुमाइंदे के.के. वेणुगोपाल को सामने आना पड़ा, ‘आप सरकार के बनाए किसी कानून पर रोक कैसे लगा सकते हैं? आपको धैर्य रखना होगा क्योंकि किसान संगठनों से सरकार की बातचीत जारी है।’ इधर वेणुगोपाल की बात खत्म ही हुई थी कि अदालत वज्र की तरह बोली, ‘हमें धैर्य धरने का उपदेश मत दीजिए! आप कानून के अमल पर रोक नहीं लगाएंगे तो हम लगा देंगेज्ॅ हमने तो पहले ही सरकार से कहा था कि विवादास्पद कानूनों के अमल पर रोक लगाएं तो किसानों से बातचीत की प्रक्रिया हम आरंभ करें। आपने कोई जवाब ही नहीं दिया। हम रक्तपात की संभावना से चिंतित हैं और हम नहीं चाहते हैं कि हमारे दामन पर भी किसी के खून के छींटे पड़ें!’ इतना सब हुआ और फिर अचानक क्या हुआ कि यह अदालती तेवर खोखली दीवार की तरह भहरा गया? अदालत ने अब उन तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी, जिनकी वापसी की मांग किसान कर रहे हैं. लेकिन एक बात समझ में नहीं आई अदालत भाई कि इन कानूनों के अमल पर रोक की मांग किसकी थी? किसानों ने तो कभी ऐसा कहा-चाहा नहीं। वे तो तीनों कानूनों की वापसी का ही मंत्र जपते आए थे, वही मंत्र जपते हुए जमे हुए हैं। उन्होंने सरकार से भी यही कहा, ‘जब तक कानून वापस नहीं तब तक घर वापसी नहीं!’ सरकार ने भी कभी कहा नहीं कि वह कानूनों के अमल पर रोक लगाने के अदालत के सुझाव पर विचार भी कर रही है। अदालत का वह अपना ही अरण्य-रोदन था जिसे उसने फैसले की शक्ल दे दी। अदालत ने ऐसा किस अधिकार के तहत किया? क्या कल को कोई अदालत कानून बनाने का विधायिका का अधिकार भी अपने हाथ में ले लेगी? अदालत को पूरा अधिकार है कि वह विधायिका द्वारा बनाए किसी भी कानून की संवैधानिक समीक्षा करे और यदि उसे लगे कि इस कानून को बनाने में सरकार ने संविधान की लक्ष्मण-रेखा लांघी है, तो वह उस कानून को निरस्त कर दे। यही तो करना था अदालत को। वह तीनों कानूनों की संवैधानिकता जांचती, सरकार को भी और किसानों को भी अपना पक्ष रखने को आमंत्रित करती, दूसरे जानकारों को भी सुनती और फिर अपना फैसला सुनाती। वह ऐसा करती तो वह सरकार को भी और किसानों को भी और देश को भी विश्वास में ले पाती। फिर उसका फैसला वैसा आधारहीन नहीं होता जैसा आज है। है कहीं कोई पेच कि सरकार किसानों का वैसा कल्याण करने पर अड़ी हुई है, जिसकी किसानों ने कभी मांग नहीं की; अदालत किसानों को वह देने पर आमादा है जिसकी चाहत किसानों ने नहीं की। ये दोनों ऐसी अहेतुक कृपा क्यों कर रहे हैं?   अदालत ने सरकार को फटकारते हुए कहा था कि वह एक समिति बनाएगी, जिसकी अध्यक्षता देश के एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश करेंगे। इसमें किसानों के प्रतिनिधि, सरकार के प्रतिनिधि और सार्वजनिक जीवन की कुछ ऐसी हस्तियां होंगी, जो खेती-किसानी की मान्य जानकार होंगी। ऐसी समिति की मांग किसकी थी? किसानों की नहीं थी, सरकार की भी नहीं थी। सरकार और किसानों की बीच जमी बर्फ को पिघलाने की यह अदालती युक्ति थी। यह काम कर सकती थी, यदि यह सच में वैसी बनती जैसी कही गई थी। लेकिन अदालत ने जो समिति घोषित की उसमें कुछ भी सार नहीं है। ऐसी समिति उसने घोषित ही क्यों की जिसका अध्यक्ष देश का कोई पूर्व प्रधान न्यायाधीश नहीं है, जिसमें न किसानों के प्रतिनिधि हैं, न सरकार के; सार्वजनिक जीवन का एक भी ऐसा नाम इस समिति में नहीं है, जिसे खेती-किसानी का मान्य जानकार माना जाता हो। मीलॉर्ड, अपने जो कहा था वह तो किया ही नहीं। यह सरकार भी ऐसा ही करती आई है. यह जो कहती है, वह करती नहीं है। आपको उसकी हवा कैसे लग गई? हम आपकी समिति के सदस्यों के बारे में कोई निजी टिप्पणी नहीं करेंगे सिवा इसके कि जो समिति आपने बनाई उससे ज्यादा खोखली और बेपेंदे की कोई समिति सोची भी नहीं जा सकती है। इसमें सारे वे ही लोग हैं जो बात का भात खाते रहे हैं और कागजी खेतों में फसलें उगाते और काटते रहे हैं। साहब, आपने अपनी चूक (या चाल?) छिपाने के लिए यह सफाई दी कि यह समिति आपने अपनी मदद के लिए बनाई है। यह आजादी तो आपको है ही कि आप अपने सलाहकार खुद चुनें (वैसे कहते हैं कि किसी भी आदमी की असली पहचान इससे होती है कि उसकी मित्र-मंडली किन लोगों की है! इसी तरह किसी की असली पहचान इससे भी होती है कि वह किनकी सलाह से चलता है)। आपने अपनी मदद के लिए जिन लोगों को चुना है, उनसे जरूर रात-दिन मदद लीजिए लेकिन आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं कि आपके मददगारों की मदद के लिए किसान भी आगे आएं, समाज भी और मीडिया भी आगे आए? किसान आंदोलन की ताकत, इस आंदोलन का विस्तार, इसका शांतिपूर्ण, कानूनसम्मत चरित्र और इसकी एकसूत्री मांग, सरकार का मनमाना रवैया- इन सबका जिस अदालत को थोड़ा भी इल्म होगा, क्या वह ऐसा समाधान पेश कर सकती है जिसके पास न आंख है, न कान और न चलने को पांव? अदालत भाई, आपने ही कहा है न कि किसानों के आंदोलन में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की झलक मिलती है। हम जानना चाहते हैं कि आपने रवैये में गांधी की कोई झलक क्यों नहीं मिल रही है? गांधी का यदि कोई सकारात्मक मतलब है तो अदालत उससे इतनी दूर क्यों नजर आता है? अदालत में एटर्नी जेनरल ने जब यह गंदी, बेबुनियाद बात कही कि इस आंदोलन में खालिस्तानी प्रवेश कर गए हैं, तब आपको गांधीजी की याद में इतना तो कहना ही था कि हमारी अदालत में ऐसे घटिया आरोपों के लिए जगह नहीं है। वेणुगोपालजी को याद होना चाहिए कि वे जिस सरकार की नुमाइंदगी करते हैं, उस सरकार में भ्रष्ट भी हैं, अपराधी भी. उनमें बहुमत सांप्रदायिक लोगों का है। दल-बदलू भी और निकम्मे, अयोग्य लोग भी हैं इसमें। हमने तो नहीं कहा या किसानों ने भी नहीं कहा कि वेणुगोपालजी भी ऐसे ही हैं। यह घटिया खेल राजनीति वालों को ही खेलने दीजिए वेणुगोपालजी। आप अपनी नौकरी भर काम कीजिए तो इज्जत तो बची रहेगी। किसानों को आतंकवादी, देशद्रोही, खालिस्तानी आदि-आदि कहने में अब तो कम-से-कम शर्म आनी चाहिए क्योंकि यह किसान आंदोलन शांति,सहयोग, संयम, गरिमा और भाईचारे की चलती-फिरती पाठशाला तो बन ही गया है। हरियाणा सरकार केंद्र की तिकड़मों से भले कुछ दिन और खिंच जाए लेकिन वह खोखली हो चुकी है। देश के खट्टर साहबों को भी और उनकी रहनुमा केंद्र सरकार को भी अदालत यह नसीहत देती तो भला होता कि किसानों को उकसाने की या उन्हें सत्ता की ऐंठ की चुनौती न दें। करनाल में जो हुआ वह इसका ही परिणाम था। किसान गांधी के सत्याग्रह के तपे-तपाए सिपाही तो हैं नहीं। आप उन्हें नाहक उकसाएंगे तो अराजक स्थिति बनेगी। गांधी ने यह बात गोरे अंग्रेजों से कही थी, आज उनका जूता पहन कर चलने वालों से अदालत को यह कहना चाहिए था। लेकिन वह चूक गई। न्याय के बारे में कहते हैं न कि वह समय पर न मिले तो अन्याय में बदल जाता है। अब अदालत को हम यह याद दिला ही दें कि किसान उसका भरोसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं कि उनके सामने (और हमारे सामने भी!) सांप्रदायिक दंगों और हत्याओं के सामने मूक बनी अदालत है; उनके सामने कश्मीर के सवाल पर गूंगी बनी अदालत है; उसके सामने वह अदालत भी है जो बाबरी मस्जिद ध्वंस और राम मंदिर निर्माण के सवाल पर अंधी-गूंगी-बहरी तीनों नजर आई। किसान भी देख तो रहे हैं कि औने-पौने आरोपों पर कितने ही लोग असंवैधानिक कानून के बल पर लंबे समय से जेलों में बंद हैं और अदालत पीठ फेरे खड़ी है। भरोसा और विश्वसनीयता बाजार में बिकती नहीं है, न कारपोरेटों की मदद से उसे जेब में रखा जा सकता है। रात-दिन की कसौटी पर रह कर इसे कमाना पड़ता है। हमारी न्यायपालिका ऐसा नहीं कर सकी है, इसलिए किसान उसके पास नहीं जाना चाहता है। वह सरकार के पास जाता रहा है क्योंकि उसने ही इस सरकार को बनाया है और जब तक लोकतंत्र है वही हर सरकार को बनाएगा-झुकाएगा-बदलेगा। अदालत के साथ जनता का ऐसा रिश्ता नहीं होता है. इसलिए अदालत को ज्यादा सीधा और सरल रास्ता पकडऩा चाहिए, जो दिल को छूता हो और दिमाग में समता हो।

अदालत भाई, जरा समझाओ भाई कि आपका दिल-दिमाग से उतना याराना क्यों नहीं है जितना इन खेती-किसानी वालों का है?

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

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