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जगजीत ने छू लिया जिन गीतों को...

सुप्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह ने नवें दशक की कुछ फिल्मों में पत्नी चित्रा के साथ बेहतरीन संगीत दिया था। इसकी शुरुआत उन्होंने पहले ही कर दी थी, पर आठवें दशक में उनके द्वारा संगीतबद्ध और राजेंद्र सिंह बेदी द्वारा निर्देशित ‘अपनी धरती अपना देश’ प्रदर्शित नहीं हो पाई। इस फिल्म में उन्होंने रफी और साथियों के स्वर में बिस्मिल लुधियानवी का गीत 'वतन के जर्रे-जर्रे पर’ रेकॉर्ड किया था।
जगजीत ने छू लिया जिन गीतों को...

मूलत: गंगानगर, राजस्थान के रहने वाले जगजीत सिंह बचपन से ही संगीत के शौकीन थे तथा विद्यार्थी जीवन में भी महफिलों में गीत-गजलें गाकर उन्होंने खूब नाम कमाया था। उनकी प्राइवेट गजलों के रेकॉर्ड वैसे तो पहले से बनने लगे थे पर उनकी गजलों को प्रसिद्धि आठवें दशक में जाकर मिली।

संगीतकार के रूप में उनकी पहली प्रदर्शित फिल्म प्रेमगीत (1981) का संगीत सुपरहिट रहा। राग समीरिया पर आधारित 'होठों को छू लो तुम’ (जगजीत सिंह) और शिवरंजनी तथा पहाड़ी सुरों को समेटे 'आओ मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह’ (सुरेश वाडेकर, अनुराधा) बहुत लोकप्रिय हुए। सुरेश वाडेकर के स्वर में 'ख्वाबों को सच कर दूं’ खूबसूरत शायराना प्रस्तुति थी। चंचल शैली का 'तेरे गीतों की मैं दीवानी’ (आशा), मिठास से भरा, 'देख लो आवाज दे कर’, 'दूल्हे राजा’ और पूरिया धनाश्री पर आधारित 'तुमने क्या-क्या किया’ (आशा) जैसे और भी कई रंगों के गीत इस फिल्म में थे। अर्थ (1982) अपने सशक्त कथानक के कारण जितनी चर्चित रही, उतनी ही जगजीत सिंह के संगीत-निर्देशन में 'तुम इतना जो मुस्करा रहे हो’, 'कोई ये कैसे बताए’, 'झुकी-झुकी-सी नजर’ (सभी जगजीत सिंह) और 'तू नहीं तो जिंदगी में’ (चित्रा सिंह) जैसी कर्णप्रिय और रूमानी गजलों के कारण भी याद की जाती है। नवें दशक की लोकप्रिय गजल लहर का फिल्मों में यह सफल विस्तार था। अर्थ फिल्म की आधुनिक गजलों में लोकप्रिय तत्वों का समावेश था जो पुराने संभ्रांत परिवेश से अलग नई अर्थव्यवस्था में पनप रहे नव संभ्रांत वर्ग और मध्यवर्ग की बदली अभिरुचि के अनुरूप था।

शत्रुघ्न सिन्हा निर्मित कालका (1983) में शोभा गुर्टू से गवाए 'दरोगा जी से कहियो’ तथा स्वयं के गाए 'कैसे-कैसे रंग’, 'तराना’ और 'बिदेसिया’ में जगजीत सिंह ने अर्द्धशास्त्रीय और लोकरंग की सुंदर छटा प्रस्तुत की थी। निर्वाण (1983) फिल्म के कथ्य के अनुरूप पार्श्व संगीत जगजीत सिंह की उल्लेखनीय उपलब्धि थी। वहीं 'झूमते हैं लहराते हैं’ जैसे मस्ती-भरे गीत में समूह स्वरों की अभिव्यक्ति और 'रातें हैं सूनी-सूनी दिन भी उदास मेरे’ में दर्द का कोमल प्रस्तुतिकरण जगजीत सिंह की विविध संगीत प्रतिभा को रेखांकित करता है।

रावण (1984) के गीत जगजीत सिंह की कंपोज की हुई गैर-फिल्मी गजल शैली के गीत थे। 'जिंदगी मेरी है टूटा हुआ शीशा कोई’ (भूपेन हजारिका), 'हम को यूं अपनी जिंदगी मिले’ (जगजीत), 'इश्क से गहरा’ (विनोद सहगल) आदि को सुनना उतना ही सुखद है जितना जगजीत सिंह की गजलों का कोई एलबम सुनना। सितम (1984) के 'सारा दिन जागी’ और 'कौन गली से निकलूं’ में भी नज्म और ठुमरी की संगीत अभिव्यक्ति काबिले-तारीफ थी। भले ही इन गीतों को लोकप्रियता न मिली हो। जगजीत अपनी कुछ गैर फिल्मी लोकप्रिय गजलों-गीतों को बाद में अपने द्वारा संगीतबद्ध फिल्मों में भी लाए। 'हम तो हैं परदेस में’ ऐसा ही उदाहरण है जिसे उन्होंने ऐ मेरे दिल फिल्म में इस्तेमाल किया।

गजलों का पूरा हुनर जगजीत और चित्रा ने भीमसेन द्वारा निर्मित तुम लौट आओ (1983) में लगा दिया था। 'आज तुम से बिछड़ के’ (जगजीत, चित्रा), 'एक सपनों का घर’ (चित्रा), 'जख्म तो आपकी’ (जगजीत, चित्रा), 'तेरे सपने मेरे सपने’ (चित्रा, सुरेश वाडेकर), 'बिछड़ी मोरी सहेलियां’ (शोभा जोशी, सरला कपूर) को काफी सराहना मिली। फिल्म ज्वाला (1986) के 'अगर हम न होते’ (आशा), 'मैया-मैया बोले रे कन्हैया’ (देवकी पंडित) और राही (1987) के 'मिलते थे कभी हम डर-डर के’ (आशा, सुरेश वाडेकर) को लोकप्रियता तो बहुत नहीं मिली लेकिन आशियाना (1986) और आज (1987) के संगीत को प्रबुद्ध श्रोताओं ने बहुत सराहा। आशियाना में एक तरफ जगजीत सिंह की आवाज में 'हमसफर बन के हम साथ हैं आज भी’ जैसी कशिश-भरी गजल थी तो दूसरी तरफ इला अरुण के स्वर में 'याद क्यूं तेरी’ जैसी दर्दीली राजस्थानी लोक प्रस्तुति भी थी। आज फिल्म में 'फिर आज मुझे तुमको इतना ही बताना है’ (जगजीत सिंह) की हल्की-सी उत्प्रेरक धुन और 'जिंदगी रोज नए रंग में ढल जाती है’ (घनश्याम वासवानी आदि) की सामूहिक सूफियाना अंदाज प्रस्तुतियां शानदार थीं।

जगजीत-चित्रा गजलों की दुनिया के चोटी के सितारे होने के कारण फिल्मों में संगीत देने के काम को पेशेवर ढंग से नहीं कर पाए वरना नवें दशक के फिल्मी संगीत के फलक पर उनका कंपोज किया संगीत अलग ही स्थान रखता। जिस्मों का रिश्ता (1988), यादों का बाजार (1988), बिल्लू बादशाह (1989), कानून की आवाज (1989), खुदाई (1991) के गीत खास लोकप्रिय न रहे। लेकिन लीला (2003) के अर्द्धशास्त्रीय अंदाज में 'जाग के काटी सारी रैना’ (जगजीत सिंह) और गजल अंदाज में 'खुमारे गम है महकती फिजा में जीते हैं’ (जगजीत सिंह) तथा 'धुआं उठा है’ (जगजीत सिंह) जैसे गुलजार के लिखे गीत और 'जब से करीब हो के चले जिंदगी से हम’ (जगजीत सिंह) जैसी निदा फाजली की रचना के साथ जगजीत सिंह संगीतकार के रूप में अपनी पुरानी परिचित खुश्बू के साथ रूबरू हुए। लीला का संगीत वाकई जगजीत सिंह का प्रतिनिधि संगीत माना जा सकता है।      

 

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