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‘सुमित्रानंदन पंत’ - ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’, छायावादी चतुष्टय के चार स्तंभों में अग्रणी

सुमित्रानंदन पंत’ हिंदी साहित्य में छायावादी चतुष्टय के चार स्तंभों में अग्रणी महाकवि माने गए हैं...
‘सुमित्रानंदन पंत’ - ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’, छायावादी चतुष्टय के चार स्तंभों में अग्रणी

सुमित्रानंदन पंत’ हिंदी साहित्य में छायावादी चतुष्टय के चार स्तंभों में अग्रणी महाकवि माने गए हैं जो आधुनिक हिंदी-साहित्य में नए युग के प्रवर्तक के रूप में उदित हुए। समकालीन कवियों में पंत का प्रकृति-चित्रण सर्वश्रेष्ठ और उनका रचना-काल सर्वाधिक विस्तृत था। पंत पंद्रह-सोलह वर्ष की आयु से 1977 तक लगभग छह दशक साहित्य-सृजन में सक्रिय रहे। साहित्यकार राजेंद्र यादव ने ‘आकर्षक व्यक्तित्व के धनी पंत’ के बारे में कहा था कि ‘पंत रूमानी अंग्रेज़ कवियों जैसी वेशभूषा में प्रकृति-केंद्रित साहित्य लिखते थे।’ पंत को ‘हिंदी साहित्य का विलियम वर्ड्सवर्थ’ कहा गया। उनको 1960 में ‘कला और बूढ़ा चाँद’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया, हिंदी-साहित्य की अनवरत सेवा के लिए 1961 में ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया और 1968 में ‘चिदंबरा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा उनपर डाकटिकट भी जारी किया गया। उनकी रचनाओं में समाज के यथार्थ के साथ प्रकृति और मनुष्य की सत्ता के बीच टकराव परिलक्षित होता है। उनके आधी सदी से अधिक लंबे रचनाकाल में हिंदी-कविता का पूरा युग समाया है। पंत ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ माने गए लेकिन वास्तव में वे मानव-सौंदर्य और आध्यात्मिक चेतना के अत्यंत सशक्त, ऊर्जावान, कुशल कवि थे। उन्होंने हिंदी भाषा की सामर्थ्य उद्घाटित करके उसे नवीन विचारों व भावों की समृद्धि देकर निखारा और संस्कारित किया। पंत की समस्त रचनाओं ने भारतीय समृद्ध सांस्कृतिक चेतना से गहन साक्षात्कार कराया। उन्होंने खड़ी बोली की प्रकृति, उसके पुरुषार्थ, शक्ति और सामर्थ्य की पहचान का अभिमान दर्शाकर उसका अभिनंदन किया। उनके प्रकृति वर्णन में हृदयस्पर्शी-तन्मयता, उर्मिल-लयात्मकता और प्रकृत-प्रसन्नता का विपुल भाव रहा।

 

 

 

सुमित्रानंदन पंत का जन्म 1900 की 20 मई को उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के कौसानी में हुआ मगर उनके जन्म के छह घंटे बाद माँ सरस्वती देवी को क्रूर मृत्यु ने उनसे अलग कर दिया। कौसानी में चाय बागान के व्यवस्थापक पिता ‘गंगादत्त’ ने अबोध शिशु का नाम गुसाईं दत्त रखा और दादी ने पालन-पोषण किया। गुसाईं दत्त का बचपन प्रकृति द्वारा पहाड़ों पर मुक्तहस्त से लुटाए अनुपम सौंदर्य के सानिध्य में व्यतीत हुआ और माँ की कमी रमणीय प्रकृति की ममतामयी छांव ने पूरी की। कौसानी में स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन में आड़ू-खुबानी के पेड़, पक्षियों का सुमधुर कलरव, बांज-बुरांश व चीड़ के पेड़ों की स्वच्छ बयार, सर्पीली पगडंडियों से नीचे उतरकर दूर तक मखमली कालीन सी बिछी कत्यूर घाटी के ऊपर हिमालय के उत्तुंग शिखरों के अलावा संध्या समय होती आरती की पावन स्वर-लहरियों और दादी से सुनी कहानियों से गुसाईं दत्त के हृदय में बचपन में ही कविता का बीज अंकुरित हुआ। गुसाईं दत्त अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य को शब्दों में उकेरने लगे। कूर्मांचल, कत्यूर घाटी, हिमालय के प्रांतर का सौंदर्य, इनकी प्रकृति-कविताओं की कालोत्तीर्ण विशेषता का आधार था जिसे रूस के साहित्य-विवेचकों ने पहचाना। 1965 में उनकी चुनिंदा प्रकृति-कविताओं का ‘गिमलाइस्कया तेत्राज़’ नामक रूसी अनुवाद वाला संकलन मास्को में प्रकाशित हुआ जिसका प्रत्येक पृष्ठ ‘निकोलस रोरिक’ के हिमालय संबंधी चित्रों की प्रतिकृति से मंडित करके मुद्रित किया गया। वृद्ध अमेरिकी चित्रकार मिस्टर ब्रूस्टर द्वारा अंकित पहाड़ियों तथा हिम-शिखरों की अनेक रंगमुखर छायाकृतियां पंत को बहुत प्रिय थीं।

 

 

 

गुसाईं दत्त की आरंभिक शिक्षा कौसानी के ‘वर्नाक्यूलर स्कूल’ में हुई जहां उनके कविता-पाठ पर मुग्ध होकर स्कूल इंस्पैक्टर ने उनको उपहार में पुस्तक दी। ग्यारह वर्षीय गुसाईं दत्त अल्मोड़ा के ‘गवर्नमेंट हाईस्कूल’ में पढ़ाई हेतु गए जहां कौसानी के सौंदर्यपूर्ण एकांत के अभाव की पूर्ति नगरीय सुख-वैभव से हुई। वे अल्मोड़ा की ख़ास संस्कृति वाले समाज से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने लक्ष्मण के आदर्श चरित्र से प्रेरित होकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर ‘सुमित्रानंदन’ रख लिया और अपने घुंघराले बाल लंबे कर लिए। पंत को आरंभ में ही ज्ञात हो गया था कि काव्य साधना ही उनके जीवन का परम लक्ष्य है। वे अल्मोड़ा की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में अक्सर भाग लेते थे। स्वामी सत्यदेव द्वारा स्थापित ‘शुद्ध साहित्य समिति’ पुस्तकालय से पंत उच्चकोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने हेतु लेते थे। कौसानी में साहित्य के प्रति अंकुरित उनका अनुराग, अल्मोड़ा के साहित्यिक वातावरण में पुष्पित-पल्लवित हुआ। उन्होंने ‘बागेश्वर के मेले’, ‘वकीलों के धनलोलुप स्वभाव’ व ‘तम्बाकू का धुंआ’ कविताएं लिखीं और संबंधियों को पत्रों में भेजीं। आठवीं कक्षा में उनका परिचय नाटककार ‘गोविन्दबल्लभ पंत’, ‘श्यामाचरण दत्त पंत’, ‘इलाचंद्र जोशी’ व ‘हेमचंद्र जोशी’ से हुआ। उनकी कौसानी व अल्मोड़ा के वर्णन वाली आरंभिक कविताएं अल्मोड़ा से प्रकाशित हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर’ व ‘अल्मोड़ा अखबार’ में प्रकाशित होने लगीं। अल्मोड़ा में घर के ऊपर स्थित गिरजाघर से रविवार को घंटियों की सम्मोहित करती आवाज़ से प्रेरित होकर वे कविता लिखते। ‘गिरजे का घंटा’ संभवतः उनकी पहली रचना है -

 

‘नभ की उस नीली चुप्पी पर घंटा है एक टंगा सुंदर

जो घड़ी-घड़ी मन के भीतर, कुछ कहता रहता बज-बजकर

 

पंत की सुंदर, दुबली-पतली काया के कारण वे स्कूल के नाटकों में अधिकतर स्त्री पात्र का अभिनय करते। 1916 में शीत ऋतु की छुट्टियों में कौसानी पहुंचने पर उन्होंने काल्पनिक नायक-नायिका व अन्य पात्रों वाला ‘हार’ शीर्षक से 200 पृष्ठों का उपन्यास लिखा। पंत ने प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात वाराणसी में ‘जयनारायण हाईस्कूल’ में शिक्षा प्राप्त की, तदुपरांत उच्च शिक्षा हेतु प्रयाग के प्रतिष्ठित ‘म्योर सेंट्रल कॉलेज’ में प्रवेश लिया। 1921 के असहयोग आंदोलन से जुड़कर उन्होंने महाविद्यालय छोड़ा और हिंदी-संस्कृत, बांग्ला-अंग्रेजी भाषा का स्वाध्याय किया। किशोर आयु से लिखने वाले पंत की काव्य-चेतना का असली विकास प्रयाग में हुआ। उनका रचनाकाल 1916 से 1977 तक लगभग 60 वर्षों का रहा। उनकी काव्य-यात्रा में 1926-33 का पहला चरण छायावादी काव्य का था जब छायावादी शैली में सौंदर्य और प्रेम की प्रस्तुति ‘वीणा’, ‘पल्लव’, ‘ज्योत्सना’, ‘ग्रंथि’ तथा ‘गुंजन’ में सौंदर्य एवं कला-साधना का रचनाकाल रहा, जब वे मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से अनुप्राणित थे। ‘पल्लव’ संग्रह उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ प्रस्फुटन और छायावादी सर्जनात्मकता का चरमोत्कर्ष माना गया है। पंत दूसरे चरण में आशावादी दार्शनिकों से प्रेरित-प्रभावित रहे जिसमें सर्वप्रथम कार्ल मार्क्‍स और फ़्रायड की विचारधारा के प्रभाव में, सौंदर्य-चेतना से बाहर निकलकर हाड़-माँस के साधारण मानव की पहचान के प्रयास के उनके भाव, उनकी प्रगतिवादी, यथार्थपरक काव्य रचनाओं ‘युगांत’, ‘युगवाणी’ तथा ‘ग्राम्या’ संग्रह में परिलक्षित हुए। तीसरे चरण में महर्षि अरविंद के दर्शन के गहन प्रभाव में अध्यात्मवादी भावलोक में विचरण करते हुए उन्होंने अपने भाव ‘स्वर्ण-किरण’, ‘स्वर्ण-धूलि’, ‘अतिमा’, ‘रजत शिखर’, ‘रजत-रश्मि’, ‘युगपथ’, ‘उत्तरा’ तथा ‘गीत-विहग’ संग्रहों में लिपिबद्ध किए।

 

1930 के नमक सत्याग्रह से उनका ध्यान स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता पर केंद्रित हुआ। कालाकांकर में ग्राम्य जीवन में रहकर उनके हृदय में वहां की कठिन पृष्ठभूमि के प्रति संवेदना जगी जिसे उन्होंने ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में वाणी दी। यहीं से उनके काव्य में उस युग का जीवन-संघर्ष नई चेतना का दर्पण बना। उन्होंने अपनी रचनाओं में आध्यात्मिक या दार्शनिक सत्य को वाणी देने की बजाए व्यापक मानवीय-सांस्कृतिक तत्वों को अभिव्यक्ति देकर अन्न-प्राण, मन-आत्मा रुपी मानव-जीवन के स्वरों की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया। उनकी भाव-चेतना, रबींद्रनाथ ठाकुर और अरबिंदो घोष की रचनाओं से अत्यधिक प्रभावित हुई। अभिन्न मित्र हरिवंशराय ‘बच्चन’ और श्री अरबिंदो के साथ उन्होंने अच्छा समय बिताया। पंत ने ही ‘बच्चन’ के पुत्र का नाम ‘अमिताभ’ रखा था। वे कतिपय मित्रों की विचारधारा से प्रभावित होकर मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर प्रवृत हुए और उसके विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पक्षों को गहराई से देखा-समझा। समकालीन कवियों में पंत ‘सर्वसमन्वयवादी’, ‘लोक-पक्षधर’ दृष्टि वाले, पंथनिरपेक्ष और रूढ़िग्रस्त मध्यकालीनता-वाद के विरुद्ध तर्क-युक्त सोच रखते थे। शायद इन्हीं कारणों से उनका कवि-मन कबीर की तरह रोया - ‘मन कबीर-सा करता रोदन।’ उन्होंने प्रौढ़ होने पर स्वयं को ‘कबीर पंथी कवि’ कहा - ‘सूक्ष्म वस्तुओं से चुन-चुन स्वर, संयोजित कर उन्हें निरंतर, मैं कबीरपंथी कवि, भू जीवन पट बुनता नूतन !’

 

बीसवीं शताब्दी के भारतीय अंतस और मानस को समझने के लिए पंत की रचनाओं के बहुविध, बहुआयामी, वृहद रचनाकाश को जानना आवश्यक है। 1937 में उनके भावात्मक दृष्टिकोण में बहिर्जीवन के खिंचाव से परिवर्तन आए। पंत के लेखन-चिंतन का केंद्र-बिंदु सदैव अंतश्चेतना-अध्यात्म, अतुल्यकालिक संप्रेषण, प्रेम जैसी संकल्पनाओं से भावाकुल ‘लोक’ पक्ष रहा, जो उनके महाकाव्य ‘लोकायतन’ के नामकरण से संकेतित और ‘लोक’ के मंगल पर केंद्रित है तथा जिसमें लोक-जीवन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और विचारधारा अभिव्यक्त हुई। उनकी इस रचना को ‘सोवियत रूस’ तथा उत्तर प्रदेश शासन से पुरस्कार प्राप्त हुआ था। हृदय में माता-पिता के प्रति असीम सम्मान के फलस्वरूप पंत ने पूज्य पिता को महाकाव्य ‘लोकायतन’ समर्पित किया। पंत की माँ उनके जन्म के तुरंत बाद स्वर्ग सिधार गईं थीं, उनको स्मरण करते हुए उन्होंने दूसरा महाकाव्य ‘सत्यकाम’ जिन शब्दों के साथ उनको समर्पित किया, वे द्रष्टव्य हैं -

 

‘मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,

भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !

वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर, 

साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर 

 

खोल हृदय में भावी के सौंदर्य दिगंतर!’

 

पंत की अंतर्दृष्टि तथा संवेदनशीलता ने उनके भाव-पक्ष को गहराई और विविधता प्रदान की और उनकी कल्पना-प्रबलता और अभिव्यक्ति-कौशल ने उनके कला-पक्ष को संवारा। ‘युगवाणी’ से ‘अतिमा’ तक उनकी 10 कृतियों से चुनी 196 कविताएं और ‘वाणी’ से ली गई विस्तृत आत्मकथात्मक कविता ‘आत्मिका’, 1958 में प्रकाशित ‘चिदंबरा’ में संकलित हैं जो पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। उनकी अन्य प्रमुख रचनाएं ‘उत्तरा’, ‘युगपथ’, ‘गीतहंस’ आदि हैं। उनका कहानी संग्रह ‘पाँच कहानियाँ’ और उपन्यास ‘हार’ है तथा आत्मकथात्मक संस्मरण ‘साठ वर्ष : एक रेखांकन’ है। पंत ने अंतहीन संघर्षों के लंबे दौर से गुज़रने के दौरान, साहित्य-साधना के लिए धनोपार्जन हेतु आजीविका चुनना सुनिश्चित किया। 1950 में रेडियो विभाग से जुड़कर उनके जीवन में नया मोड़ आया जब ‘हिंदी चीफ प्रोड्यूसर’ के पद पर सात वर्ष कार्य करने के बाद वे साहित्य सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे। प्रगीत प्रतिभा के पुरोगामी सर्जक तथा कला-विदग्ध कवि के रूप में ‘पंत’ व्यापक पाठक वर्ग में समादृत रहे हैं। 

 

कोमल-प्राण कवि पंत की छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानकर ‘हार’ नामक उपन्यास लिखने से आरंभ हुई रचना-यात्रा ‘मुक्ताभ’ के प्रणयन तक चलती रही। पंत मुख्यतः कवि थे पर प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार भी थे। पंत के वृहद महाकाव्य ‘लोकायतन’ तथा ‘सत्यकाम’ के अलावा मुक्तक, लंबी कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकी, कहानी-उपन्यास इत्यादि विभिन्न विधाओं में रची रचनाओं वाला उनका विपुल साहित्य नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन है। उनके द्वारा संपादित ‘रूपाभ’ पत्रिका की संपादकीय टिप्पणियां और ‘मधुज्वाल’ की भावानुवादाश्रित कविताएं भी महत्वपूर्ण हैं। प्रकृति और नारी-सौंदर्य से रचनारंभ करनेवाले पंत सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना से सदैव जुड़े रहे। सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी पंत की मान्यता थी कि ‘आने वाला मानव निश्चय ही ना पूर्व का होगा, ना पश्चिम का।’ पंत की नवीन सगुणवादी कविताओं या उनके चेतना-काव्य को आलोचक ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की तरह शुभैषणा-काव्य, स्वस्ति-काव्य या मनुष्यता का सील-पथ-निरूपक काव्य मानते हैं और उनके छायावादोत्तर विचार-काव्य को श्री अरविंद-दर्शन का ‘पद्यीकरण’ कहते हैं, किंतु उनकी रुचि प्रकृति का स्वर्ण-काव्य आद्यपर्यन्त खड़ी बोली के संपूर्ण प्रकृति-काव्य की शिखर-छवि है। 

 

पंत की सौंदर्य-सृष्टि के प्रयत्न के मुख्य उपादान ‘प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन’ थे। माँ की ममता रहित जीवन में पर्वतीय अंचल कौसानी-अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा ने उनको माँ की तरह आकृष्ट किया जहां के मनोरम वातावरण का उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद के समावेश के साथ अंग्रेज कवियों शैली, कीट्स, टेनिसन का प्रभाव रहा। उनके भीतर स्थित मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय उन्होंने जन्मभूमि के नैसर्गिक सौंदर्य को दिया जिसके सहज आकर्षण से उनकी रचनाएं पूर्णरूपेण प्रभावित हुईं। उनके भाव-पक्ष का प्रमुख तत्व मनोहारी प्रकृति-चित्रण है जिसमें कौसानी की सौंदर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच उनकी बाल-कल्पनाएं रूपायित हुईं। उनके काव्य में प्रकृति के विविध आयाम और भंगिमाएं रूपांकित हुए। पंत कोमल भावनाओं और सौंदर्य के कवि समझे गए किंतु यथार्थ से सामना होने पर जीवन के प्रति उनका यथार्थपरक और दार्शनिक दृष्टिकोण विकसित हुआ। सौंदर्य और उल्लास के कवि पंत ने जीवन का निराशामय विरूप-पक्ष भी भोगा जिसकी प्रतिक्रिया ‘परिवर्तन’ रचना में दृष्टिगत हुई - ‘अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल, खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।’ उन्होंने काव्य में मानवीय प्रतिष्ठा और मानव-जाति के भावी विकास में दृढ़ विश्वास रखते हुए मानवतावादी दृष्टि को सम्मानित स्थान दिया। पंत ने मानव को सुंदरतम कृति कहा- ‘सुंदर है विहग, सुमन सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम।’ उनका मानना था कि देश, जाति, वर्ग में विभाजित मनुष्य की केवल ‘मानव’ के रूप में पहचान हो। 

 

पंत के भाषा पर असाधारण अधिकार से उनकी लेखनी से भाव और विषय के अनुकूल मार्मिक शब्दावली सहज प्रवाहित होती थी। उनकी भाषा का विशिष्ट स्तर होने पर वह विषयानुसार परिवर्तित होती थी। उन्होंने प्रकृति-चित्रण में भावात्मक, अलंकारिक तथा दृश्य विधायनी शैली का प्रयोग किया, विचार-प्रधान तथा दार्शनिक विषयों में विचारात्मक एवं विश्लेषणात्मक शैली तथा प्रतीक-शैली का प्रयोग किया। सजीव बिंब-विधान तथा ध्वन्यात्मकता उनकी रचना-शैली की विशेषताएं थीं। उन्होंने परंपरागत एवं नवीन अलंकारों का भव्य प्रयोग किया। उनके बिंबों की मौलिकता तथा उपमानों की मार्मिकता हृदयहारिणी है तथा उन्होंने रूपक, उपमा, सांगरूपक, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय तथा ध्वन्यार्थ-व्यंजना का आकर्षक प्रयोग किया। उन्होंने परंपरागत छंदों के साथ नवीन छंदों की रचना की और मात्राओं तथा वर्णों के क्रम संख्या की बजाए गेयता और ध्वनि-प्रभाव पर बल दिया। पंत का स्थान प्रकृति के चितेरे कवि के रूप में निश्चय ही विशिष्ट है। हिंदी की लालित्यपूर्ण और संस्कारित खड़ी बोली उन्हीं की देन है। छायावादी प्रकृति-काव्य को सर्वोच्च बनाने का सर्वाधिक श्रेय निःसन्देह सुमित्रानंदन पंत को है जिन्होंने विश्व-साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित किया।

 

महाकवि पंत की कौसानी स्थित जन्मस्थली में उनका घर ‘सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक राजकीय संग्रहालय में परिणत किया गया है जहां उनकी मूर्ति स्थापित की गई है। 1990 में स्थापित पंत की मूर्ति का अनावरण उनके जन्मदिवस 20 मई पर वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यानंद मिश्र ने किया था। संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग की गई व्यक्तिगत वस्तुएं यथा शॉल, दीपक, पुस्तकें, सम्मान-पत्र, प्रशस्ति-पत्र, पुस्तकों की अलमारी तथा हस्तलिपि में विभिन्न संग्रहों की पांडुलिपियों को सुरक्षित रखा गया है। उनकी स्मृति में संग्रहालय में प्रत्येक वर्ष ‘पंत व्याख्यान माला’ का आयोजन किया जाता है। मगर वहां से कुछ दूर स्थित महाकवि का पैतृक गाँव आज भी तिरस्कृत है। ‘प्रकृति के ‘सुकुमार कवि’ सुमित्रानंदन पंत 28 दिसंबर, 1977 को इलाहाबाद में दिव्य ज्योति में विलीन हो गए।

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