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इंटरव्यू/ ओम बिरला: “संविधान को कोई नहीं बदल सकता, मतभेद हमारे लोकतंत्र की पहचान”

संसद की नई इमारत के प्रस्ताव से लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला खासे उत्साहित हैं। उन्हें पूरा भरोसा है कि 2022...
इंटरव्यू/ ओम बिरला: “संविधान को कोई नहीं बदल सकता, मतभेद हमारे लोकतंत्र की पहचान”

संसद की नई इमारत के प्रस्ताव से लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला खासे उत्साहित हैं। उन्हें पूरा भरोसा है कि 2022 में भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर संसद का सत्र नए भवन में आयोजित होगा। उनका कहना है कि किसी भी संसदीय लोकतंत्र में संविधान उसकी आत्मा होती है और कोई भी सरकार उसकी मूल भावना में बदलाव नहीं कर सकती। उन्‍होंने आउटलुक के एडिटर-इन-चीफ रूबेन बनर्जी और पॉलिटिकल एडिटर भावना विज-अरोड़ा से खास बातचीत की है। उसके मुख्य अंश:

आप लोकतंत्र के मंदिर में लोकसभा के पीठासीन अधिकारी हैं। क्या आपको लगता है कि भारत में अब भी मजबूत लोकतंत्र है?

निश्चित तौर पर भारत में लोकतंत्र बेहद मजबूत है। आप इसे चुनावी प्रक्रिया में लोगों के भरोसे और भागीदारी के रूप में देख सकते हैं। 1952 से अब तक 17 लोकसभा और 300 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। वोट प्रतिशत लगातार बढ़ता गया है, जो लोकतंत्र की मजबूती दर्शाता है। इसके अलावा हमने शिक्षा के विकास में लंबा सफर तय किया है। जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ती है, वह लोकतंत्र को मजबूत करने में अहम योगदान देती है। लोग मुद्दों पर चर्चा करते हैं, उनके बारे में जानकारी लेते हैं और उसके आधार पर बड़ी संख्या में वोट डालकर अपनी सरकार चुनते हैं। पिछले 17 आम चुनावों में आठ बार सरकारें बदली हैं। नई सरकार को बेहद सहजता से सत्ता का हस्तांतरण हुआ है, जो हमारी संविधान की मजबूती को दिखाता है। संविधान में बड़े स्पष्ट तरीके से विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की भूमिका परिभाषित की गई है।

हाल ही में गुजरात के केवडिया में आयोजित अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि कई बार न्यायपालिका अपने दायरे से बाहर चली जाती है, जबकि कई लोगों का मानना है कि न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है। इस पर आपका क्या कहना है?

सम्मेलन में जब यह मुद्दा सामने आया तो उस समय चर्चा का विषय यह था कि 'विधायिका और न्यापालिका आपस में बेहतर सहयोग कर कैसे लोकतंत्र को मजबूत कर सकते हैं।' उप-राष्ट्रपति की तरह सभी ने अपने विचार रखे थे। मेरा मानना है कि जब संविधान ने हर चीज को स्पष्ट तरीके से परिभाषित कर दिया है, तो यह महत्वपूर्ण है कि सभी, तय कर्तव्यों के अनुसार काम करें। लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को आपस में मिलकर काम करना चाहिए और किसी को भी अपनी सीमाएं नहीं लांघनी चाहिए। यह अच्छे से चल भी रहा है। अगर कोई विवाद है तो हम साथ बैठकर चर्चा कर सकते हैं। संसद कोई कानून बना भी देती है, तो उसके बावजूद न्यायपालिका के पास उसकी समीक्षा करने का अधिकार है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायपालिका कानून बनाने में लग जाए और कार्यपालिका, विधायिका के काम करने लगे। अगर लोग इन मूल्यों पर नहीं चल रहे होते तो भारत एक लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं होता और कार्यपालिका देश पर शासन कर रही होती। लोकतंत्र में कार्यपालिका का एक ही काम होता है कि वह चुनी हुई सरकार के लिए गए फैसले को नियमों और प्रक्रियाओं के तहत लागू करे।

जैसा कि उप-राष्ट्रपति ने कहा, क्या आपको भी लगता है कि न्यायपालिका दायरे से बाहर जा रही है?

हर व्यक्ति के अपने विचार होते हैं। उप-राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद पर बैठे हैं, उन्होंने अपनी राय रखी है।

प्रधानमंत्री ने सम्मेलन के दौरान लोगों से अपने संविधान को जानने की बात कही। क्या आपका भी मानना है कि संविधान की जानकारी रखना जरूरी है?

यह बेहद जरूरी है। हमारी आने वाली पीढ़ियों को अपने संविधान के बारे में जानकारी होनी चाहिए। मैंने यह महसूस किया है कि यह पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं रह गया है। कम से कम संविधान की प्रस्तावना तो सबको याद रहनी चाहिए। स्कूल में सुबह की प्रार्थना का यह हिस्सा होना चाहिए। हम सभी पीठासीन अधिकारियों ने फैसला किया है कि मुख्यमंत्रियों से इस संबंध में बातचीत करेंगे। सभी ऑफिस, स्कूल और कॉलेज में लोगों के सामने प्रस्तावना को रखा जाए ताकि सभी लोग उसे पढ़ सकें। इसके लिए हमें अभियान चलाने की जरूरत है।

विपक्ष लगातार आरएसएस और भाजपा पर यह आरोप लगाता है कि वे संविधान को बदलने की कोशिश कर रहे हैं और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। यही नहीं, प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष शब्द भी हटाना चाहते हैं। आपकी राय?

कोई भी भारत का संविधान नहीं बदल सकता है। जब भी उसकी मूल भावना में बदलाव की कोशिश की जाएगी तो वह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आएगा। लोकतंत्र में संविधान की मूल भावना बदलने के लिए न केवल दोनों सदनों में बहुमत की जरूरत होती है, बल्कि आधे से ज्यादा विधानसभाओं की भी मंजूरी आवश्यक है। यह व्यवस्था इसीलिए की गई है कि कोई सरकार निरंकुश न हो जाए। निगरानी के लिए संतुलन होना जरूरी है। जब भी देश को जरूरत हुई, सरकारों ने संविधान में संशोधन किए हैं। अब तक 101 संशोधन किए जा चुके हैं। इनमें से कुछ सर्वसम्मति से हुए तो कुछ में मतों का बंटवारा हुआ है। यही नहीं, जब भी न्यायपालिका को ऐसा लगा है कि संशोधन, संविधान की मूल भावना को चोट पहुंचाता है तो उसने उसकी समीक्षा भी की है। केशवानंद भारती जैसे कई अहम फैसले हुए हैं, जिनसे साफ हुआ है कि उच्चतम न्यायालय संविधान के मूल ढांचे का संरक्षक है।

इसका मतलब यह है कि धर्मनिरपेक्ष शब्द बना रहेगा?

कोई भी संविधान के शब्दों को नहीं परिवर्तित कर रहा है।

राष्ट्रपति ने मतभेद, बहस और उसके बाद फैसले की बात कही है। क्या आपको लगता है कि कृषि कानूनों पर संसद में इन तीनों का पालन किया गया?

निश्चित तौर पर इन सभी का पालन किया गया। उस पर चार घंटे चर्चा का समय तय हुआ था, लेकिन बहस उससे कहीं ज्यादा, 5 घंटे 32 मिनट तक चली। मतभेद थे, इसीलिए बहस हुई और उसके बाद फैसला लिया गया। सभी ने बहस में भागीदारी की थी। अगर विपक्ष ने मत विभाजन की मांग की होती तो हम उसे भी करते। उन्होंने केवल बहिष्कार किया और सदन से बाहर चले गए।

क्या आपको लगता है कि विधेयक को प्रवर समिति के पास भेजा जाना चाहिए था?

देखिए, विधेयक पेश करने का काम सरकार ने किया। मेरा काम विधेयक पर चर्चा कराना था, जिसे मैंने किया।

भारत एक बड़ा लोकतंत्र है। इस तरह की बहस लगातार बढ़ रही है कि भारत में विरोध को दबाया जा रहा है।

सभी मुद्दों पर मतभेद होते हैं। लोकतंत्र में लोग किसी दल को विचारधारा और उसके घोषणापत्र के आधार पर वोट देते हैं। लोग उन्हें कानून बनाने के लिए वोट देते हैं और सरकार कानून बनाती है। मतभेद हमारे लोकतंत्र की पहचान है। लेकिन जिस दल को लोगों ने चुना है, उसके पास बहुमत होता है तो विधेयक पारित हो जाता है।

तो क्या भारत में अब भी विरोध के लिए जगह है?

भारत में विरोध के लिए पर्याप्त जगह है। हमारा संविधान जब बनाया गया था, तो यह सरकार और विपक्ष दोनों के राय-मशविरा के बाद ही तैयार किया गया था। लोकतंत्र में विपक्ष की अहम भूमिका होती है। लेकिन यह लोगों पर निर्भर करता है कि वे विपक्ष को कितना समर्थन करते हैं। इसके बावजूद राज्यों की विधानसभाओं और संसद में विरोध के लिए पर्याप्त जगह  मौजूद है।

आप जो कह रहे हैं, सैद्धांतिक रूप से उससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। लेकिन जमीनी हकीकत देखी जाए तो कई पत्रकार जेल में हैं। ऐसे में माहौल ऐसा बनता दिख रहा है कि देश में विरोध के लिए कोई जगह नहीं होगी।

सरकार चाहे किसी की भी हो, विरोध के स्वर होंगे ही। सभी सरकारों ने इसका सामना किया है। परिस्थितियां भले ही बदल गई हों, लेकिन मेरा मानना है कि किसी ने भी प्रेस की स्वतंत्रता पर सवाल नहीं उठाए हैं। सभी लोग लिखने के लिए स्वतंत्र हैं।

क्या आप ऐसा मानते हैं कि प्रेस स्वतंत्र है?

प्रेस पूरी तरह से स्वतंत्र है। जो लोग लिखना चाहते हैं लिख रहे हैं, उन्हें जो दिख रहा है, वह भी लिख रहे हैं। मैं किसी चीज को अपने नजरिए से देखता हूं, आप उसी को अपने नजरिए से देख सकते हैं। किसी को लिखने से नहीं रोका जा सकता है।

भाजपा के पास लोकसभा में भारी बहुमत है और विपक्ष कमजोर हुआ है, क्या संसदीय लोकतंत्र पर इसका असर पड़ता है?

विपक्ष कमजोर कहां है? अगर आप 16वीं और 17वीं लोकसभा से तुलना करें, तो विपक्ष के सदस्यों की संख्या 22 ज्यादा है। जाहिर है कि वह पहले से मजबूत हुआ है।

क्या आपको लगता है कि सरकार पर नजर रखने के लिए विपक्ष का मजबूत होना जरूरी है?

अगर जनता ने उन्हें मजबूत नहीं किया है तो इसमें हम क्या कर सकते हैं? लेकिन मेरा मानना है कि वह कमजोर नहीं है, वह मजबूत है और अपनी बात बेहद मजबूती से रखते हैं।

क्या किसान आंदोलन को देखते हुए संसद का सत्र पहले बुलाया जा सकता है?

संसद के सत्र का फैसला संसदीय मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति करती है। वह बैठक करती है और हमें प्रस्ताव भेजती है। फिलहाल अभी तक हमें ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं मिला है, लेकिन हम उसके लिए तैयार हैं।

पीठासीन अधिकारी के रूप में आपके सामने कठिन चुनौतियां होती हैं। क्या कभी इसे लेकर आपको परेशानी हुई?

नहीं, यह परेशानियों वाला नहीं है। जब आप कुर्सी पर बैठते हैं तो आपकी केवल यही कोशिश होती है कि आप पक्षपातपूर्ण रवैया न अपनाएं और सभी को बोलने का पर्याप्त और उचित समय दें। मैंने आधी रात तक लोकसभा चलाई है। पिछली बार कोविड के दौर में भी लोकसभा ने 10 बजे रात तक काम किया और 38 घंटे अतिरिक्त काम हुआ। कोविड दौर में भी लोकसभा सदस्यों की उपस्थिति सामान्य समय की तरह थी।

मैं सभी सांसदों का शुक्रगुजार हूं, जिन्होंने कोविड के दौर में अपनी संसदीय जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है। उनके सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं होता। इस सदन में जब सब मिलकर काम करते हैं तो सभी का न केवल दबाव कम हो जाता है बल्कि उनकी चुनौतियां भी घट जाती हैं। मेरा मानना है कि इस सत्र में सबसे कम व्यवधान उत्पन्न हुआ है। हमने सदन के काम करने की क्षमता बढ़ाई है। इस बार सदन की काम करने की क्षमता 167 फीसदी थी।

 

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