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मस्त तबियत, फाकामस्ती का शायर 'गालिब'

-नाज खान मिर्जा असद उल्लाह खां 'गालिब' एक ऐसे शायर जिनका था अंदाजे-बयां कुछ और। जितने बेहतरीन उनके अशआर...
मस्त तबियत, फाकामस्ती का शायर 'गालिब'

-नाज खान

मिर्जा असद उल्लाह खां 'गालिब' एक ऐसे शायर जिनका था अंदाजे-बयां कुछ और। जितने बेहतरीन उनके अशआर थे उतनी ही लुत्फ से भरी उनकी जबान भी। बात उनकी नस्र की हो या उनकी हाजिर जवाबी की हर तरह 'गालिब' सब पर गालिब रहे। इसी तरह उनके खत उर्दू गद्य का बेहतरीन सरमाया हैं, तो इनमें उनकी जिंदगी का अक्स भी नजर आता है। इन्हीं से पता चलता है कि,  जहां उन्हें अपने बेरोजगार होने का गम था,  वहीं अपने समय में मुनासिब शोहरत न मिलने का गम भी उन्हें खलता था। यही वजह है कि अपने दोस्तों को लिखे ज्यादातर खतों में उन्होंने अपनी तंगहाली के अलावा अपनी नाकद्री की भी शिकायत की है। इसके बावजूद उनके लिखे खतों और उनकी तबियत में इस कद्र मस्ती और मसखरी की चाशनी घुली हुई थी कि जिससे औरों के मिजाज में भी शरारत दौड़ जाती थी और होठों पर मुस्कुराहट आ जाती थी।

ख्वाजा अल्ताफ हुसैन 'हाली' लिखते हैं, गालिब के बोलने के अंदाज में उनकी तहरीरों और उनकी शायरी से कम लुत्फ न था। इस वजह से लोग उनसे मिलने और उनकी बातें सुनने के ख्वाहिशमंद रहते थे। हालांकि मिर्जा ज्यादा बोलने वालों में से न थे मगर उनकी जबान से जो निकलता था उसे सुनने वालों को भी लुत्फ कम नहीं आता था। यही वजह है कि हाली ने अपनी किताब 'यादगारे-गालिब' में गालिब की जिंदगी अहम पहलुओं को तो कलमबंद किया है। साथ ही उनके लतीफों को भी उसमें जगह दी। ताकि लोग गालिब की जिंदगी के साथ उनकी जिंदगी के इस खास पहलू से भी रूबरू हों।

जहां अपने समय की महफिलों में गालिब की शायरी के चर्चे थे, वहीं उनकी कुछ आदतें भी उनके मशहूर होने का कारण बनीं। इन्हीं में से था उनका शराब पीने का शौक और इसके लिए कर्ज की आदत। इसके नतीजे में उन्हें कई बात सख्तियां भी झेलनी पड़ीं। एक बार इसी वजह से उन्हें जवाबदेही के लिए अदालत तक में पेश होना पड़ा। जब गालिब अदालत में मुफ्ती सद्रुद्दीन खां 'आरजू' के रूबरू हुए तो फरमाया-

'कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,

रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।'

गालिब के इस कलाम का यह असर हुआ कि यह शेअर सुनकर मुफ्ती साहब ने अपनी जेब से उनके रुपए अदा कर दिए। हालांकि यह पहली बार नहीं था कि वह किसी मुश्किल में पड़े हों। अपनी इन्हीं कुछ आदतों की वजह से उन्हें कई बार दिक्कतें उठानी पड़ीं। उन्हें जेल भी हुई और जुर्माना भी। ऐसे ही एक बार की बात है। तब गालिब ने मियां काले के मकान में आकर रहना शुरू ही किया था। एक रोज किसी ने उन्हें देखकर कैद से रिहाई की मुबारकबाद दी। इतना सुनना था कि गालिब ने तपाक से जवाब दिया, 'कौन कैद से छूटा है। पहले गोरे की कैद में था अब काले की कैद में हूं।' मौलाना हाली लिखते हैं कि, एक मजलिस में गालिब भी मौजूद थे। वहां आम की खासियत पर चर्चा हो रही थी। हर कोई अपनी राय दे रहा था कि आम में और क्या खूबी होनी चाहिए। इस बावत जब गालिब के बताने का मौका आया तो उन्होंने साफ कहा, मेरे नजदीक आम में सिर्फ दो बातें होनी चाहिए और वह ये कि आम मीठा हो, बहुत हो।' उनका जवाब सुनकर सब हंस पड़े। इसी तरह अपने दोस्त हकीम रजीउद्दीन खां के साथ गालिब अपने घर के बरामदे में बैठे थे। उनको आम खास पसंद नहीं थे। उसी समय एक गधे वाला अपने गधे को लेकर गली से गुजरा। गली में आम के छिलके पड़े थे जिन्हें गधे ने सूंघ कर छोड़ दिया। यह देखकर हकीम साहब बोले,  'देखिए, गधा भी आम नहीं खाता।' यह सुनकर गालिब ने हाजिर जवाबी से कहा, 'बेशक ! गधा ही आम नहीं खाता।'

गालिब न सिर्फ खुद की हकीकत ही बयान करने से चूकते थे और न ही किसी दूसरे को बख्शते थे। फिर वह चाहे बादशाह ही क्यों न हो। एक बार जब बहादुर शाह जफर लम्बी बीमारी के बाद सेहतमंद हुए। उनके लिए खास गुस्ल का इंतेजाम उनकी पत्नी जीनत महल की तरफ से कराया गया। इस पर गालिब चुटकी लेते हुए कहते हैं, 

'शाह के है गुस्ल सेहत की खबर,

देखिए कब दिन फिरें हमाम के।'

गालिब के अल्फाज चाहे उनकी जबान से निकले हों या खत में पिरोए गए हों, अपनी मिठास के साथ लुत्फ छोड़ ही देते थे। रमजान के महीने में अपने एक दोस्त को खत में लिखते हैं, 'धूप बहुत तेज है। रोजा रखता हूं, मगर रोजे को बहलाता रहता हूं। कभी पानी पी लिया, कभी हुक्का पी लिया, कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया। यहां के लोग अजब फहम रखते हैं।  मैं यूं रोजा बहलाता हूं और यह साहब फरमाते हैं कि मैं रोजा नहीं रखता। यह नहीं समझते कि रोजा न रखना और चीज है और रोजा बहलाना अलग बात।' गालिब जिस तरह हाजिर जवाबी में आगे थे, उनकी काबिलियत पर भी शुबा न था। उन्होंने एक किताब के जवाब में एक किताब 'कातेबुरहान' नाम से लिखी। इसका लिखना कुछ लोगों को रास न आया। कोई उनकी आलोचना करता, कोई गालियां लिखकर उन्हें खत के जरिए रवाना करता। इसी सिलसिले में एक बार किसी ने गालिब से पूछा, आपने मोईनुद्दीन की किताब के जवाब में कुछ नहीं लिखा? गालिब ने कहा, भाई अगर कोई गधा तुम्हारे लात मार दे तो उसका तुम जवाब दोगे?' इतना सुनकर सामने वाला मुंह ताकता रह गया और कुछ कहते न बना। चाहे आम हो या खास गालिब की अंदाजे-बयानी से शायद ही कोई बचा हो।

एक बार दरबार में बैठे गालिब से बादशाह ने कहा, कोई नया कलाम सुनाइए। गालिब ने शे’र पढ़ा,

'यह मसाइले तसव्वुफ यह तेरा बयान 'गालिब',

तुझे वली समझते जो न बादाख्वार (शराब पीने वाला) होता।'

गालिब का यह शे’र सुनते ही बादशाह ने हंसकर कहा भई,  हम तो तब भी ऐसा न समझते।' इतना सुनते ही गालिब बोले, 'हुजूर तो अब भी ऐसा ही समझते हैं, मगर यह इसलिए इरशाद हुआ कि कहीं मैं अपनी तारीफ पर मगरूर न हो जाऊं।'

 

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