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अकाल में यह सूनापन !

डॉ. नामवर सिंह का निधन हमारी भाषा और समाज के लिए बड़ी क्षति तो है ही, यह बड़े संकट का संकेत भी हो सकता है।...
अकाल में यह सूनापन !

डॉ. नामवर सिंह का निधन हमारी भाषा और समाज के लिए बड़ी क्षति तो है ही, यह बड़े संकट का संकेत भी हो सकता है। किसी खास समय में एक साथ कई प्रतिभाओं के पैदा होने या गुजर जाने का अपना मतलब होता है। मुझे लगता है कि किसी समय विशेष में या ऐसे भी प्रतिभा के विस्फोट जैसा कुछ नहीं होता, समाज अपने विकास के क्रम में अपने संघर्षों को विस्तार देते हुए इतिहास के किसी मोड़ पर अपने नायकों को पैदा करता है। यह निरा संयोग नहीं था या ईश्वर की कृपा नहीं थी कि ईसा से कोई पांच-छह सौ वर्ष पहले गौतम बुद्ध और महावीर ही नहीं, इसी स्तर के कम से कम पांच और दार्शनिक और समाज सुधारक-पूरन कस्सप, मक्खली गोसाल, अजित केशकंबली, पकुध कच्चायन और संजय बेलट्ठपुत्त लगभग एक साथ और एक ही क्षेत्र में पैदा हुए।

उतना पीछे न भी जाएं तो, क्या यह जानकर सुखद आश्चर्य नहीं होता कि 1911 के शुरुआती छह महीने के अंदर शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन जैसे हमारी भाषा के महान कवि पैदा हुए। उसके ठीक एक वर्ष बाद डॉ. रामविलास शर्मा और 1917 में मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि। जाहिर है, जन्म लेने की तरह ही किसी एक सीमित समय खंड में बड़ी विभूतियों के जाने का भी एक अर्थ होगा।

नामवर जी के जाने से जो सूनापन पैदा हुआ है वह तब और गहरा प्रतीत होता है, जब हम देखते हैं कि उनके पहले पिछले कोई एक साल में हमारी भाषा के कई महत्वपूर्ण रचनाकार एक-एक कर विदा लेते चले गए। बीमारी के बाद 12 जनवरी 2018 को प्रख्यात कथाकार, कवि और आलोचक डॉ. दूधनाथ सिंह का निधन हो गया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता-कहानी के अलावा उन्होंने निराला, शमशेर, महादेवी आदि पर महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। उनका उपन्यास आखिरी कलाम बहुत चर्चित रहा। यमगाथा की चर्चा उतनी नहीं हुई लेकिन यह भारतीय भाषाओं के चंद चुने हुए श्रेष्ठ नाटकों में एक है। निराला आत्महंता आस्‍था उनकी बेहद लोकप्रिय कृति है। संस्मरणों की अपनी पुस्तक लौट आ ओ धार को लेकर वे खासे विवादों में भी रहे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे दूधनाथ सिंह छात्रों के बीच भी लोकप्रिय थे।

उनके बाद 19 मार्च 2018 को नागार्जुन, त्रिलोचन की पीढ़ी के बाद के सबसे लोकप्रिय कवि केदारनाथ सिंह हमारे बीच नहीं रहे। केदार जी ने कविता की नई जमीन तैयार की और पाठकों का आस्वाद बदलने में भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई। केदार जी गहरी लोक चेतना या थोड़ी विनिर्दिष्ट शब्दावली में कहें तो किसान चेतना के कवि थे। उनकी विचारधारा उनके सौंदर्य मूल्यों में अंतर्निहित है, जिसे विखंडित करने का काम दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना ने अब तक नहीं किया है। केदार जी ने प्रत्ययों से अनुभव को रचने का छद्म नहीं किया है, बल्कि अपने प्रामाणिक लोक अनुभवों को बौद्धिकता की वह ऊंचाई दी, जहां पहुंच कर आंचलिकता और बौद्धिकता का भेद मिट जाता है। जीवन काल में उनके नौ कविता संग्रह और गद्य की चार पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

19 सितंबर को हिंदी के अवांगर्द कवि विष्‍णु खरे का हृदयाघात से निधन बहुत ही दुखद था। एक बड़ी क्षति। केदार जी, नामवर जी आदि जहां अपने काम पूरे कर चुके थे, वहीं विष्‍णु जी अब भी सृजनरत थे और कविता के साथ-साथ अपनी धारदार टिप्पणियों के माध्यम से भी साहित्य के समाज में हलचल पैदा कर रहे थे। कुछ ही दिनों पहले हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष के पद पर उनकी नियुक्ति हुई थी और इसे दिल्ली में उनकी वापसी के सुखद अवसर के रूप में देखा गया था। खांटी गद्य में काव्यात्मक तनाव पैदा करने की उनकी सलाहियत हिंदी कविता में दुर्लभ है। उनके पांच संकलन प्रकाशित हैं।

इन सबसे कुछ पहले, यानी 2017 के अंतिम कुछ महीनों में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुंवर नारायण, साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत चंद्रकांत देवताले भी हमारे बीच से विदा हो गए। आठवें दशक के चर्चित कवि नीलाभ और पंकज सिंह अपने अधूरे काम छोड़कर अचानक चले गए।

नामवर जी से कुछ पहले 25 जनवरी को वरिष्ठतम पीढ़ी की प्रख्यात कथाकार, विस्फोटक प्रतिभा की धनी कृष्‍णा सोबती ने विदा ले ली। उन्होंने पूरा जीवन जीया लेकिन 94 वर्ष की उम्र में भी उनकी लेखनी मंद नहीं पड़ी थी, शरीर ने जरूर साथ देना छोड़ दिया था। स्‍त्री के संघर्ष और जिजीविषा का जैसा चित्रण उनकी कहानियों और उपन्यासों में मिलता है, वह दुर्लभ है। उन पर बहुत विस्तार से बात करने की जरूरत है।

इतनी सारी त्रासदियों के बीच फरवरी की 19 तारीख को नामवर जी का जाना अप्रत्याशित तो नहीं था, लेकिन हिंदी के भविष्य को लेकर डराने वाला जरूर था। भले ही पिछले दो वर्षों से वे लगभग मौन और अपने आवास में सिमटे हुए थे, फिर भी हिंदी के इकलौते लोक बुद्धिजीवी का जाना ऐसा सन्नाटा पैदा कर गया है कि...। वे समय से संवाद करने वाले आलोचक थे और संवाद के क्रम में ही उन्हें समझ में आ गया कि हिंदी का समाज, पढ़ने वाला नहीं सुनने वाला समाज है। इसीलिए उन्होंने देश में घूम-घूम कर संवाद की शुरुआत की, जिसे विरोधियों ने ‘आलोचना की वाचिक परंपरा’ का नाम दे दिया। लेकिन उनका शुरुआती लेखन भी कम दमदार नहीं। शोध प्रबंधों के साथ-साथ 1955 में उनकी पुस्तक आई छायावाद, जिसमें उन्होंने पहली बार छायावादी कविता को मनुष्य की मुक्ति और स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़कर देखा।

पचास के दशक में, आजादी के बाद नया समाज बनाने के साथ-साथ नया रचने की बेचैनी भी बढ़ रही थी। लोकतंत्र की अच्छाइयां-बुराइयां सामने आ रही थीं और संसद की राजनैतिक टकराहटों के समानांतर साहित्य में भी वैचारिक टकराहटें होती दिख रही थीं। इसी बीच, युवा आलोचक नामवर सिंह ने मोर्चा संभाला। उस समय के शक्तिशाली परिमल गुट के साथ उनकी लंबी बहस चली। उन्होंने कई लेख लिखे, जिनमें समय की प्रतिध्वनियां सुनाई देती हैं। तभी यह भी लगने लगा था कि उनका स्वर अन्य प्रगतिशील आलोचकों से अलग है। उनमें व्यापकता भी है और गहराई भी। 1957 में प्रकाशित इतिहास और आलोचना में उस समय के ऐसे लेख संकलित हैं, जिसे आज भी उनकी महत्वपूर्ण कृति माना जाता है। गौरतलब है कि नामवर जी की प्रतिभा विवादों के बीच ही चमक बिखेरती थी। उन पर यह उक्ति सटीक बैठती थी, ‘कुफ्र कुछ चाहिए इस्लाम की रौनक के लिए।’ 1989 में प्रकाशित उनकी अंतिम लिखित पुस्तक का तो नाम ही वाद विवाद संवाद है। इसमें 1967 से उनके संपादन में निकलने वाली त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका आलोचना के अग्रलेखों के अलावा कुछ अन्य बहसधर्मी आलेख भी शामिल हैं।

इन दो संकलनों के बीच उनकी तीन और ऐसी पुस्तकें आईं, जिन्हें माइलस्टोन कहा जा सकता है। इन तीनों पुस्तकों के साथ ही वे हिंदी आलोचना के शीर्ष पर पहुंच गए। कहानी नयी कहानी (1964) से हिंदी में पहली बार कथा आलोचना की विधिवत शुरुआत हुई। उसके पहले तक आलोचना मुख्यतः कविता केंद्रित थी। 1967 में उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति कविता के नए प्रतिमान आई।

छायावाद की तरह ही इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने नई कविता को लेकर पूर्व प्रचलित अवधारणाओं को बदल दिया। उसके पहले तक नई कविता के केंद्र में अज्ञेय थे, इसके बाद वह जगह मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय ने ले ली। भले उनके द्वारा गढ़े गए प्रतिमानों पर अंग्रेजी की नई आलोचना का प्रभाव हो, लेकिन उन्होंने उसे पूरी तरह हिंदी कविता और 1950 के दशक की वैचारिक बहसों के अनुकूल बनाया। नामवर सिंह मूलोच्छेदिनी मौलिकता में ‌विश्वास नहीं करते थे। वे पंरपरा से काफी कुछ ग्रहण करते थे लेकिन परंपराग्रस्त भी नहीं थे। वे अपने समय की जरूरतों को समझते थे। अपने गुरु पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन और चिंतन को केंद्र में रखकर लिखी गई दूसरी परंपरा की खोज में उन्होंने हिंदी साहित्य और आलोचना को आधार बनाकर भारतीय चिंतन परंपरा को समझने का उपक्रम किया। लोक बुद्धिजीवी के रूप में उनको प्रतिष्ठित करने में इस पुस्तक की महत्वपूर्ण भूमिका है।

इनके अलावा उनके साक्षात्कारों के दो संकलन और डॉ. खगेंद्र ठाकुर द्वारा संपादित उनके व्याख्यानों का एक संग्रह आलोचक के मुख से आया। उनके द्वारा संपादित-संकलित आखिरी पुस्तक काशी के नाम 2006 में आई, जिसने उनके कथाकार अनुज काशीनाथ सिंह को लिखे पत्र संकलित हैं। नामवर की विचार यात्रा को तो उनके आलेखों और व्याख्यानों के द्वारा समझा जा सकता है लेकिन उनकी जीवन यात्रा समझने के लिए ये पत्र बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। नामवर जी में वैचारिक विचलन देखने वालों को इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि वैचारिक दृढ़ता और प्रतिबद्धता के कारण ही उन्हें 1959 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया था और सागर विश्वविद्यालय से भी। वे लगभग एक दशक तक बेरोजगार रहे। ढंग की नौकरी उन्हें जोधपुर में मिली। जोधपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति ने उन्हें प्राध्यापक के पद पर आमंत्रित किया। फिर भी, हिंदी आलोचना को आधुनिक बोध देने वाले नामवर सिंह के लिए हिंदी के पाठ्यक्रम को आधुनिक बनाना आसान नहीं था। इस काम में उन्हें सफलता 1974 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आने के बाद ही मिली। उन्होंने पाठ्यक्रम और पठन-पाठन की पद्धति में कई बदलाव किए और प्रतिभाशाली छात्रों की कई पीढ़ियां तैयार कीं, जिनकी सामूहिक शक्ति के योगदान से ही नामवर वह विराट व्यक्तित्व बने, जिसका विकल्प आज दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है।

नामवर जी के जाने के बाद यह एहसास गहरा हुआ कि एक पीढ़ी हमारे बीच से जा रही है और कोई आश्वस्तकारी विकल्प सामने नहीं दिख रहा है। इस पीढ़ी ने बहुत सही समय पर, पूर्ववर्ती दिग्गजों के रहते ही हिंदी का मंच और मोर्चा संभाल लिया था। कई बार तो उस पीढ़ी पर वरिष्ठों की उपेक्षा या जबरन विस्‍थापित करने के आरोप भी लगे। लेकिन उसके बाद ऐसी पीढ़ी नहीं आई जो उनका विकल्प बन सके। ऐसा भी नहीं है कि हमारी भाषा में प्रतिभाशाली कवि लेखक हैं ही नहीं। लेकिन जो हैं उनमें न तो वैसी क्षमता दिखती है, न प्रवृत्ति। उसका मुख्य कारण मेरी समझ से बदला या बदलता हुआ समय है, जो फिर से समझे जाने की मांग कर रहा है। आलोचना को आधुनिक रूप देने वाले डॉ. नामवर सिंह आधुनिक अस्मिता विमर्शों को नहीं समझ सके और ‌स्त्रियों और दलित आदिवासियों के लेखन को लेकर हमेशा संदेह में रहे। उनका दृष्टिकोण नकारात्मक और उलझाने वाला ही था। अब आगे का रास्ता भी उनके इस नजरिए से ही सूझ रहा है कि जो शून्यता दिख रही है, वह कुछ समय के लिए जरूरी है क्योंकि यह समय नए लोगों के लिए मंच और मोर्चा छोड़ने का है। ख‌लील जिब्रान की एक उक्ति को थोड़ा फेरबदल कर कहें तो, ‘दयनीय है वह देश (या भाषा) जिसके महात्मा इतिहास के साथ गूंगे हो गए हैं और शूरवीर अभी पालने में झूल रहे हैं।’

 

(लेखक प्रसिद्ध कवि और टिप्पणीकार हैं)

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