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सलाह देने का दोहरापन: "सेवानिवृत्त बाबुओं की सुविधावादी क्रांति"

वो खुद को ऐसा दर्शाते हैं कि वो इस देश की अंतरात्मा के रखवाले हैं पर अधिकांश लोग उन्हें स्वयं नियुक्त...
सलाह देने का दोहरापन:

वो खुद को ऐसा दर्शाते हैं कि वो इस देश की अंतरात्मा के रखवाले हैं पर अधिकांश लोग उन्हें स्वयं नियुक्त अम्पायअर की तरह मानते हैं जो मैदान में बार-बार आउट-आउट चिल्लाता रहता है जबकि खिलाड़ी उसे और उसकी झुझुनाहट को अनदेखा कर खेलते रहते हैं। बस यही कहानी है सेवनिवृत अफसरों की। हालांकि, शायद ये भी एक सच है कि सेवनिवृत नौकरशाहों के लिए यही एक संभावना रह जाती हैl वो कथित तौर पर प्रधानमंत्री को नाराजगी भरे पत्र लिखते हैं, पर वास्तव में ये मीडिया के लिए होता हैं। वो बड़े जोशीले और कड़े शब्दों में वर्तमान शासन का प्रतिनिधित्व करने वाली लगभग हर चीज की तीखी आलोचना करने के लिए जाने जाते हैं। बहुत वरिष्ठ अधिकारी, जो इस सरकार की तीव्र निंदा के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने अनजाने में, अपने अवचेतन की बात कह दी या यूँ कहें तो वो बातें उनकी जुबान से बाहर फिसल गयी, “मैंने कुछ साल इंतजार किया कि मेरे इतने सालों के अनुभव और विशेषज्ञता का सरकार उपयोग करेगी, लेकिन उन्होंने मुझे अनदेखा कर निराश किया। तब मैंने भी फैसला कर लिया कि मैं अपनी सेवानिवृत होने के बाद का जीवन लेखन के लिए समर्पित करूँगा।”

तो कुल मिलाकर वास्तविकता ये है कि जो अफसर सेवानिवृत्ति के बाद सलाहकार, न्यायालय या बोर्ड के सदस्यों के रूप में नियुक्त हो जाते हैं, वे चुप रहते हैं, और जो नहीं हो पाते, उनमें अचानक क्रांतिकारी और सुधारवादी बनने का जोश आ जाता हैl इससे पहले ये जोश यूपीएससी परीक्षा पास करने के समय जब वो नवयुवक रहते हैं, तब उनके भीतर रहता है। धीरे-धीरे अपने ओहदे, आगे-पीछे सुरक्षाकर्मियों का तांता, लालबत्ती वाली गाड़ी, बड़े-बड़े बंगले और अनंत इच्छा के साथ सत्ता के प्रभाव में जैसे ये जोश दब सा जाता है और वो नौकरशाह जो हर कदम पर राजनीतिक शासकों के साथ समझौता करने को तैयार रहता है।

बीते 20 सालों में कितनी बार ऐसा हुआ है कि जनता के तथाकथित सेवक ने कोई जनहित की बात निर्भीक रूप से रखी हो और छुट्टी पर चला गया हो। या इस्तीफा दे दिया हो बस इसलिए कि उसे असंवैधानिक निर्देश मान्य नहीं थे। पिछले दो दशकों में हुए ऐसे किस्सों को आप उंगलियों पर गिन सकते हैं। इसके मुकाबले रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और अक्षमता के किस्से भरपूर हैं। क्या इसका ये मतलब है कि जब ये महाशय नौकरी कर रहे थे तब सारे नेताओं का बर्ताव बहुत अच्छा था और वे कानून का पालन करते थे और अब अचानक से ये विभाजनकारी नीतियाँ अपनाकर देश को पीछे घसीट रहे हैं। हमने पहले भी कितने कांड देखे हैं। इनमें से कितने अफसरों ने उनका विरोध किया था? इनमें से कितनों ने उन मौतों, बलात्कारों, नरसंहारों और गर्भपातों का विरोध किया था, जिनसे हालिया भारतीय इतिहास भरा पड़ा है?

मज़ेदार बात है कि सेवानिवृत्त नौकरशाहों का एक समूह अपने आप को “कांस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप” (सीसीजी) कहता है। 21 मई को इन्होंने मोदी सरकार को पत्र लिखकर सलाह दी है, “सभी सरकारी फैसलों पर सलाह देने और उनकी समीक्षा करने के लिए केंद्र स्तर पर एक सर्वदलीय समिति का गठन करें…” इसे देखें तो लगता तो कुछ ऐसा है जैसे गणतंत्र का झंडा लिए घूमने वाले अब गैर-निर्वाचित सिविल सेवकों और मतदाताओं द्वारा खारिज कर दिए गए नेताओं को शासन और सत्ता में पीछे के चोर दरवाजे से घुसना चाहते हैं। सरकार और संसद की एक स्थापित प्रणाली को बदलने की मांग करना कहाँ से संवैधानिक है? क्या यह आपको उस मंडल की याद नहीं दिलाता जिसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) कहा जाता है, जिसके किताबी बुद्धिजीवीयों और जनता के आस-पास तक न भटकने वाले राजनेताओं ने सरकार के अधिकांश मामलों में गड़बड़ी की थी?

मीडिया को लिखे पत्रों द्वारा सेवानिवृत्त अफसर सरकार को कोई ठोस सकारात्मक सुझाव तो देते नहीं, बस कई तरह की टिप्पणियाँ कर देते हैं। एक ही पत्र में वे लोग प्रधानमंत्री राहत कोष, अनुच्छेद-370, जीएसटी, करोना की दूसरी लहर को ठीक न संभाल पाना, लक्षद्वीप, कृषि कानूनों की अवैधता, मानवाधिकारों का दुरुपयोग, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट और न जाने किस-किस की बात कर जाते हैं। वैसा व्यक्ति जो सारा जीवन उबाऊ कागजी कामकाज करता है। इसके बाद जब ये एक झटके में शासक,दूरदर्शी, वास्तुकार, पर्यावरणविद्, महामारी विज्ञानी, लेखा परीक्षक, सतर्क और सच्चाई को रखनेवाला बनना चाहता हैं, तो बहुत अटपटा सा लगता है। इन लोगों से कोई ठोस व्यावहारिक सलाह न मिलने के कारण सरकार इन पर ध्यान नहीं देती। इसलिए अब ये बस घर के वो दादाजी बन कर रह गए हैं जिनके उपदेशों को आज की पीढ़ियां अनदेखा कर देती है। हर गुजरते साल के साथ दादाजी खुद को फालतू महसूस करते हैं तो उनके उपदेश फलस्वरूप और तीखे होते जाते हैं।

हमें इस बात को सराहना होगा कि शासन में अधिकांश पुरानी व्यवस्थाएँ ही आगे नए रूपों में चलती रहती हैं। बस कुछ एक बड़े और नाटकीय फैसले छोड़ दें तो जो पार्टी की प्राथमिकता और सत्ता में रहने की राजनीतिक प्रतिबद्धता हो सकते हैं, बाकी नए नाम पुराने ढर्रे पर चलते रहते हैं। निरंतरता और यथास्थिति ही नियम है और सरकारी तंत्र की यही सही पहचान है। इस दौरान राजनीति, लोगों को झूठा भरोसा दिलाती रहती है कि महान बदलाव हो रहा है। सेवानिवृत्त अफसर भूल जाते हैं कि पिछले कुछ दशकों से कमान उन्हीं के हाथ में थी। अगर आज हमारे सामने कुछ सड़ रहा है, तो उस सड़ने की शुरुआत उनके समय में ही हो चुकी थी। इसलिए यह पूछना वाजिब है कि उनका दोष कितना है?

नौकरशाहों को सिविल सेवाएं सुरक्षित वातावरण प्रदान करता है। ओहदा के अलावा, आर्थिक मजबूती के साथ वेतन का भुगतान होता है। नौकरी छूटने का कोई डर नहीं, पूरा करने के लिए कोई ठोस लक्ष्य नहीं और जब तक कोई बड़ी गड़बड़ी न हो तो, पदोन्नति, वेतन वृद्धि, आवास और लाभ, ये सब सेवानिवृत्त होने तक मिलते रहते हैं। यूनिवर्सिटी से निकले 20 साल की उम्र के लड़के से लेकर 60 साल की उम्र में सेवानिवृत्ति होने तक ये हकदारी की भावना इनमें कूट-कूट कर भरी होती है तो इसे छोड़ना आसान नहीं होता है।

मैनेजमेंट में सभी का मानना है कि जॉब सिक्योरिटी, जो आज की तकनीकी-केंद्रित और बदलती दुनिया में खुद पर अपने कौशल को बदलने या सुधारने का दबाव नहीं डालती है– यही इनके स्तर को बहुत औसत बना देता है। सिविल सेवाओं में पदानुक्रमित संस्कृति, किसी की जिंदगी के कई सालों तक उसकी निरंतर "जी-हुज़ूरी" होना, और आगे-पीछे करने की संस्कृति, ये सब इनके अहम के लिए बहुत बुरे हैं। इसीलिए हम में से अधिकांश जब ये हमें नहीं मिलता तब हम मुक्त सेवानिवृत्त जीवन का मजा नहीं ले पाते हैं।

हम कोई आम इंसान थोड़े न हैं जो बागबानी करेंगे या अपने पोते-पोतियों का होम-वर्क करवाएँगे? हम पैदा हुए थे ताकि हम सारी गूढ़ चीज़ों के बारे में आज की पीढ़ी को सलाह दे सकें। परंतु अब मूल प्रश्न उनकी बात की प्रासंगिकता की भी है और संदेश देने वाले की साख की भी। मीडिया को खुले आम ये जो अपना रोना-धोना पत्र के जरिए भेजते हैं, इसे पढ़कर कोई विरोध के लिए खड़ा तो होता नहीं, ज्यादा-से-ज्यादा पल भर के लिए ध्यान भटक जाता है। अपने बूते पर, इस ऊँची नाक और नागरिकों से अलगाव के चलते, इनमें से अधिकांश महाशय आरडब्ल्यूए या पंचायत चुनाव भी न जीत पाएँ।

इनका दोहरा चरित्र तब और झलकता है जब हम देखते हैं कि इन सज्जनों ने उस समय अपना सिर नीचे रखा, चुपचाप अपनी पेंशन मिलने तक नौकरी की और कोई विरोध नहीं किया जब इनके विरोध सबसे ज्यादा मायने रखते थे। इसलिए तत्कालीन सरकार और आज के नागरिकों को भी इन सुविधवादी क्रांतिकारियों के इस नए अवतार पर सवाल उठाने का उतना ही अधिकार है। 

शायद शहाब जाफरी का शेर इस विषय को बहुत खूबसूरती से बयान करता है- 

“तू इधर-उधर की न बात कर ये बता कि काफिला क्यूँ लुटा 

मुझे रहजनों से गिला नहीं तिरी रहबरी का सवाल है।”

(लेखक पूर्व-आईपीएस अधिकारी और एक प्रौद्योगिकी उद्यमी हैं। लेख में व्यक्त किए गए विचार इनके निजी हैं।) 

 

 

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