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समता ही अभारतीय तो स्वतंत्रता भी संदिग्ध

हमारे गांव में मेरे बचपन में और अब भी एक सामान्य प्रचलन है। एक काम कोई एक समुदाय ही करता है और हर समुदाय...
समता ही अभारतीय तो स्वतंत्रता भी संदिग्ध

हमारे गांव में मेरे बचपन में और अब भी एक सामान्य प्रचलन है। एक काम कोई एक समुदाय ही करता है और हर समुदाय का एक नाम है। खेत जोतना, मवेशी चराना, मछली पकड़ना, बर्तन बनाना, कपड़े धोना, कपड़े बुनना, बाल काटना, चप्पलें बनाना, यहां तक कि पशु या मनुष्य के शव का निस्तारण भी अलग-अलग जाति के लोग करते हैं। सिर्फ खेती ही एक पेशा ऐसा है, जिसमें जातियों का यह बंधन टूटता है। बाकी सभी काम अलग-अलग जातियों में बंटे रहे। मेरे बचपन में अलग-अलग जाति के लोग एक साथ बैठकर खाना नहीं खा सकते थे। अब यह कुछ हद तक संभव है, लेकिन अंतरजातीय विवाह अब भी संभव नहीं हैं। बदलाव सतही है, ढांचागत नहीं। श्रेणीगत असमानता अब भी बनी हुई है। ब्राह्मण और बनिया जातियां अलग और सबसे काफी ऊपर मानी जाती हैं। आजादी के 72 साल बाद भी रोजमर्रा की जिंदगी में समानता न तो गांव में है, न शहर में और न ही देश में।

मुझे बताया गया कि मेरा जन्म 1952 में हुआ था। मेरे जन्म का साल स्कूल के शिक्षक ने तय किया था, ईश्वर ने नहीं। (ईश्वर की कृपा से मेरा जन्म किसी और साल के किसी और दिन हुआ था।) स्कूल के रिकॉर्ड के अनुसार मैं 67 साल का हो चुका हूं। यानी बीसवीं सदी के मध्य से लेकर 21वीं सदी की शुरुआत तक भारत में मानव संबंध असमान और श्रेणीगत बने हुए हैं। माना जाता है कि ईश्वर ने पूरी मनुष्य जाति, स्‍त्री और पुरुष, सभी को समान बनाया है। लेकिन यह समानता आज तक हमारे सामाजिक ताने-बाने तक नहीं पहुंच सकी है।

सबसे शर्मनाक बात यह है कि हर गांव में जूते-चप्पल बनाने वालों और शवों का निस्तारण करने वालों को अछूत माना जाता है। धोबी और नाई बहुत निचले दर्जे के माने जाते हैं। यह स्थिति भारत के लगभग हर गांव में है। उत्तर भारत में यह ज्यादा सख्त है तो दक्षिण में थोड़ा कम। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/भाजपा उत्तर में मजबूत है और दक्षिण में कमजोर।

ऐतिहासिक रूप से देखें तो गांवों में स्कूल खुलने से पहले लोगों को एकत्र करने वाली जगह कौन सी हो सकती थी-मंदिर? कल्पना कीजिए कि गांव का मंदिर तरह-तरह के काम करने वालों के इकट्ठा होने की सामूहिक जगह है, इस विचार के साथ कि भगवान ने सबको समान बनाया है। कल्पना कीजिए कि मंदिर का पुजारी सबसे कहता कि सब अपना-अपना कर्म करें क्योंकि हमारे जीवित रहने के लिए सभी काम जरूरी हैं, और आप सभी अपने काम के साथ, ईश्वर के सामने एक समान हैं। इसके विपरीत गांव के पुजारी ने गांववालों से क्या कहा? उसने कहा, “असमानता और अस्पृश्यता को मानना ही आपका दैवीय धर्म है, क्योंकि ईश्वर ने आपको असमान बनाया है।” अगर ईश्वर का प्रतिनिधि ही गांववालों से यह बात कहे तो आध्यात्मिक या सामाजिक समानता कैसे आएगी?

शिक्षा की सामूहिक जगह के रूप में स्कूलों के गांव तक पहुंचने से पहले मंदिर सामुदायिक जगह होने चाहिए थे। अगर गांव के मंदिर का सिद्धांत समानता होती, तो यह समानता ग्रामीण जीवन का हिस्सा बन जाती। अगर मंदिर में यह बात कही जाती कि अलग-अलग कर्म करने वाले एक साथ बैठकर खाना खा सकते हैं, तो कोई असमानता पनपती ही नहीं।

अनेक सामाजिक विचारकों ने सोचा कि अंतरजातीय विवाह, जातिगत असमानता और अपमान का समाधान होगा। दरअसल, सबसे महत्वपूर्ण बात अंतरजातीय विवाह नहीं थी। जब तक सभी जातियों के बीच आध्यात्मिक समानता स्थापित नहीं होगी, तब तक जाति व्यवस्था विरोधी कोई भी कदम कारगर नहीं होगा। अगर हर मंदिर का पुजारी यह कहे कि ईश्वर ने कोई जाति नहीं बनाई है तो अंतरजातीय शादी करने वाले लड़के-लड़कियों की हत्या नहीं की जाएगी, जैसा अभी होता है। तब ‘आर्टिकल 15’ जैसे सिनेमा की भी आवश्यकता नहीं होती। हमने समानता को मंदिर में खो दिया और अब उसे पुलिस थाने में तलाश रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 15 में मंदिर की बात नहीं कही गई है। लेकिन मंदिर की वजह से जो समस्या पैदा हुई है, थाना उसका समाधान नहीं कर सकता। मंदिरों और स्कूलों को मिलकर इसका समाधान निकालना पड़ेगा। जब तक पुरोहित समाज विवाह के ढांचे में बदलाव नहीं करेगा, तब तक अंतरजातीय विवाह सफल नहीं होंगे। जिस दिन पुरोहिताई जाति विशेष का नहीं, बल्कि व्यक्ति का काम बनेगी, उस दिन जातिगत विवाह व्यवस्था बदलेगी, जातिगत संबंध बदलेंगे और कर्म का सम्मान परिवार की संस्कृति बन जाएगी।

अगर इस्लामिक मस्जिदें आने से पहले हम यह बुनियादी बातें हासिल कर लेते, तो यहां मस्जिदें नहीं बनतीं, ईसाइयों के चर्च नहीं बनते। मुस्लिम आक्रमणकारी या ईसाई उपनिवेशवादी यहां आते भी तो वे सफल नहीं होते। दूसरे शब्दों में आज आध्यात्मिक लोकतंत्र हर समाज में समानता की बुनियादी जरूरत है। अगर ब्राह्मण पंडित आध्यात्मिक लोकतंत्र की बात कहते और मंदिरों में आध्यात्मिक समानता को ईश्वर प्रदत्त सिद्धांत के रूप में अपनाया जाता तो आज देश अलग दिशा में जा रहा होता।

समानता वाले समाज के निर्माण में मंदिर, मस्जिद और चर्च की बड़ी अहम भूमिका है। इससे पहले कि जातिगत असमानता और कर्म का अपमान जैसी बातें दूर करने का संघर्ष शुरू होता, कुछ हिंदूवादी यह कहने लगे हैं कि शुद्ध शाकाहार ही राष्ट्रवादी भोजन है। सभी मांसाहारी अभारतीय हैं। अब मांसाहारी शूद्र, दलित और आदिवासी शाकाहारी ब्राह्मण, बनिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तुलना में हीन हो गए हैं। आरएसएस सबसे शक्तिशाली और नया शाकाहारी वर्ग बन गया है, जो असमानता को खत्म नहीं करता बल्कि उसे बनाए रखता है। इसके साथ काम करने वाला कोई भी शूद्र दृढ़तापूर्वक यह नहीं कह सकता कि राष्ट्रवाद को लोगों के खान-पान के साथ नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि ऋग्वेद लिखे जाने के समय से ही उन्हें बौद्धिक रूप से निचले दर्जे का माना जाता रहा है।

इन्हें मालूम ही नहीं कि तीन हजार साल पहले हड़प्पाकालीन लोग हमारी महान सभ्यता का निर्माण नहीं कर पाते, अगर शाकाहार ही उनका खान-पान होता। एक हजार साल पहले तक तो भारत में सब्जियों का उत्पादन ही नहीं होता था। समानता को हर क्षेत्र में नकारा जाता है। यह सिर्फ हिंदू समुदाय का मुद्दा नहीं है, यह समस्या भारतीय इस्लाम और भारतीय ईसाइयत में भी है। भारतीय इस्लाम में महिलाओं की समानता और कर्म के सम्मान को लेकर बड़ी गंभीर समस्याएं हैं। भारतीय ईसाइयत, खासकर कैथोलिक चर्च भी असमानता की समस्या से ग्रस्त है। जब दूसरे निजी स्कूल नहीं थे, तब ईसाई निजी स्कूल ही पैसे लेकर अमीर ब्राह्मण और बनिया को अंग्रेजी सिखाते थे। अंग्रेजों के लिए पैसा ही भगवान बन गया। अंग्रेजी की वजह से भी समाज में बड़ी असमानता पैदा हुई। ईसाई संस्थान गरीबों के लिए कुछ स्कूल चलाते हैं, लेकिन आज भी वे अंग्रेजी की शिक्षा मुख्य रूप से अमीरों को ही बेचते हैं। भारत में अमीर अगड़ी जाति के लोग हैं, जो हिंदू धर्म का ढांचा बनाते और उसे चलाते हैं। इसलिए असमानता को बनाए रखने के लिए यह एक-दूसरे की मदद के समान है।

गांवों में कोई गुणात्मक बदलाव आज भी नहीं आया है। मंदिर उसी जाति धर्म के आधार पर चल रहे हैं। ये अंतरजातीय शादियों में लड़के और लड़की की हत्या को सही ठहराते हैं। मंदिर के भीतर प्रवेश करने वाले दलित पर हमले को जायज बताते हैं। हर दलित एक वोट भी है, इसलिए मंदिर के गर्भ गृह के बाहर तक उन्हें जाने की इजाजत है। दलितों की रक्षा वोट करता है, ईश्वर नहीं। मंदिर का पुजारी अब भी जाति-धर्म की व्यवस्था के अनुसार काम करता है, जो असमानता की जननी है। अगर हम मंदिरों को नहीं बदल सकते तो हमें अपने बच्चों को हर सुबह स्कूल में यह प्रार्थना करने के लिए कहना चाहिए। अगर मंदिर का भगवान भारत में समानता नहीं ला सकता तो स्कूल के भगवान को इसे लाने दीजिए।

हे ईश्वर, तुमने हम सबको समान बनाया/हे ईश्वर, तुमने हर स्‍त्री-पुरुष को समान बनाया/हे ईश्वर, तुमने हमारी कोई जाति नहीं बनाई/हे ईश्वर, तुमने हमें अस्पृश्यता की अनुमति नहीं दी/हे ईश्वर, तुमने हमें काम करने और जीने के लिए कहा/हे ईश्वर, तुमने हमें माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहा/हे ईश्वर, हम अभिमानी भारतीय आपसे प्रार्थना करते हैं/हे ईश्वर, तुमने हम सबको समान बनाया।

(चिंतक, राजनीति-शास्‍त्री और हैदराबाद में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूशन ऐंड इनक्लूशिव पॉलिसी के डायरेक्टर)

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