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स्मृति: जल रही शिलूका कोई

वह जितनी डोगरी की लेखिका थीं, उतनी ही हिंदी की भी थीं। अलबत्ता, हिंदी वाले उन्हें अपनी ही भाषा की लेखिका...
स्मृति: जल रही शिलूका कोई

वह जितनी डोगरी की लेखिका थीं, उतनी ही हिंदी की भी थीं। अलबत्ता, हिंदी वाले उन्हें अपनी ही भाषा की लेखिका मानते थे। इसका कारण शायद यह था कि वे हिंदी लेखकों से अधिक घुली-मिली थीं। चाहे महादेवी हों या अज्ञेय या धर्मवीर भारती सबके साथ उनके मधुर आत्मीय संबंध थे। धर्मवीर भारती को वे राखी बांधती थीं। सातवें दशक में जो लोग धर्मयुग के पाठक रहे उन्हें पद्मा सचदेव का लिखा याद होगा। उनकी तस्वीरें भी।

साहित्य अकादेमी की सीढ़ियों पर उनकी खिलखिलाती हंसी की आवाज सुनाई पड़ती थी, तो लोग जान जाते थे पद्मा जी आ रही हैं। वे युवा लेखकों के रचना पाठ में न सिर्फ उपस्थित रहती थीं बल्कि उनसे मिलतीं और हौसला अाफजाई करती थीं।

उनकी रचनात्मक ताकत लोकगीत थे। उनमें लोक और नागर का अद्भुत संगम था। बरसों वे दिल्ली में रहीं लेकिन उन पर अभिजात्य रंग नहीं चढ़ा। एक खुलापन उनके व्यक्तित्व और लेखन में रहा। 17 अप्रैल 1940 में जम्मू से 40  किलोमीटर दूर एक ऐतिहासिक गांव पुरमंडल के प्रतिष्ठित राजपुरोहित परिवार में जन्मीं पद्मा सचदेव ने बारह-तेरह वर्ष की उम्र में लिखना शुरू किया था।

उन्होंने डोगरी लोकगीतों से प्रभावित होकर डोगरी में कविता लिखना शुरू की थी। उन्हें डोगरी की पहली आधुनिक कवयित्री भी कहा जाता है। उनके पास लोकगीतों का दर्द तो था ही, निजी दुख भी थे। उनके पिता भारत-पाक विभाजान के दौरान मारे गए थे। वे यह जख्म जीवनभर नहीं भूल सकीं। उनकी रचनाओं में शायद इसलिए एक कशिश रहती थी।

साहित्य अकादेमी की ओर से जब उन्हें 2019 में फेलो बनाया गया तो उन्होंने कहा था, “बचपन में लोकगीतों से मिली प्रेरणा से लिखना सीखा पर हिंदी में लिखने के लिए मुझे धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने प्रेरित किया था। जब मुझे साहित्य अकादेमी मिला तो विश्वास ही नहीं हुआ कि मुझे यह सम्मान मुल्कराज आनंद, नामवर सिंह और रशीद अहमद सिद्दीकी के साथ मिल रहा है। बचपन में डोगरी लोकगीत सुनकर मैं चमत्कृत हो जाती थी कि कौन है जो इन्हें लिखता है? तब मैं दस-बारह साल से ही छंद जोड़ने लगी। गांव में रहकर मैंने लोक गीतों को करीब से जाना।”

कम महिला लेखिकाएं हैं, जिन्हें अकादेमी में फैलो होने का सम्मान प्राप्त हुआ है। वे इस पंक्ति में महादेवी वर्मा, बाल अम्मा, कुर्तुल-एन-हैदर, अमृता प्रीतम, अनीता देसाई और कृष्णा सोबती के साथ शामिल हैं। पद्मा जी अपने गद्य के लिए भी जानी जाती थीं। ऐसा गद्य जो बहुत सरस, आत्मीय, अंतरंग तथा पारदर्शी है, जिसमें प्रवाह देखा जा सकता है। अज्ञेय के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उन्होंने अपने शब्दों में अज्ञेय के व्यक्तित्व और अपनी यादों को साकार कर दिया था। लिखने के अलावा उन्होंने रेडियों के लिए भी काम किया। कुछ बरस जम्मू रेडियो के अलावा उन्होंने दिल्ली में डोगरी समाचार विभाग में भी काम किया। उन्हें कई सम्मान मिले। शायद ही कोई सम्मान हो, जो उन्हें न मिला हो। उन्हें पद्मश्री, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, सोवियत लैंड पुरस्कार, सरस्वती सम्मान और साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता से नवाजा गया था। साहित्य अकादेमी पुरस्कार तो उन्हें 1971 में ही मिल गया था। उन्हें यह पुरस्कार ‘मेरी कविता मेरे गीत’ के लिए मिला था। 2016 में पुस्तक ‘चित्त चेते’ के लिए उन्हें 25वां सरस्वती सम्मान मिला था। यह उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक थी।

पद्मा जी कहती थीं, “विचार में कविता अपने आप आती है। गद्य को लाना पड़ता है।” उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे जिनमें ‘जम्मू एक शहर था’ काफी चर्चित हुआ था। उनकी एक कविता है जो भूले नहीं भूलती।

शिलुका*

देह जलाकर मैं अपनी

लौ दूं अंधेरे को

जलती-जलती हंस पडूं

जलती ही जीती हूं मैं

जैसे बटोत के जंगल में

जल रही शिलुका कोई

देवदारों की धिया (बेटी)

चीड़ों का मुझे आशीष

अंधेरे की मैं रोशनी...

जंगल का हूं मोह मैं

जो तू है वही हूं मैं

अपनी मृत्यु पर रोई

यह बस्ती टोह ली

चक्की में डालकर

बांह पीसती हूं मैं

लोक पागल हो गया

तुझे कहां ढूंढता रहा

तू तो मेरे पास था

तभी तो जीती हूं मैं

मैं एक कितबा हूं

लिखा हुआ हिसाब हूं

मैं पर्णकुटिया तेरी

लाज तुम रखना मेरी

रमिया रहीमन हूं मैं

कुछ तो यकीनन हूं मैं!

(*चीड़ की लकड़ी, पहाड़ी घरों में मोमबत्ती की तरह जलाई जाती है)

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