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बिहार: चौंकाऊ नतीजे, बेमन का राज

“नई फिजा तैयार करके 'मैन ऑफ द मैच' तो तेजस्वी ही, चुनावी प्रबंधन के सहारे भाजपा अब नीतीश का बड़ा...
बिहार: चौंकाऊ नतीजे, बेमन का राज

“नई फिजा तैयार करके 'मैन ऑफ द मैच' तो तेजस्वी ही, चुनावी प्रबंधन के सहारे भाजपा अब नीतीश का बड़ा भाई”

बिहार चुनाव के मुख्य स्वर और नतीजों में मेल नहीं दिखता है। कई मामलों में नतीजे अप्रत्याशित हैं। बिहार में मतदान शुरू होने तक बदलाव की बयार दिख रही थी। बिहार जाति-धर्म से ऊपर उठता लगा था। भावनात्मक पहचान की जगह रोजगार, बदहाली, पलायन, महंगाई जैसे मुद्दे प्रभावी होते दिख रहे थे। पहचान की राजनीति की जगह मुद्दों की राजनीति प्रमुख होती लग रही थी और तेजस्वी जैसे एकदम नए लड़के का राजनैतिक उदय होता दिख रहा था। लेकिन नतीजे में वही सरकार, वही मुख्यमंत्री, और वही नीतियां भी जारी रहती दिख रही हैं।

गौर से देखेंगे तो चुनाव, मतदान के दौरान बदला। अब आए नतीजे भी बताते हैं कि पहले दौर में तेजस्वी यादव की अगुआई वाला महागठबंधन काफी आगे था। यह तब हुआ जब उस इलाके में भाजपा के खिलाफ सबसे ज्यादा नाराजगी वाले मुसलमान समुदाय की आबादी दस फीसदी के आसपास ही है। लेकिन चुनाव यहीं से बदला। दूसरे दौर में बराबरी पर आ गया और तीसरे दौर में एनडीए ने बस बाजी जीतने का ‘करिश्मा’ कर लिया जबकि उन इलाकों में मुसलमान आबादी बीसेक फीसदी तथा सीमांचल में तो कहीं-कहीं साठ फीसदी से भी ज्यादा है।

ठीक यही वह वक्त है, जब चौबीसों घंटे चुनावी चिंता में लगे रहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘कोर्स करेक्शन’ किया और कश्मीर, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर तथा तेजस्वी के दस लाख नौकरियों के वादे पर सवाल और मुफ्त करोना टीका जैसे मुद्दों का अपेक्षित प्रभाव न देखकर ‘जंगल राज’ का मुद्दा छेड़ा। अपने प्रचार में नीतीश कुमार भी लालू-राबड़ी के पंद्रह साल बनाम ‘सुशासन’ के पंद्रह साल को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन प्रधानमंत्री ने कामकाज की जगह ‘जंगल राज’ के जुमले को उठाया। बदलाव की बयार और पहले दौर के अच्छे संकेत के बाद महागठबंधन के आधार सामाजिक समूहों, यादव और मुसलमान इतने अधिक उत्साहित थे कि उनका हावभाव बदला, वे ‘लाउड’ हुए।

 नरेंद्र मोदी जैसे माहिर खिलाड़ी ने मौके पर चोट की और युवा तेजस्वी ने अपने अभियान की एकमात्र गलती कर दी कि बाबू साहब लोगों की पहले की चलती और लालू राज में हुए बदलाव का सवाल उठा दिया। अचानक अगड़े (जिनका नीतीश और भाजपा से मोहभंग पूरा दिख रहा था), अति पिछड़ा और महिलाओं को ‘जंगल राज’ वास्तविक खतरा लगने लगा। शराबबंदी समाप्त करने की चर्चा (सरकारी नौकरियां देने का खर्च जुटाने के संदर्भ में) ने भी डर बढ़ाया। इन समूहों ने अपनी नाराजगी भुलाकर एनडीए को वोट दिया। यह पहले की तरह उत्साह से दिया या 'सुशासन' के पक्ष में दिया, यह दावा नहीं किया जा सकता। लेकिन मोदी (जिनके पास काडर और साधन दोनों की भरमार है) और नीतीश समर्थकों ने पुरानी उदासीनता छोड़ी और उन इलाकों में भाजपा या एनडीए को जिताया, जहां महागठबंधन झाड़ू लगाता दिख रहा था। लेकिन जाति के संगठन के भरोसे और विचारधारा की बात को तिलांजलि देकर सिर्फ हवा के सहारे महल खड़ा करने की महागठबंधन की सीमा भी साफ दिख गई।

लेकिन नतीजे एनडीए की अपनी लड़ाई और फूट को भी नहीं छिपाते। भाजपा ने चिराग पासवान और लोजपा के साथ जो खेल खेला, एक बार भी अपने विज्ञापन में अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार की तस्वीर नहीं दी, नीतीश और उनके साथी सुशील मोदी (जो आडवाणी के प्रभावी रहने तक भाजपा के सबसे मजबूत और लोकप्रिय नेता माने जाते थे) के खिलाफ हवा बनाने का भी साफ असर दिखा कि नीतीश कुमार सबसे अलोकप्रिय नेता बन गए जबकि उनके शासन का रिकॉर्ड बहुत बुरा नहीं है। नीतीश कुमार ने भी कोरोना महामारी के दौरान जो सब नाटक किया, उससे भी उनके खिलाफ नाराजगी हुई और दो बार बड़ी राजनैतिक पलटी खाने के चलते उनकी छवि वैसे ही अविश्वसनीय हो गई है। चुनाव नतीजों में यह साफ दिखता है कि भाजपा का एक नंबर पार्टी बनने का सपना भले पूरा न हुआ लेकिन सर्वाधिक फायदा उसे ही हुआ है। अगर लोकसभा चुनाव से तुलना करें तो एनडीए की लगभग सौ सीटें कम हुई हैं।

नीतीश कुमार का कद घटने, जदयू की सीटें सबसे ज्यादा कम होने और भाजपा के सबसे ज्यादा बढ़ने के बाद यह नतीजा निकालना गलत नहीं होगा कि भाजपा को काफी कुछ हासिल हो गया है। बिहार के हासिल से भी ज्यादा बंगाल, असम और फिर उत्तर प्रदेश के अगामी चुनावों पर बिहार की ‘हवा’ का असर कम पडे़गा। अगली सरकार के संचालन में वह छोटे भाई की जगह बड़ा भाई बन जाएगी और मुख्यमंत्री बनकर भी नीतीश कुमार को छोटे भाई की तरह काम करना पडे़गा।

लेकिन चुनाव नतीजों का सबसे दिलचस्प पक्ष यही है कि इसने छोटे भाई-बड़े भाई का झगड़ा खुद ब खुद निपटाकर सबको ‘औकात’ में रहने की सीख दी है। जो कोई लक्ष्मण रेखा लांघेगा, वह तो जाएगा ही, उसका पूरा शीराजा बिखर जाएगा। भाजपा की सफलता और केंद्रीय नेतृत्व द्वारा ‘कुछ लोगों’ का कद सीमित करने की कोशिश के नतीजे की भी यही मजबूरी है कि उसे नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना होगा और अगर नीतीश चाहेंगे तो सुशील मोदी को भी उप-मुख्यमंत्री बनाना होगा। सिर्फ नीतीश की इच्छा का ही नहीं, जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी जैसों की इच्छा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि उनको भी ठीक वही चार-चार स्थान मिले हैं, जिनमें एक के भी खिसकने से एनडीए अल्पमत में आ जाएगा। सो, अगर भाजपा को सरकार पर पकड़ बढ़ाने के लिए कोई ‘ऑपरेशन’ चलाना होगा (ऐसा वह करती ही रही है) तो काफी इंतजार के बाद ऐसा करना होगा।

नीतीश कुमार को सातवीं बार और कार्यकाल के हिसाब से चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलती लग रही है और एक अगड़ा मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का रिकॉर्ड तोड़ने का अवसर भी, लेकिन इस कुर्सी और सत्ता की असलियत का पता भी उनको होगा। काफी कुछ अच्छा करने के बाद भी उनके खिलाफ इतनी नाराजगी सिर्फ भाजपा नेतृत्व या संघ परिवार के षड्यंत्र से ही नहीं थी। लोग भी नाराज हैं, शासन के तरीके से, बढ़ते भ्रष्टाचार और अफसरशाही से, खुद नीतीश कुमार की ‘थकान’ और बढ़ती उदासीनता से। मुख्यमंत्री की गद्दी के लिए ऐसी उदासीनता शोभा नहीं देती और जब आप बीच चुनाव में ‘अंतिम बार’ कहकर वोट मांगते हैं तो इसी छवि पर मोहर लगाते हैं। अगर इतना मन भर गया हो तो यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि क्या करना उचित होगा लेकिन बूढ़ा सुग्गा पोस नहीं मान सकता। इसलिए यह उम्मीद करना कि अब नीतीश कुमार वैचारिक दृढ़ता दिखाएंगे, जदयू संगठन पर ध्यान देंगे और दौड़ कर काम करते हुए (जो चीज अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी और योगी आदित्यनाथ जैसे लोगों में दिखती है) नई कल्पनाशील योजनाएं लागू करेंगे बेमानी है। लेकिन बिहार विधानसभा का गणित और वहां एनडीए की बनावट एक न्यूनतम जरूरत तो बनाती है कि किसी साझा कार्यक्रम और अनुशासन के साथ सरकार चलाई जाए। इसकी मुख्य जिम्मेदारी मुखिया होने के नाते नीतीश कुमार की ही होगी। वे इतना भी नहीं कर पाए तो भाजपा या दूसरे प्रतिद्वंद्वी उनकी जमीन को हड़पेंगे ही।

बिहार चुनाव के ‘मैन ऑफ द मैच’ तो हारकर भी तेजस्वी ही रहेंगे। राजद की सीटें पांच कम हुई हैं लेकिन यह चुनाव उन्होंने जबरदस्त ढंग से लड़ा, एक छोटी भूल को छोड़कर। चुनाव का एजेंडा सेट करने से लेकर अपने दल, अपने गठबंधन और अपने परिवार में अपना नेतृत्व मनवाने तक। रोजगार, पलायन, बिहार की बदहाली के सवाल को (अपने मां-बाप के शासन के खराब रिकॉर्ड के बावजूद), ‘सुशासन’ की पोल खोलने के मामले को न सिर्फ दमदार ढंग से उठाया, बल्कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा की चुनाव प्रबंधन में कुशल टीम की चुनौती को निपटाया। लाख प्रयास करके भी भाजपा की टोली चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं करा पाई लेकिन तेजस्वी को भी लग गया होगा कि भाजपा जैसे साधन, कार्यकर्ता और चुनाव प्रबंधन में संपन्न विरोधी से लड़ने के लिए अभी और तैयारियां करनी होंगी। मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी जैसे पुराने सहयोगियों को साथ न रख पाना, कांग्रेस को उसकी शक्ति और तैयारी से ज्यादा सीटें देना और कम्युनिस्टों को कुछ और ज्यादा जगह देने की जरूरत अब वे भी महसूस कर रहे होंगे। कांग्रेस को रखने का लाभ हुआ, कांग्रेस को अपेक्षाकृत कमजोर सीटें मिलीं पर कांग्रेस ने नेता के रूप में तेजस्वी को स्वीकार करने की ज्यादा बड़ी कीमत वसूली। कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रदर्शन शानदार रहा और उससे महागठबंधन को भी लाभ हुआ। हालांकि इस किस्म की कमी-बेसी लगी रहती है और यही सब समीक्षा का विषय होता है।

लेकिन इस बार बिहार का चुनाव प्रबंधन कौशल और संसाधनों के बरक्स जनता के मुद्दे और स्वाभाविक नाराजगी/पसंदगी के बीच भी था। नतीजों से लग रहा है कि प्रबंधन कौशल और संसाधन भारी पड़ रहा है। हल्की सावधानी से नतीजे दूसरी तरफ भी जा सकते थे। विपक्ष के साथ अपनी राजनीति को एक मुकाम तक ले आए तेजस्वी के लिए ही नहीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए भी चुनाव का संदेश यही है कि संगठन और प्रबंधन पर ध्यान दिए बगैर भाजपा से लड़ाई मुश्किल है। भाजपा ने बिहार में सबसे अच्छा प्रदर्शन करके एक मुकाम तो हासिल कर लिया है। अब यहां से उसके लिए बिहार को जीतना आसान लक्ष्य लग रहा है।

उससे भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि तेजस्वी यादव एक सितारे के तौर पर उभरे हैं। अगर वे मुख्यमंत्री बनते तो 'ऑल इंडिया स्टार' थे, वरना वे बिहार की राजनीति के नए स्टार तो हैं ही और भविष्य में उन पर सबकी नजर होगी। वे सिर्फ बिहार के ही नहीं, विपक्ष की राजनीति के भी महत्वपूर्ण खिलाड़ी होंगे। उन्होंने जिस तरह कम साधनों के बूते लगभग अकेले चुनाव का एजेंडा तय किया और भाजपा-जदयू की साझा ताकत का मुकाबला किया, वह काबिले तारीफ है। उनके साथियों में कम्युनिस्ट पार्टियों से तो उन्हें मदद मिली। गौर करने की चीज है कि कम्युनिस्टों के पास साधन भले कम हों लेकिन कार्यकर्ता, संगठन और सिद्धांत हैं। कांग्रेस ने उनकी विश्वसनीयता और धर्मनिरपेक्षता को पुख्ता किया और मुसलमान वोट का भारी बहुमत हासिल करने में मदद मिली होगी। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और बिहार के जानकार हैं)

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