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आवरण कथा/नजरिया: पांच राज्यों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी में जान फूंकना सबसे बड़ी चुनौती

“कांग्रेस पार्टी के अंदर की कलह को इस तरह निपटाए कि बाहर की अपेक्षाएं कुछ पूरी हो सकें” पांच...
आवरण कथा/नजरिया: पांच राज्यों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी में जान फूंकना सबसे बड़ी चुनौती

“कांग्रेस पार्टी के अंदर की कलह को इस तरह निपटाए कि बाहर की अपेक्षाएं कुछ पूरी हो सकें”

पांच विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी में आतंरिक कलह तेज है। दूसरी तरफ राजनीतिक पंडित, अन्य दलों के नेता, जागरूक नागरिक भविष्य की राजनीति के लिए कांग्रेस की भूमिका पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। उनमें अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस से वाजिब अपेक्षाएं रखने वाले लोग भी हैं। अंदरूनी तकरार और भविष्य की राजनीति में कांग्रेस की भूमिका, दोनों मुद्दे एक-दूसरे से जुड़े हैं। कांग्रेस के नेहरू-युग के बाद के इतिहास को देखते हुए यह लगता नहीं कि पार्टी परिवार को छोड़ कर अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करेगी। इन चुनाव परिणामों के बाद भी अगर कांग्रेस परिवार-मुक्त नहीं होती है, तो नरेंद्र मोदी कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने मिशन को और तेज करेंगे। कांग्रेस के विशाल अस्थि-पंजर में जो बचा-खुचा मांस है, उसे नोचने के लिए आम आदमी पार्टी की होड़ और तेज होगी। जो गैर-एनडीए नेता 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में क्षेत्रीय पार्टियों का गठबंधन चाहते थे, उनकी पोजीशन कमजोर होगी।

भारत जैसे विशाल देश की राजनीति में पहला स्थान बनाने के लिए जिस नेतृत्व क्षमता और सांगठनिक मजबूती की जरूरत है, आज की कांग्रेस में उसका अभाव दिखता है। कांग्रेसी नेता आज भी इस ख्याल में रहते प्रतीत होते हैं कि सत्ता घूम-फिर कर कांग्रेस के पास ही आएगी। 2014 और 2019 की पराजय के बाद भी कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता संगठन के लिए निरंतर काम करने को तैयार नहीं हैं। वहां होड़ परिवार के प्रति वफादारी को लेकर है।

कांग्रेस आलाकमान और उसके वफादार कुछ फौरी किस्म की गतिविधियां करके चमत्कारों की उम्मीद में जीते हैं। अगर पांच विधानसभा चुनावों के परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आ जाते, तो सारा श्रेय आलाकमान को दिया जाता और वफादार असंतुष्टों पर धावा बोल देते। ग्रुप 23 के असंतुष्ट कहे जाने वाले नेता भी सोनिया लायलिस्ट ही हैं। सत्ता के अभाव में वे केवल शिकायत करना जानते हैं। जमीन पर और लगातार काम करने की न उनकी ट्रेनिंग है, न इच्छा। कॉरपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के बल पर राजनीति करने वाली दो धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों - भाजपा और आप - के विस्तार के पीछे कांग्रेस का बिखराव एक प्रमुख कारण है। 

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और तृणमूल कांग्रेस के अलग हो जाने के बावजूद 2014 से पहले तक कांग्रेस देश की पहले स्थान की पार्टी थी। भाजपा और आप कांग्रेस को कोसते हुए उसी के नेताओं/कार्यकर्ताओं/मतदाताओं को साथ मिला कर अपना संवर्धन कर रही हैं। बची-खुची कांग्रेस परिवार के कब्जे में रहे, या पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र बहाल करके एक विकेंद्रित और सामूहिक नेतृत्व विकासित करे, दोनों स्थितियों में 2024 के चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर करीब 200 सीटों पर वही भाजपा के मुकाबले में होगी। यह महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसे नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इनमें से अधिकांश सीटें फिलहाल भाजपा के पास हैं।

कांग्रेस की अंदरूनी कलह का मसला पार्टी से बाहर के लोगों की अपेक्षाओं के साथ जुड़ा हुआ है। आलाकमान कांग्रेस से की जाने वाली अपेक्षाओं को पहले स्थान पर रख कर विचार करेगा, तो पार्टी पर अपनी गिरफ्त कायम रखने की मंशा उसे छोड़नी होगी। कांग्रेस की मजबूती का एक रास्ता यह हो सकता है कि कांग्रेस से अलग हुईं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और तृणमूल कांग्रेस वापस कांग्रेस में आ जाएं। यह होगा तो कांग्रेस से भाजपा में गए नेता-कार्यकर्ता भी वापस लौट सकते हैं। वैसी स्थिति में आगामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेसनीत यूपीए भाजपानीत एनडीए को कड़ी टक्कर दे सकता है।    

कांग्रेस नेता संघ/भाजपा के बरअक्स कांग्रेस की विचारधारा की बात करते हैं, लेकिन उनके दावे में दम नहीं होता। भाजपा के बरक्स बार-बार आइडिया ऑफ इंडिया की बात करने वाले शशि थरूर जैसे कांग्रेसी नेता यह क्यों नहीं देख पाते कि कॉरपोरेट पूंजीवाद का प्लेटफॉर्म भाजपा को कांग्रेस ने ही उपलब्ध कराया है। पी.वी. नरसिंह राव के प्रधानमंत्रीत्व में वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 1991 में जब नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं, तब भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने भाजपा का कारज सिद्ध कर दिया है। सांप्रदायिकता के मामले में भी कांग्रेस संविधान के नहीं, भाजपा के साथ है। यानी वह आरएसएस/भाजपा की सांप्रदायिकता की बड़ी लकीर के पीछे छोटी लकीर लेकर चलती है। राहुल गांधी बार-बार कह चुके हैं कि वे निजीकरण/विनिवेशीकरण के खिलाफ नहीं हैं। एक बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में आर्थिक नीतियों के पक्ष में नेहरू को उद्धृत किया तो चंद्रशेखर ने उन्हें टोकते हुए कहा कि पूंजीवाद के पक्ष में नेहरू को उद्धृत करना मुनासिब नहीं है।

कांग्रेस विचारधारात्मक रूप से भाजपा का विकल्प नहीं रही, भाजपा 1991 में अवतरित कांग्रेस का विकल्प बन चुकी है। कांग्रेस एक मुकम्मल संगठन और विचारधारा के बल पर भाजपा का विकल्प हो सकती है। मुकम्मल संगठन पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र से हासिल होगा, और मुकम्मल विचारधारा संविधान को ईमानदारी से आत्मसात करके हासिल होगी।

दरअसल, कांग्रेस में मंथन पार्टी नेतृत्व और संगठन के साथ विचारधारा के सवाल पर भी होना चाहिए। किसी भी राजनीतिक पार्टी में विचारधारा नेतृत्व से अहम होती है। विचारधारा के सवाल पर मंथन देश के प्रगतिशील और सेकुलर बुद्धिजीवी भी करें, तो उससे कांग्रेस और अन्य पार्टियों को मदद मिल सकती है। तब देश की राजनीति पर कसा कॉरपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का शिकंजा कुछ ढीला पड़ सकता है। लेकिन समस्या यह है कि कांग्रेस के समर्थक बुद्धिजीवियों तक को भाजपा और आप की तेजी और ताजगी के सामने कांग्रेस की सुस्ती और पुरानापन बोझ लगते हैं।

फैसला कांग्रेस को करना है। आशा की जानी चाहिए कि कांग्रेस अंदर की कलह को इस तरह निपटाएगी कि पार्टी के बाहर की अपेक्षाएं कुछ हद तक पूरी हो सकें।

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक हैं। विचार निजी हैं)

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