Advertisement

माधवपुरा से पीएमसी तक- दो दशकों के सफर में 215 सहकारी बैंकों पर लगे ताले

करीब दो दशक पहले माधवपुरा मर्केंटाइल कोऑपरेटिव  बैंक (एमएमसीबी) के घोटाले ने पूरे देश में हलचल पैदा...
माधवपुरा से पीएमसी तक- दो दशकों के सफर में 215 सहकारी बैंकों पर लगे ताले

करीब दो दशक पहले माधवपुरा मर्केंटाइल कोऑपरेटिव  बैंक (एमएमसीबी) के घोटाले ने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी थी। 2001 में एमएमसीबी ने शेयर ब्रोकर केतन पारेख को करीब 1200 करोड़ रुपये के कर्ज दिए। उसी समय शेयर बाजार भरभराकर ढह गए और इसके साथ ही एमएमसीबी की लगभग सारी जमाराशियां स्वाहा हो गईं और करीब 50 हजार छोटे जमाकर्ताओं और कई बैंकों का पैसा फंस गया। उस समय कोऑपरेटिव बैंकों की निगरानी बढ़ाने और घोटालों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए शेयर ब्रोकरों को कर्ज देने पर रोक लगा दी और सरकार ने कोऑपरेटिव बैंकों में ढांचागत सुधार के लिए कदम उठाने के वादे किए। लेकिन वादे, वादे ही रहे और पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक का नया घोटाला सामने आया है। इसमें करीब 51,000 जमाकर्ताओं का पैसा फंसा है। इसमें रियल्टी कंपनी हाउसिंग डवलपमेंट एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर लि. (एचडीआइएल) को पिछले दस वर्षों के दौरान 21000 से ज्यादा फर्जी लोन खाते खोलकर 4355 करोड़ रुपये दे दिए गए। इसमें सारे नियमों को ताक पर रखकर 70 फीसदी कर्ज सिर्फ एचडीआइएल को दे दिया गया। इन दो दशकों के दौरान कुछ खास नहीं बदला। हालांकि घोटाले रोकने के लिए बातें तो खूब हुईं लेकिन घोटालों की पुनरावृत्ति और बैंक बंद होने का क्रम रुक नहीं पाया। बीते 12 वर्षों में 215 बैंकों में ताले लगे। इनमें से 190 बैंकों के जमाकर्ताओं को मुआवजा मिल चुका है जबकि 25 बैंकों के मामले लंबित हैं।

12 साल में 215 कोऑपरेटिव बैंक फेल हुए

ऐसा नहीं कि पिछले दो दशकों में सिर्फ ये दो कोऑपरेटिव बैंक फेल हुए। इन दो दशकों में फेल होने वाले कोऑपरेटिव बैंकों की संख्या सैकड़ों में है। बड़े यानी कई राज्यों में या फिर किसी एक ही राज्य में अनेक शाखाओं के जरिये कारोबार करने वाले कोऑपरेटिव बैंक फेल होते हैं तो फंसी रकम और जमाकर्ताओं की बड़ी संख्या होने के कारण चर्चाओं में आ जाते हैं। जबकि छोटे कोऑपरेटिव बैंकों के मामले में मुट्ठीभर जमाकर्ता परेशान होते हैं और अपनी रकम गवांकर चुप बैठ जाते हैं। फेल होने वाले कोऑपरेटिव बैंकों की संख्या समस्या की भयावहता दर्शाती है। डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआइसीजीसी) के अनुसार बीते वित्त वर्ष 2018-19 में ही सात बैंकों के क्लेम किए गए और तय व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक जमाकर्ता को एक लाख रुपये तक का मुआवजा दिया गया। ये सभी कोऑपरेटिव बैंक हैं। डीआईसीजीसी के पास 25 और कोऑपरेटिव बैंकों के दावे लंबित हैं। पिछले 12 वर्षों में डीआइसीजीसी बंद हो चुके 190 बैंकों के जमाकर्ताओं को मुआवजा दे चुका है। जमाराशियों की बीमा सुरक्षा की जैसी व्यवस्था है, इन बैंकों के लाखों जमाकर्ताओं को अधिकतम एक लाख रुपये का मुआवजा मिलता है, जबकि वास्तविक नुकसान कई गुना हो सकता है।

जमाकर्ताओं को नुकसान हुआ नहीं, बल्कि लूट हुई

पीएमसी बैंक घोटाला अब तक तीन निर्दोष लोगों की जानें ले चुका हैं। क्रिकेट कमेंटेटर हर्ष भोगले ने जमाकर्ताओं के पक्ष में ट्विटर अभियान चलाकर जमाकर्ताओं का नुकसान नहीं बल्कि लूट करार दिया है। बैंक से अपना पैसा निकालने के लिए दर-दर भटक रहे जमाकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट से भी कोई राहत नहीं मिली। जमाकर्ताओं ने 40,000 रुपये तक निकालने की आरबीआइ की पाबंदी को खारिज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण ली थी। सुप्रीम कोर्ट ने जमाकर्ताओं को हाई कोर्ट में याचिका दायर करने को कहा है।

दस साल से चल रहा था लूट का खेल

पीएमसी बैंक में पिछले दस साल से आरबीआइ के सारे नियमों और दिशानिर्देशों को नजरंदाज करके हजारों फर्जी लोन खाते खोले गए और कर्ज बांटे गए। फर्जी बैंक खातों से यह पैसा रियल्टी समूह एचडीआइएल के प्रमोटरों राकेश वधावन और उसके पुत्र सारंग के खातों में ट्रांसफर कर दिया गया। सवाल है कि आरबीआइ और बैंक के ऑडिटर गड़बड़ी पकड़ने में क्यों नाकाम रहे और घोटाले की रकम हजारों करोड़ रुपये को पार कर गई। इसकी शुरूआत फर्जी खाते खोलने से होती है। जैसा कोऑपरेटिव बैंकों का नियम है, कर्ज लेने वाले को बैंक का सदस्य बनना होता है। गड़बड़ी यहीं से हुई। बैंक ने अधिकारियों ने फर्जी नामों से 21,049 लोन खाते खोले और ग्राहकों की पहचान यानी केवाईसी का खुलेआम उल्लंघन किया गया। इन लोन खातों में 4355 करोड़ रुपये के कर्ज दिए गए। जांच में पता चला कि इसमें से 2146 करोड़ रुपये एचडीआइएल के वधावन पिता-पुत्र के बैंक खातों में ट्रांसफर कर दिए गए। राकेश वधावन के एक बैंक खाते में अगस्त तक 2009 करोड़ रुपये जमा थे। बैंक और एचडीआइएल के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के बीच अनुचित कारोबारी रिश्ते भी घोटाले की वजह बने। पीएमसी बैंक में चेयरमैन रहे वरियाम सिंह के पास सितंबर 2017 तक एचडीआइएल की 1.9 फीसदी हिस्सेदारी थी। वह एचडीआइएल में 2005 से 2015 के बीच तक नॉन-एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भी रहे। बैंक ने इसी कार्यकाल के दौरान अधिकांश लोन मंजूर किए।

ऑडिटर और आरबीआइ नाकाम साबित हुए

बैंकों में परिचालन और वित्तीय अनुशासन सुनिश्चित करने के लिए आरबीआइ द्वारा नियुक्त ऑडिटर द्वारा वैधानिक ऑडिट किया जाता है। बैंक के ऑडिटर लकड़ावाला एंड कंपनी ने बीते वित्त वर्ष 2018-19 की ऑडिट रिपोर्ट में फर्जी खातों या सिस्टम में गड़बड़ी का कोई संकेत नहीं दिया। बैंक ने अपनी वित्तीय रिपोर्ट में एनपीए सिर्फ 2.19 फीसदी दर्शाया। पूंजी पर्याप्तता अनुपात 12.62 फीसदी बताया जो आरबीआइ के 9 फीसदी अनुपात से ज्यादा था। इससे पिछले वर्षों की बैलेंस शीट और ऑडिट रिपोर्ट में भी किसी गड़बड़ी का संकेत नहीं मिला। बैंक में इतने बड़े पैमाने पर गड़बड़ी पकड़ने में आरबीआइ पूरी तरह नाकाम रहा। आरबीआइ के एक पूर्व गवर्नर ने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया कि आरबीआइ अपने स्तर पर किसी भी बैंक की गहन जांच नहीं करता है। वह पूरी तरह ऑडिटर की रिपोर्ट पर निर्भर होता है। ऑडिटर के स्तर पर चूक वास्तव में गंभीर है। अर्बन कोऑपरेटिव बैंकों के दोहरे नियंत्रण से गड़बड़ी पकड़ना और कठिन होने की बात स्वीकार करते हुए पूर्व गवर्नर ने कहा कि कोऑपरेटिव बैंकों में हजारों सदस्यों वाला ढांचा इतना जटिल है कि आरबीआइ इस मामले में कुछ खास नहीं कर पाता है। कोऑपरेटिव बैंकों की ढांचागत बनावट की निगरानी करना न तो आरबीआइ के लिए संभव है और न ही उसका कार्यक्षेत्र है।

कोऑपरेटिव बैंकों का विलय क्यों नहीं

कोऑपरेटिव क्षेत्र के जानकार इससे सहमत नहीं है कि इन बैंकों की ढांचागत जटिलता के कारण निगरानी में दिक्कत है। नेशनल फेडरेशन ऑफ अर्बन कोऑपरेटिव बैंक्स एंड क्रेडिट सोसायटीज के चेयरमैन ज्योतिंद्र एम. मेहता ने आउटलुक से बातचीत में कहा कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कॉमर्शियल बैंक भी घोटाले में फंसते हैं। घोटाले किसी भी तरह के बैंक में हो जाते हैं। लेकिन किसी कॉमर्शियल बैंक पर संकट आने पर आरबीआइ उसका किसी अन्य बैंक में विलय करने का आदेश दे देता है। इससे जमाकर्ताओं का संकट तो दूर हो जाता है लेकिन घोटाले का मुद्दा सिर्फ दबता है, सुलझता नहीं है। कोऑपरेटिव बैंक के मामले में आरबीआइ विलय नहीं कर सकता है, इसलिए जमाकर्ता संकट में फंस जाते हैं। उनका कहना है कि सरकार और आरबीआइ को कोऑपरेटिव बैंकों का परिचालन दुरुस्त करने और संकट होने पर उनके विलय का रास्ता खोजना चाहिए।

छोटे कामगारों के लिए कोऑपरेटिव बैंक अहम

फेडरेशनल के सदस्य सचिव एवं चीफ एक्जीक्यूटिव सुभाष गुप्ता कहते हैं कि पीएमसी बैंक का घोटाला सिस्टेमिक विफलता है। आरबीआइ के नियम और दिशानिर्देशों का वर्षों तक उल्लंघन होता रहा लेकिन इसकी भनक तब तक नहीं लगी। पंजाब नेशनल बैंक के मामले में भी इसी तरह की विफलता सामने आई थी। दोहरे नियंत्रण के कारण निगरानी में दिक्कत आने की बात सही नहीं है, सिस्टम की विफलता कहीं भी हो सकती है। यह तभी होती है जब निगरानी तंत्र में कमजोरी होती है। कोऑपरेटिव बैंकों के परिचालन पर नियंत्रण आरबीआइ का ही है। ऐसे में जिम्मेदारी लेने से आरबीआइ बच नहीं सकता है। गुप्ता का कहना है कि पीएमसी बैंक जैसे घोटाले न हों, इसके लिए उपाय होना चाहिए। उनकी अर्थव्यस्था में अहमियत को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि कोऑपरेटिव बैंक ही छोटे कामगारों और गरीबों को छोटे कर्ज देते हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को रफ्तार देते हैं।

घोटालों की जड़ में कोऑपरेटिव बैंकों का यह नियम

एक सवाल हमेशा उठता रहा है कि वित्तीय घोटालों में आखिर कोऑपरेटिव बैंक ही ज्यादा क्यों फंसते हैं। रकम के लिहाज से भले ही कॉमर्शियल बैंक ज्यादा कुख्यात हों लेकिन संख्या के लिहाज से कोऑपरेटिव बैंकों में ही ज्यादा घोटाले या फेल होने की घटनाएं सामने आई हैं। डीआइसीजीसी के आंकड़े साबित करते हैं कि पिछले 12 वर्षों में 190 बैंक फेल हुए जिनके जमाकर्ताओं को डीआइसीजीसी ने मुआवजा दिया। दरअसल सहकारी बैंकों का ढांचा ही जमाकर्ताओं के हितों को नजरंदाज करता है। नियम के मुताबिक किसी कोऑपरेटिव बैंक से लोन लेने के लिए उसका सदस्य (शेयरधारक) बनना अनिवार्य है क्योंकि सहकारी आंदोलन की मूल भावना के अनुसार कोऑपरेटिव बैंक अपने सदस्यों को ही कर्ज दे सकते हैं। जबकि जमाकर्ताओं के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। फेडरेशन के चेयरमैन मेहता मानते हैं कि जमाकर्ताओं के लिए सदस्य बनना अनिवार्य नहीं है। दिल्ली के कोऑपरेटिव बैंक के अधिकारी ने बताया कि जमाकर्ताओं से जमा लेने की प्राथमिकता होती है। आमतौर पर उन्हें सदस्य बनने की जानकारी नहीं दी जाती है। जमाकर्ता भी कॉमर्शियल बैंक और कोऑपरेटिव बैंक में अंतर नहीं कर पाते हैं और वे सदस्य बनने के बारे में सोचते तक नहीं हैं। इसका नतीजा होता है कि बैंक के परिचालन के बारे में न तो उन्हें कोई जानकारी होती है, न ही कोई भागीदारी। अब सरकार के सामने चुनौती है कि कोऑपरेटिव बैंकों के परिचालन में जमाकर्ताओं को भी आवाज देकर उन्हें उन्हें घोटालों से सुरक्षित कैसे बनाए।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad