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पुराने और नए समीकरण की जोर आजमाइश

“ पूरब में गोरखपुर और फूलपुर के बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश में कैराना और नूरपुर के उपचुनाव में भाजपा...
पुराने और नए समीकरण की जोर आजमाइश

“ पूरब में गोरखपुर और फूलपुर के बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश में कैराना और नूरपुर के उपचुनाव में भाजपा और एकजुट विपक्ष का इम्तिहान ”

दिन के करीब एक बजे। 13 मई की दोपहर तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के ऊपर रहा होगा। न कोई कूलर है और न ही कोई इलेक्ट्रिक फैन। जमीन पर बिछी दरियों पर करीब दो सौ लोग बैठे हैं और करीब इतने ही लोग सामने खड़े हैं। एक कामचलाऊ लाउडस्पीकर नीम के एक पुराने पेड़ की डाल पर रखा हुआ है। दिल्ली-सहारनपुर नेशनल हाइवे से करीब सात-आठ किलोमीटर दूर यह शामली जिले का गांव भारसी है। यहां पास के ही एक दूसरे गांव के मुस्लिम प्रधान कुछ शायराना अंदाज में कहते हैं कि यहां मौजूद शख्स में चौधरी चरण सिंह का अक्स दिखता है, जो गांव देहात के लोगों को हक दिलाने की कूवत रखता है और 2013 के दंगों के दौरान जाट और मुसलमानों के बीच पैदा हुई खाई भर सकता है। असल में इस जाट बहुल गांव में कैराना लोकसभा उपचुनाव में राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी गठबंधन की प्रत्याशी तबस्सुम हसन के लिए चुनाव प्रचार करने राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी आए हुए हैं और यह उनकी सुबह से चौथी चुनावी सभा है।

गठबंधन में यह सीट रालोद को मिली है। जयंत 13 मई से यहां चुनाव प्रचार में उतरे हैं और पहले ही दिन 16 गांवों में मीटिंग कर रहे हैं। ये सभी गांव जाट बहुल हैं। उनका कहना है कि कैराना लोकसभा उपचुनाव ऐतिहासिक होने जा रहा है और इसके जरिए हम एक सद्‍भावना संदेश देना चाहते हैं। अगर रालोद यह चुनाव जीत जाता है तो बकौल जयंत, “पुराना राजनैतिक समीकरण दोबारा कायम हो जाएगा और खेती-किसानी की बात मजबूती से रखने वाले लोगों का हौसला बढ़ जाएगा। फिर, यह एक सेकुलर गठबंधन और ताकतों के अस्तित्व की लड़ाई है जो हमें जीतनी ही होगी।” दूसरी तरफ, 275 सांसदों और उत्तर प्रदेश में 311 विधायकों वाली भाजपा के लिए कैराना के लोकसभा और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव की एक-एक सीट हारने से कोई संख्यागत संकट तो नहीं खड़ा होगा, लेकिन विपक्ष की एकजुट ताकत से बदलने वाला जिताऊ सियासी समीकरण जरूर उसके लिए सिरदर्द साबित होगा।

असल में कैराना 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के समय से ही लगातार गलत कारणों से सुर्खियों में रहा है। इन दंगों में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले गांव भी इसी लोकसभा क्षेत्र में हैं। यही वजह है कि यहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बहुत ज्यादा रहा है, जिसके परिणाम 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिले थे और भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई थी। कैराना के पूर्व सांसद हुकुम सिंह के निधन के बाद यह सीट खाली हुई है। 28 मई को यहां मतदान होगा। गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उपचुनावों में सपा-बसपा गठबंधन की जीत के बाद यह फार्मूला कैराना में भी अपनाया जा रहा है। इसी तरह भाजपा विधायक के निधन के बाद खाली हुई बिजनौर जिले की नूरपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भी विपक्ष की यही रणनीति है और वहां सपा उम्मीदवार नईम उल हसन लड़ रहे हैं। भाजपा ने इन दोनों सीटों पर पूर्व प्रतिनिधियों के परिवार वालों को ही टिकट दिया है। कैराना से हुकुम सिंह की बेटी मृगांका खड़ी हैं जबकि नूरपूर से दिवंगत विधायक लोकेंद्र चौहान की पत्नी अवनी सिंह को मैदान में उतारा गया है। लेकिन राजनैतिक पंडितों के साथ सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की निगाहें कैराना पर ही ज्यादा केंद्रित हैं।

विधानसभा चुनावों में अंतिम मौके पर रालोद सपा-कांग्रेस गठबंधन से बाहर रह गया था। इसके चलते पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को शानदार कामयाबी मिली थी। रालोद छपरौली की परंपरागत सीट को छोड़कर सभी सीटें हार गया था। लेकिन पिछले दिनों उसका छपरौली का इकलौता विधायक भी भाजपा में शामिल हो गया। राज्यसभा चुनाव में गठबंधन प्रत्याशी को वोट नहीं देने के चलते रालोद ने उसे पार्टी से निकाल दिया था। ऐसे में कैराना को सपा ने रालोद को देने का फैसला किया। यह फैसला सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और रालोद के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी की बैठकों के बाद हुआ। इसके लिए सपा के कैराना से विधायक नाहिद हसन की मां और पूर्व सांसद मुनव्वर हसन की पत्नी तबस्सुम को रालोद में शामिल किया गया और उनको पार्टी का टिकट दिया गया। एक तरह से यह चुनाव जयंत चौधरी का खुद का चुनाव हो कर रह गया है भले ही वे खुद चुनाव न लड़ रहे हों। अगर उनकी पार्टी यह चुनाव जीत जाती है तो सपा-बसपा गठबंधन में उनका स्थान पक्का हो जाएगा और उससे भी बढ़कर वे जाट-मुसलमान वोट बैंक को दोबारा जोड़ पाएंगे।

इसी लिए रालोद के अध्यक्ष अजीत सिंह भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। वे भारतीय किसान यूनियन के नेता दिवंगत महेंद्र सिंह टिकैत की पुण्यतिथि पर उनके गांव सिसौली पहुंचे और एक तरह से चुनाव प्रचार का आगाज किया।

कैराना में करीब 16 लाख वोट हैं। इनमें सबसे अधिक पांच लाख मुसलमान वोट हैं। उसके बाद दो लाख के करीब दलित हैं। जाट वोट यहां डेढ़ लाख से ज्यादा हैं। करीब सवा-सवा लाख कश्यप और गूजर वोट हैं। सवर्ण वोट करीब दो लाख हैं। बाकी छोटी जातियों के वोट हैं। यहां दोनों प्रत्याशी गूजर हैं। तबस्सुम मुसलमान गूजर हैं और मृगांका हिंदू गूजर।

जहां तक हुकुम सिंह का सवाल है तो उन्हें इसका फायदा मिलता रहा है। उन्हें मुसलमान गूजरों के भी कुछ वोट मिलते रहे हैं। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में कैराना सीट से मृगांका ने ही चुनाव लड़ा था और उसे सपा के नाहिद हसन ने हरा दिया था। दिलचस्प यह है कि अब फिर लोकसभा के उपचुनाव में मुकाबला इन दोनों परिवारों के बीच ही है। कैराना लोकसभा सीट में कैराना, शामली, थानाभवन, गंगोह और नकुड़ विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें पहली तीन सीटें शामली जिले में हैं, जबकि बाद की दो सीटें सहारनपुर जिले में हैं। वैसे, 2009 में तबस्सुम इस सीट से सांसद रह चुकी हैं। शामली और थानाभवन सीट पर जाटों के वोट बाकी सीटों से ज्यादा हैं। यही वजह है कि जयंत चौधरी ने चुनाव प्रचार इन सीटों के जाट बहुल गांवों से ही शुरू किया है।

भाजपा भी इस सीट को अपने लिए अहम मान रही है। यहां मुजफ्फरनगर से सांसद तथा पूर्व केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री संजीव बालियान को बड़ा जिम्मा दिया गया है। संजीव बालियान भी जाट बहुल गांवों में वोट जुटाने का काम कर रहे हैं। इस लेखक से उनकी मुलाकात हसनपुर गांव में होती है जो शामली से करीब 12 किलोमीटर दूर है। वहां वे कहते हैं, “मुजफ्फरनगर दंगों में जो लोग प्रभावित हुए और जिनके ऊपर केस लगे, उसे खत्म कराने में मैंने सबसे अधिक काम किया है। हर घर से मैं जुड़ा हुआ हूं और आपके बीच से हूं इसलिए आपको वोट तो भाजपा को ही देना चाहिए।” हालांकि, वे सीधे जयंत चौधरी पर टिप्पणी करने से बचते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जाटों के बीच जयंत चौधरी और रालोद के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर है। इसलिए वे कहते हैं, “इलाके में खराब कानून-व्यवस्था की मुख्य वजह कैराना रहा है। हमारी सरकार ने काफी सुधार किया है।” राज्य सरकार में मंत्री लक्ष्मीनारायण चौधरी भी कहते हैं कि रालोद ने तो कैंडिडेट ही दूसरी पार्टी से इंपोर्ट किया है।

लेकिन जिस तरह से भाजपा इस एक लोकसभा चुनाव क्षेत्र में दर्जनों विधायकों, सांसद और मंत्रियों की ताकत झोंक रही है, उससे उसकी बेचैनी और चिंता भी जाहिर हो रही है। पार्टी संगठन में खास माने जाने वाले सुनील बंसल खुद इस चुनाव की रणनीति में अहम भूमिका निभा रहे हैं। भाजपा के उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हर विधानसभा क्षेत्र में सभाएं करेंगे, क्योंकि गोरखपुर और फूलपुर के हश्र से वे हर संभव बचना चाहते हैं। संजीव बालियान बातचीत में कहते हैं कि चुनाव में कांटे की टक्कर है। वहीं दूसरी ओर, दशकों बाद यह पहली बार हो रहा है कि पुराने लोक दल के लगभग सभी नेता एक मंच पर हैं। चाहे सपा के वीरेंद्र हों या कांग्रेस के हरेंद्र मलिक या बसपा से विधायक रहे बलबीर सिंह, पूर्व विधायक रतनपाल पंवार हों, तिरसपाल मलिक हों, पूर्व मंत्री योगराज हों, शामली के नगर पालिका चेयरमैन और पूर्व विधायक राजेश्वर बंसल समेत दूसरे स्थानीय नेता इसमें शामिल हैं। यहां सपा-रालोद गठबंधन साथ दिख रहा है। जहां तक बसपा की बात है तो रालोद के पदाधिकारी कहते हैं कि पार्टी चुपचाप हमारे लिए काम कर रही है और जल्दी ही बसपा अध्यक्ष बहन मायावती का आधिकारिक निर्देश जिला कॉर्डिनेटरों को आ जाएगा।

जयंत भी कहते हैं, “बसपा का वोटर हमारे साथ है। केवल दिखावे की बात करने से वह भाजपा के साथ नहीं जाएगा। दलित जागरूक और संगठित हैं, उनके ऊपर जो अत्याचार हो रहे हैं वह भाजपा की मनुवादी सोच का परिचायक है। इसका बदला वे इस चुनाव में भाजपा को हरा कर लेंगे।”

लेकिन भाजपा भी पुख्ता रणनीति पर काम कर रही है। वह गैर-जाटव दलित और पिछड़ों में सेंध लगाने की पूरी कोशिश कर रही है। कश्यप समाज इस सीट पर एक बड़ा वोट बैंक है और वह उसे अपने पाले में खींचने की हर संभव जतन में जुटी है। सांसद संजीव बालियान और शामली-मुजफ्फरनगर तथा बागपत के जाट विधायक जाट वोटों में सेंध लगाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, जिस पैमाने पर कैराना में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रचार हुआ है, यहां वैसा माहौल नहीं रहा है। लेकिन रालोद के एक पदाधिकारी कहते हैं कि भाजपा इस चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम करने की कोशिश करेगी और ऐसा नहीं होने देना ही हमारा असली इम्तिहान है।

जहां तक भाजपा प्रत्याशी का सवाल है, तो एक बड़े भाजपा नेता ही उसे कमजोर प्रत्याशी मानते हैं। लेकिन यही स्थिति रालोद प्रत्याशी की भी है। इसलिए चुनाव में प्रत्याशी नहीं, बल्कि पार्टी नेताओं की साख दांव पर है।

जिन्ना पर गन्ना भारी

उपचुनाव में कोई बड़ा मुद्दा तो नहीं है। अलबत्ता वाट्सएप पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का जिन्ना फोटो विवाद यहां भी घूम रहा है लेकिन यहां गन्ने के भुगतान में देरी और चीनी मिलों में गन्ने की आपूर्ति को लेकर पैदा हुई दिक्कतें इस विवाद पर भारी पड़ रही हैं। भाजपा के प्रत्याशी के लिए प्रचार के समय पार्टी नेताओं से एक किसान ने सीधे पूछ लिया कि वह बीमार है, उसकी पत्नी बीमार है लेकिन गन्ने का भुगतान छह माह से नहीं हुआ है, जबकि भाजपा ने चुनाव में वादा किया था कि 14 दिन के भीतर गन्ने का भुगतान कर दिया जाएगा। यह सवाल इन नेताओं को बैकफुट पर ला देता है। वे स्वीकारते हैं कि पेमेंट में दिक्कत है। दिलचस्प बात यह है कि राज्य के चीनी उद्योग और गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा की विधानसभा सीट थानाभवन इसी लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। उनके खिलाफ नाराजगी का आलम यह है कि उनके क्षेत्र में पड़ने वाले गांव भैंसवाल में एक किसान सुनील ने उनकी सभा में इस वादे की याद दिलाते हुए कहा कि हमने आपको वोट दिया है लेकिन आप अपने वादे को पूरा नहीं कर रहे हैं। स्थानीय लोगों में गन्ना मंत्री को लेकर काफी नाराजगी है। इस लोकसभा क्षेत्र में शामली, थानाभवन, ऊन, शेरमऊ और सरसावा चीनी मिलें आती हैं। इनमें से 11 मई तक शामली की चीनी मिल पर 205 करोड़ रुपये, थानाभवन की ‌मिल पर 227 करोड़ रुपये और ऊन चीनी मिल पर 182 करोड़ रुपये का गन्ना भुगतान बकाया है। शामली जिले में ही 600 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है। इसमें शेरमऊ और सरसावा चीनी मिल का बकाया भी जोड़ दें तो यह 800 करोड़ रुपये को पार कर जाता है। इसलिए यह मुद्दा भाजपा को ज्यादा परेशान कर रहा है। हो सकता है कि आने वाले कुछ दिनों में सरकार कुछ भुगतान कराने की कोशिश करे ताकि विरोध कम किया जा सके लेकिन किसानों में यह मुद्दा उसके लिए सबसे भारी पड़ रहा है। 

 

“कैराना संसदीय क्षेत्र और नूरपुर विधानसभा में विपक्षी एकता के चेहरे रालोद के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी से संपादक हरवीर सिंह की बातचीत के अंशः”

रालोद, सपा और बसपा के गठबंधन की आपको क्या वजह लगती है?

देखिए पॉलिटिक्स में सोशल मोबलाइजेशन होते रहते हैं। यह सामाजिक गठजोड़ है। आज दलित हो या किसान, दोनों पर सरकार की मार पड़ रही है। उन्हें महसूस हो रहा है कि हम मुख्यधारा में नहीं हैं। तो, नीचे से सभी पार्टियों पर दबाव बना है। राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो भाजपा का दबदबा बढ़ रहा है। ऐसे में लाजिमी है कि विपक्ष भी तैयारियां करेगा।

गठबंधन की नाकाम कोशिशें विधानसभा चुनाव से पहले भी हुई थीं। क्या गोरखपुर और फूलपुर में कामयाबी से रुख बदला है?

आज संविधान पर हमला हो रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। ऐसे में तो पार्टियों को अहं और स्वार्थ को छोड़कर साथ काम करना ही पड़ेगा।

सपा पश्चिमी यूपी में कभी उतनी मजबूत नहीं रही। तो, क्या कैराना सीट आपको सौंपने का एक कारण यह भी रहा है?

हमने बातचीत की। दोनों का यह मानना था कि भाजपा को हराना है और चौधरी चरण सिंह की जो विरासत थी, उनका जो समीकरण था, उसे सफल बनाना है। इन दो पहलुओं पर मेरी और अखिलेश जी की बातचीत हुई। फिर जीतने के लिहाज से समझौता यही बना कि नूरपुर से समाजवादी पार्टी लड़ेगी। हमारे लिए दोनों ही सीट महत्वपूर्ण हैं।

चौधरी साहब का मूल मंत्र जाट-मुसलमान गठजोड़ था। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जो परिस्थितियां बनीं, उसके बाद दोनों को कैसे साथ लाएंगे?

जहां चुनाव हो रहा है, यही क्षेत्र प्रभावित था। कोई भी झगड़े में रहना पसंद नहीं करता है। ठीक है उतार-चढ़ाव हुए और आपस में विश्वास कमजोर हुआ, लेकिन अब दोबारा बन रहा है। राजनीति से चीजें प्रेरित होती हैं। जो ध्रुवीकरण हुआ, उसके पीछे राजनीति थी।

लोगों का कहना था कि जयंत जी कैराना से लड़ना चाहते हैं। यहां उम्मीदवार चयन के पीछे कोई खास सोच रही?

एक हाथ से ताली बजती नहीं है और समीकरण बनाने पड़ते हैं। यह हमारे कार्यकर्ताओं को भी पूरी तरह से एहसास है।

हुकुम सिंह ने विधानसभा चुनाव के पहले कैराना में पलायन को मुद्दा बनाने की कोशिश की। ऐसे मुद्दों पर आप क्या सोचते हैं?

देखिए, यह शॉर्टटर्म का रहता है। कभी-कभी सफलता मिलती है। चुनाव किसी एक मुद्दे पर नहीं होता। भाजपा को इतना बड़ा बहुमत पाने के कई कारण थे। ध्रुवीकरण उनमें से एक था, लेकिन हम कहें कि भाजपा ने पलायन का मुद्दा उठाया तो पूरे प्रदेश में उसका लाभ मिल गया तो ऐसा भी नहीं है।

कैंडिडेट तो मुसलमान है, लेकिन जाटों ने बड़े पैमाने पर पिछले दो चुनावों में भाजपा को वोट किया, आप उन्हें वापस ला पाएंगे?

देखिए, मैं किसान की बात करूंगा। जाट ज्यादातर किसान हैं। बेरोजगारी भी बड़ा मुद्दा है। किसानों की हालत इतनी दयनीय है कि जहां यह चुनाव हो रहा है, वह गन्ने का बेल्ट है। मंत्री सुरेश राणा भी इसी जिले के हैं। लगभग 11 हजार करोड़ रुपये का यूपी में बकाया हो गया, तो हमारे लिए वह बड़ा मुद्दा है। ये लोग जिन्ना की बात कर रहे हैं और हम गन्ने की, और गन्ने का मुद्दा जिन्ना पर जीतेगा।

गठबंधन में युवा पीढ़ी (जैसे आप और अखिलेश) की कैमेस्ट्री ने कितना काम किया?

नए लोग निकल कर आ रहे हैं। यह ठीक है कि हम सभी पहले से ही स्थापित हैं। हमें प्लेटफॉर्म मिला। उससे बाहर भी देखेंगे तो निचले स्तर पर प्रधानी के चुनाव में नए लोग निकल कर आ रहे हैं।

यह धारणा रही कि लोकदल किसी के भी साथ जुड़ जाता है। भाजपा के साथ गठजोड़ किया, अब दूसरी तरफ हैं?

भाजपा के साथ चुनाव लड़े नौ साल से ऊपर हो चुके हैं। यह पहले वाली भाजपा नहीं है। इनके साथ अब भविष्य में भी कोई काम करने का मन नहीं है।

भाजपा के कई सहयोगी एक-एक कर अलग हो रहे हैं। आपका इस पर क्या कहना है?

उनसे खुद उनका परिवार नहीं संभल रहा। यूपी में ही राजभर जी बोलते रहते हैं, सविता बाई पार्टी विरोधी स्टैंड ले रही हैं। जब उनसे अपना परिवार ही नहीं संभल रहा तो कोई क्यों जुड़ेगा।

2019 के चुनाव में कौन-से चेहरे दिखते हैं, जो नरेंद्र मोदी या भाजपा के मुकाबले खड़े दिखाई देते हैं?

देश में 125 करोड़ लोग हैं। हमारे देश में बहुत समझदार लोग हैं। यह कोई कव्वाली नहीं है कि मोदीजी अच्छा भाषण देते हैं तो उनकी ही तरह का कोई उस्‍ताद खड़ा कर दें। लड़ाई विचारधारा की है और जब विचारधारा आपकी ठीक रहेगी तो आपके पास विकल्प बहुत खड़े हो जाएंगे।

क्या आपको लगता है कि दलित और जाट एक साथ वोट करेंगे?

बसपा का अभी औपचारिक फैसला नहीं आया है। लेकिन उसके लोग जमीन पर काम कर रहे हैं। आज यह भावना भी जुड़ गई कि हमलोग साथ हैं, तो फिर कहीं अत्याचार होने कौन देगा।

 

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