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इंटरव्यू : किया गया काम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता, बोले अभिनेता सत्यजीत दुबे

हिन्दी सिनेमा बदलाव के दौर में है। आज ओटीटी माध्यम पर एक से बढ़कर एक सार्थक फिल्में उपलब्ध हैं। भारतीय...
इंटरव्यू : किया गया काम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता, बोले अभिनेता सत्यजीत दुबे

हिन्दी सिनेमा बदलाव के दौर में है। आज ओटीटी माध्यम पर एक से बढ़कर एक सार्थक फिल्में उपलब्ध हैं। भारतीय दर्शक अच्छा और विविधता पूर्ण सिनेमा देखने के अभयस्त हो चुके हैं। यही कारण है कि कॉमर्शियल कॉन्टेंट के साथ ही सार्थक और संवेदनशील किस्म का कॉन्टेंट भी खूब बनाया और देखा जा रहा है। इस बदलाव का फायदा अच्छे कहानीकार,फिल्मकार और अभिनेता को हो रहा है। उन्हें नए किस्म के विषय पर कहानी कहने का अवसर मिल रहा है। अलग अलग किरदारों को जीवंत करने का मौका मिल रहा है। इस प्रक्रिया में कई कुशल कलाकारों की प्रतिभा दर्शकों के हृदय में अमिट छाप छोड़ रही है। ऐसे ही गुणी कलाकार हैं अभिनेता सत्यजीत दुबे, जिन्होंने अपनी फिल्म "ए जिन्दगी" से दर्शकों को अपना मुरीद बना लिया है। सत्यजीत दुबे ने आउटलुक के मनीष पाण्डेय से बातचीत के दौरान अपने जीवन और अभिनय सफर के विषय में बात की। 

 

 

 

बातचीत से संपादित अंश:

 

 

जीवन में अभिनय का प्रवेश किस तरह हुआ?

 

मेरा जन्म बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हुआ, जहां कैरियर ऑप्शन के रुप में लोग सरकारी नौकरी, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी, वकालत को चुनते थे। मेरे इर्द गिर्द भी कुछ ऐसा ही माहौल था, जो आम जीवन तक लेकर जाता था। मगर मुझे बचपन से ही मंच पर पहुंचकर सुकून मिलता था। मैं स्टेज पर परफॉर्म करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था। मुझे लगता था कि मैं स्टेज के लिए ही बना हूं। मेरा डांस देखकर लोगों के चेहरे पर मुस्कान खिल जाती है। इस तरह मूझमें विश्वास पैदा हुआ कि मैं स्टेज के लिए ही बना हूं।

 

बचपन में मुझे नाना पाटेकर, माधुरी दीक्षित, शाहरुख खान,ऋतिक रोशन, अक्षय खन्ना बहुत पसन्द थे। मैं अखबारों में इनकी तस्वीरें देखकर खुश हो जाया करता था। समय के साथ जब मेरा परिचय मनोज बाजपेई और इरफान खान से हुआ तो मैं आश्चर्य से भर गया। मुझे पहली बार सिनेमा और अभिनय की ताकत और उसका प्रभाव महसूस हुआ। मेरे भीतर से आवाज आई कि यदि मेरे शहर के लोगों को मेरी कला से प्रसन्नता होती है तो फिर मुझे मायानगरी मुंबई में भी जरूर किस्म आजमानी चाहिए। इस तरह अभिनय का शौक धीमे धीमे प्रोफेशनल यात्रा में बदल गया। 

 

 

 

 

 

 

 

अभिनय को लेकर आपके रुझान के प्रति आपके परिवार का क्या नजरिया था ? 

 

 

जब मैं बचपन में स्टेज पर परफॉर्म करता था तो सभी के साथ मेरे परिवार के लोग भी खुश होते थे। मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। मगर साल 1998 से 2005 तक मेरे जीवन में बड़ा कठिन समय आया। इस दौरान अप्रत्याशित रूप से परिवार के कई सदस्यों की मृत्यु हो गई। मेरे जीवन को स्वरूप देने के लिए मेरी मां और मेरी दादी ही थीं। उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया और मेरे हर शौक को पूर्ण सम्मान और आकाश दिया। 12 वीं की पढ़ाई पूरी करने पर मेरी दादी ने मुझसे कहा कि यदि मैं अभिनय की दुनिया में ही काम करना चाहता हूं तो मैं आगे बढूं मगर ध्यान रहे कि मैं खुद पर बोझ न बन जाऊं। दादी ने मेरा पूरा साथ दिया और उनसे मिली हिम्मत से मैं 12वीं के बाद मुम्बई आ गया। 

 

 

 

 

 

मायानगरी मुंबई के क्या शुरुआती अनुभव थे ?

 

मुम्बई आने के बाद शुरुआती दिन तो मुम्बई को समझने में बीत गए। दादी हर महीने कुछ पैसे भेजा करती थीं मगर वह मुम्बई जैसे बड़े शहर के लिए काफी नहीं थे। तब समझ आया कि बैठे बैठे काम का इंतजार तो नहीं कर सकते। मैंने काम ढूंढना शुरु किया। कहीं भी शूटिंग होती तो मैं वहां पहुंच जाया करता था। कहीं भीड़ में खड़े हो गए, एक सीन में काम कर लिया तो उससे जीने खाने लायक पैसे मिल जाते थे। थोड़ा सा फैशन शोज और टीवी सीरियल में भी काम किया।इस तरह जीवन बीत रहा था। तभी एक बड़ा बदलाव आया, जिसने मेरा जीवन पूरी तरह से बदल दिया। मैंने बड़े उत्पादों के विज्ञापन किए। हर बड़े विज्ञापन में मेरा ही चेहरा था। इससे घर घर लोग मुझे पहचानने लगे। मेरे पास तमाम बड़े फिल्म निर्माता कंपनियों से फोन आने लगे। यह मेरे लिए उत्साहित करने वाला क्षण था। उस समय मेरी उम्र 18 साल थी। मेरी जितनी समझ थी, उस हिसाब से मुझे शाहरूख खान के प्रोडक्शन हाउस की फिल्म " ऑलवेज कभी कभी" उचित लगी और मैंने फिल्म साइन कर ली।अपनी पहली ही फिल्म शाहरूख खान के साथ करना, किसी सपने का सच होना था। फिल्म के निर्माण के दौरान 2 वर्षों में मैंने बहुत सीखा, बहुत कुछ समझा। 

 

फिल्म रिलीज हुई तो मेरी एक पहचान बनी। फिर एक फिल्म से दूसरी फिल्म और फिर तीसरी फिल्म का सिलसिला जुड़ता चला गया। मैंने कभी घर बैठकर काम का इंतजार नहीं किया। न ही काम को लेकर ज्यादा कन्फ्यूज रहा। मुझे काम से ही काम मिलता रहा। इसलिए मैं काम करता चला गया। मैंने एक फिल्म की थी " कैरी ऑन कुत्तों", जिसे देखकर संजय दत्त ने मेरे अभिनय को पहचाना और मुझे अपनी फिल्म "प्रस्थानम" में काम दिया। इससे मेरा विश्वास और मजबूत बना कि कोई भी काम व्यर्थ नहीं जाता है।मुझे फिल्म जगत में काम करते हुए 11 साल बीत गए हैं। इस दौरान कई कलाकार आए और चले गए। अगर मैं आज भी काम कर रहा हूं तो इसकी एक ही वजह है और वह यह कि मैं काम मांगने, काम करने में झिझक नहीं महसूस करता।

 

 

 

 

कमज़ोर क्षणों में कैसे खुद को मजबूत रखते हैं?

 

 

मेरे जीवन में दुःख के कई क्षण आए। पहले तो बचपन में ही मैंने अपने परिवार के लोगों की असमय मृत्यु देखी। फिर जब फिल्म इंडस्ट्री में काम करने आया तो फिल्मों के सुपरहिट न होने के कारण खुद पर प्रश्न चिन्ह उठता देख दुखी हुआ। फिल्म जगत में यह चलन आम है कि यदि आपकी फिल्म हिट नहीं हुई तो आप फ्लॉप एक्टर हैं। मैंने लंबे समय तक इंतजार किया है अवसर का। यह समय बहुत तनाव भी देता था। लेकिन इस पूरे सफर में मैं एक ही बात सोचता था। मैंने हमेशा देखा कि मजबूत बनने, सफल बनने, महान बनने के लिए संघर्ष जरूरी है। तपकर ही सोना निखरता है। मेहनत और पीड़ा से ही सुंदर, आकर्षक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। मैं समझ गया कि सारी तकलीफें, दुःख, चुनौतियां सफल बनने के रास्ते में मिलने वाली वो परिस्थितियां हैं, जो व्यक्ति को सफलता के लिए तैयार करती हैं। जब तकलीफें आती हैं तो आप अपने निकट पहुंच जाते हो, खुद पर काम करते हो, बेहतर बनते हो। शोहरत तो केवल घमंड और भ्रम पैदा करती है। सीखने वाले क्षण तो संघर्ष के ही होते हैं। 

 

 

 

 

ए जिन्दगी फिल्म कितनी महत्वपूर्ण रही आपके लिए ? 

 

सभी कलाकारों के जीवन में एक ऐसी फिल्म होती है, जिसमें कलाकार अपनी आत्मा निकालकर रख देता है। जिसमें कलाकार सभी हदें पार कर देता है। जिसमें कलाकार का विस्तार होता है। ए जिन्दगी मेरे लिए एक ऐसी ही फिल्म है। यह बिल्कुल अलग किस्म का सिनेमा है। मैं अभी तक कमर्शियल और कलात्मक ढंग से अभिनय कर रहा था। यह पहला मौका था कि जब पूरी फिल्म मेरे कंधों पर थी। इस फिल्म के लिए मुझे अपना वजन कम करना था। एक लीवर कैंसर से ग्रसित व्यक्ति को स्क्रीन पर जीवंत करना कठिन और चुनौतीपूर्ण था। दर्शक तो बाद में आपको स्वीकार करते हैं, पहले आपको स्वयं ये स्वीकार करना पड़ता है कि आप यह किरदार हैं। एक लीवर कैंसर मरीज को जीना किसी भी तरह आसान नहीं था। मैंने पूरी ईमानदारी से प्रक्रिया को जिया है। मेरे बचपन मे परिवार के लोगों की असमय मृत्यु से उपजा दुख, इसमें सहायक बना। यह दर्द कहीं भीतर था। मुझे मालूम था कि किसी अपने को खो देना कैसा होता है। मैंने उस सारी पीड़ा, तकलीफ को स्क्रीन पर जीने की कोशिश की है। इस किरदार को निभाते हुए, मेरे अंदर कोई असुरक्षा नहीं थी। मुझे किसी को कुछ साबित नहीं करना था। बस केवल ईमानदारी के उस एहसास को जीना था, जो बीमार व्यक्ति में मौजूद रहता है। फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज होने पर अच्छी प्रतिक्रिया मिली है। मुझे मेरे अभिनय के लिए लोगों का प्यार मिला। मैं फिल्म के ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने का इंतजार कर रहा हूं। मुझे पूरी उम्मीद है कि यह फिल्म लोगों को जरुर छू जाएगी। यह फिल्म मेरे लिए हमेशा विशेष महत्व रखने वाली है। 

 

 

अपनी सच्चाई किस तरह बचाकर रखते हैं आप?

 

मुझे कोई दूसरा तरीका समझ में नहीं आता। मुझे आज तक जो प्यार, काम और सम्मान मिला है, वह अपनी सादगी के लिए ही मिला है। बनावटीपन अधिक समय टिकता नहीं है। लोग आपकी असलियत पहचान जाते हैं। इसके साथ ही यदि आप सरल और सहज रहते हैं तो आपके अभिनय में असर पैदा होता है। बनावटी आदमी का अभिनय भी नकली लगता है। जनता उससे कभी रिलेट नहीं कर पाती। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मेरी कोशिश रहती है कि सरल और सहज जीवन जीते हुए अपने आस पास घटित होने वाली घटनाओं को देखूं, महसूस करूं और उन्हें अपने अभिनय में जीवंत करूं।

 

 

 

 

छोटी फिल्मों के लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म एक उपहार साबित हो रहा है, आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? 

 

 

ओटीटी प्लेटफॉर्म एक क्रांतिकारी बदलाव लाया है। पहले अच्छी फिल्में टीवी पर ही देखी जाती थीं। सिनेमाघरों में न कलात्मक फिल्में रिलीज हो पाती थीं और न उन्हें ज्यादा स्क्रीन्स मिलती थी। आज यह स्थिति ओटीटी प्लेटफॉर्म के माध्यम से पैदा हो गई है कि सार्थक और संवेदनशील विषयों पर बनी फिल्मों को बड़ी ऑडियंस मिल रही है। दर्शक इन फिल्मों को पसंद कर रहे हैं। यही कारण है कि नए लेखकों, निर्देशकों, अभिनेताओं को खूब अवसर मिल रहे हैं। आज अगर आपके पास प्रतिभा है तो आपके पास काम करने के कई अवसर, कई मंच उपलब्ध हैं। इस प्रकार ओटीटी प्लेटफॉर्म ने कलाकारों और फिल्मों के लिए एक बेहतर माहौल तैयार किया है। 

 

 

 

कुछ ऐसी घटनाओं के बारे में बताएं, जो हमेशा उत्साह बढ़ा देती हैं?

 

 

मुझे इस समय दो घटनाएं याद आ रही हैं। बचपन में पिताजी मुझे अपने चेतक स्कूटर पर बैठाकर बिहारी टॉकीज ले गए थे और वहां उनके साथ मैंने संजय दत्त की फिल्म खलनायक देखी थी। फिर एक दिन वह भी आया, जब मैंने संजय दत्त की ही फिल्म "प्रस्थानम" में उनके बेटे का किरदार निभाया।

 

इसी तरह जब मैं मुम्बई आया तो मेरे दोस्त के बांद्रा स्थित घर से मैं शाहरूख खान के घर मन्नत को देखा करता था। कुछ समय बाद मैं शाहरूख खान के साथ उनके घर मन्नत में बैठा था और मेरी पहली फिल्म के निर्माता शाहरूख खान थे। 

 

इन बातों को सोचकर लगता है कि इंसान को अपने कर्म करने चाहिए। जो नियति है, वह घटित होकर रहेगी। मैं या कोई भी व्यक्ति नहीं बता सकता कि भविष्य में क्या और कितना बड़ा घटित हो सकता है। ऐसे ही भविष्य में होने वाले बड़े घटनाक्रम को कोई रोक भी नहीं सकता। इसलिए इंसान को मेहनत करते रहनी चाहिए। अपने काम पर ध्यान देना चाहिए। मैंने कभी नहीं सोचा था कि शाहरूख खान के साथ पहली फिल्म करूंगा या संजय दत्त किसी फिल्म में मेरे पिता बनेंगे। मगर कर्म करते हुए यह घटित हुआ। हमें बहुत ज्यादा सोचना नहीं चाहिए। ध्यान कर्म पर हो तो सब कुछ होता चला जाता है। 

 

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