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फ्रांस जीता, संरक्षणवादी यूरोप नहीं

फुटबॉल के महासमर में फ्रांस की जीत के क्या मायने हैं? यह वह फ्रांस है जिसके वर्ल्ड कप की 23 सदस्यीय टीम...
फ्रांस जीता, संरक्षणवादी यूरोप नहीं

फुटबॉल के महासमर में फ्रांस की जीत के क्या मायने हैं? यह वह फ्रांस है जिसके वर्ल्ड कप की 23 सदस्यीय टीम में 13 खिलाड़ी अश्वेत या ऐसे हैं, जो फ्रांस मूल के नहीं हैं। ये फ्रांस के पूर्व उपनिवेशों अल्जीरिया या कहीं और से आए और फ्रांस के समाज ने उन्हें उनकी संस्कृति के समेत आत्मसात कर लिया। उन्हें सम्मान और बराबरी की जगह दी तो अश्वेत पोगमा और कायलां म्बाप्पे ने ऐसा चमत्कारी गोल किया कि वीवीआइपी दीर्घा में बैठे फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुअल मैकरां फुटबॉल दीवानों की तरह उछल पड़े और बुलंद आवाज में हांका लगाने लगे। उस पल वे जैसे भूल गए कि रूस के राष्ट्रपति पुतिन, क्रोएशिया की राष्ट्रपति कोलिंदा ग्रोबर और फीफा अध्यक्ष गियानी इंफैंटिनो जैसों की संगत में हैं। शायद वे बताना चाह रहे थे कि देखो, हमारे फ्रांस के बहुलतावादी समाज का परचम कितना ऊंचा लहरा रहा है। फ्रांस जीता तो क्रोएशिया से 4-2 से मगर इसमें एक क्रोएशिया का सेल्फ-गोल था तो दूसरा एक विवादास्पद पेनॉल्टी के जरिए हुआ था।

यह वह फ्रांस है जो मौजूदा दुनिया और खासकर यूरोप में बह रही कंजरवेटिव और संरक्षणवादी बयार में कुछेक अपवादों के साथ खड़ा है। वहां भी यह बयार खासकर ब्रेक्जिट और कई आतंकी घटनाओं के बाद कुछ जोर मार रही थी। लेकिन पिछले चुनावों में संरक्षणवादी नीतियों की पैरोकार नेशनलिस्ट फ्रंट की ली पेन हार गईं और फांस के सबसे कम उम्र के राष्ट्रपति बने मैकरां ने यूरोप की उदार धारा को बुलंद किया। इसी वजह से वे अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भी स्वागत करने से झिझके थे और साफ संकेत दिया था कि वे उन्हें नापसंद करते हैं। वर्ल्ड कप फाइनल के एक दिन बाद ही पुतिन से भेंट के दौरान ट्रंप से जब पूछा गया कि वे दुश्मन नंबर एक किसे मानते हैं तो उनके मुंह से फौरन निकला, "ईयू।" यानी यूरोपीय यूनियन। मैकरां इसी यूरोपीय यूनियन के प्रबल समर्थक हैं। फ्रांस ने कई आतंकवादी हमलों के बावजूद सीरियाई शरणार्थियों के प्रति भी वैसा रुख नहीं अपनाया, जो अमेरिका और ज्यादातर संरक्षणवादी यूरोप में अपनाई गई।

इस फुटबॉल महासमर ने उन सेलेब्रेटी खिलाड़ियों को भी फीका कर दिया, जिन पर बाजार झूमता रहा है। मेसी, क्रिस्टियानो रोनाल्डो, नेमार जुनियर, चाहें तो इस फेहरिस्त में मोहम्मद सालेह का नाम भी जोड़ सकते हैं, सबने अपनी जादुगरी तो दिखाई मगर नए सितारों के आगे फीके पड़ गए। न ही ब्रिटेन का 'फुटबॉल इज कमिंग होम' का सपना पूरा हो पाया। इसके विपरीत इस वर्ल्ड कप के चमकते सितारों में उनका पलड़ा भारी है, जो किसी टीम में पराई संस्कृतियों और मूल की आमद थे। दूसरे नंबर पर रही क्रोएशियाई टीम के कोच विदेशी थे तो बेलजियम में सबसे ज्यादा गोल करने वाले लोकुको अश्वेत हैं।

स्वीट्जरलैंड की टीम में तो 65 प्रतिशत खिलाड़ी विदेशी मूल के और कुछ ऐसे विवादास्पद इलाकों से थे जिनके खेल भावना के विपरीत रवैए के लिए फीफा ने दंड भी जड़ दिया। सब्रिया के खिलाफ मैच में स्वीट्जरलैंड के ग्रानित झाका और झेरदान शकीरी ने ईगल का निशान बनाया। ये अल्बीनियाई मूल के दोनों खिलाड़ी कोसोवो से संबंधित हैं जिनका राष्ट्रीय चिन्ह ईगल है। सब्रिया ने कोसोवो पर भारी नरसंहार बरपाया था जिसके विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र को 1999 में सैन्य दखल देना पड़ा था। ग्रानित झाका और झेरदान शकीरी के अपनी भावना के इजहार के बाद सर्बिया के दर्शकों ने 'बोस्निया के बूचर' कहे जाने वाले राटको मियाडिच की तस्वीर वाली टी-शर्ट पहन ली। शकीरी के गोल ने ही स्वीट्जरलैंड को जीत दिला दी थी, जिनके जूतों पर कोसोवो के झंडे ‌का निशान बना था।

इसी तरह इस वर्ल्ड कप में बेहतर प्रदर्शन दिखाने वाली टीमों में ट्यूनिशिया, सेनेगल में 9-9  खिलाड़़ी विदेशी मूल के थे तो मोरक्को में 17 खिलाड़ी पराई संस्कृतियों के।

यानी यह फुटबॉल विश्व कप ऐसे दौर में यह साबित कर गया कि संस्कृतियों के साझापन और बहुलतावाद की ही जय होती है, जब संरक्षणवाद और एकात्म संस्कृति का हल्ला बोल जैसा चल पड़ा है। यह अपने देश में भी खूब चल रहा है जिसकी विकृत और बेहद क्रूर मिसालें भीड़ की हिंसा में दिख रही हैं। कम से कम इस फुटबॉल विश्व कप का तो यही संदेश है कि इस कूढ़मगजी से निजात पाकर ही दुनिया सुंदर हो सकती है और अंततः उसी की जय होती है।

 

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