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देश की स्वास्थ्य प्रणाली ‘आईसीयू’ में, अमित शाह समेत अन्य मंत्रियों को क्यों नहीं है अपने सरकारी अस्पतालों पर भरोसा?

जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ अपनी किताब ‘तीसरी फसल’ में 1994 में फैली प्लेग महामारी का जिक्र...
देश की स्वास्थ्य प्रणाली ‘आईसीयू’ में, अमित शाह समेत अन्य मंत्रियों को क्यों नहीं है अपने सरकारी अस्पतालों पर भरोसा?

जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ अपनी किताब ‘तीसरी फसल’ में 1994 में फैली प्लेग महामारी का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “अन्य बीमारियों के विपरीत इसने गांवों में फैलना और डेरा डालने से इनकार कर दिया। इसके कीटाणुओं में वर्ग के आधार पर भेदभाव करने की आदत नहीं होती।” कुछ इसी तरह की आदतें दुनिया भर में फैले कोरोना महामारी के साथ है। इसने आम से लेकर खास, किसी को नहीं छोड़ा।

8 अगस्त की देर रात केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल भी कोरोना की चपेट में आ गए। फिलहाल उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया है। ये वही मेघवाल हैं, जिन्होंने पापड़ से कोरोना को ठीक करने का दावा किया था। वहीं, बीते दिनों गृह मंत्री अमित शाह, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा, पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख स्वतंत्र देव सिंह, नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनकी मां माधवी राजे सिंधिया, कांग्रेस नेता व सांसद कार्ति चिंदंबरम, अभिषेक मनु सिंघवी, तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित, दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सतेंद्र जैन के अलावा बॉलीवुड की कई हस्तियां कोरोना संक्रमित पाई गई, जिनमें बच्चपन परिवार, फिल्म बाहुबली के निदेशक एसएस राजामौली, संगीतकार वाजिद खान सरीखे कई अन्य जाने-माने चेहरे शामिल हैं। इन सबके अलावा बड़े पैमाने पर नौकरशाह, पुलिस अधिकारी और स्वास्थ्यकर्मी संक्रमित हुए हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अब तक केंद्र और राज्य के 20 से अधिक मंत्री कोविड पॉजिटिव पाए गए हैं, जिनमें से 17 ने इलाज के लिए प्राइवेट हॉस्पिटल का रुख किया। देश में इस वक्त 7,740 कोविड डेडिकेटेड हॉस्पिटल मौजूद हैं। इसके बावजूद गृह मंत्री अमित शाह मेदांता, सीएम येदियुरप्पा मणिपाल, सतेंद्र जैन और सिंधिया मैक्स दिल्ली और शिवराज सिंह चौहान चिरायू हॉस्पिटल में भर्ती हुएं।

उत्तर प्रदेश की मंत्री कमल रानी वरूण कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद पिछले दिनों एम्स ऋषिकेश में भर्ती हुईं थी, जहां उनकी मौत हो गई। राज्य की एक मंत्री सरकारी अस्पताल में इलाज कराने में विश्वास कर सकती हैं। इससे पहले भी अन्य कारणों से तबीयत बिगड़ने पर दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व पीएम डॉ. मनमोहन सिंह समेत कई अन्य, बेहतर इलाज के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली में भर्ती हुए हैं। ऐसे में जो राजनीतिक नेता संक्रमित हुएं, उनमें से अधिकांश ने प्राइवेट अस्पताल को क्यों चुना? क्या तमाम दावों के बाद भी सरकारी अस्पतालों की हालत इतनी बुरी है कि राज्य से लेकर केंद्र में सरकार चलाने वाले मंत्री तक को इस पर भरोसा नहीं है? हालांकि, गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में भर्ती होने के बावजूद भी एम्स दिल्ली के डॉक्टरों की एक टीम शाह के स्वास्थ्य की निगरानी कर रही है।

दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के सीनियर कंसल्टेंट डॉक्टर धीरेन गुप्ता कहते हैं, “सरकार दावे आम जनता के लिए करती है, खुद के लिए नहीं। ये उसी तरह से है जैसे सरकारी स्कूल का शिक्षक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में कभी नहीं भेजता है। कई अन्य सरकारी अस्पताल के डॉक्टर संक्रमित होने के बाद प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती हुए हैं।“ 

अहमदाबाद और आंध्र प्रदेश के कोविड हॉस्पिटल के आईसीयू में आग लगने से क्रमश: 8 और 11 लोगों की मौत हो गई। जिसकी वजह से अस्पताल के रख-रखाव को लेकर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं। डॉ. धीरेन कहते हैं, “देश के सरकारी अस्पतालों का हाल किसी से छुपा नहीं है। खराब मेंटेनेंस की वजह से ऐसी अप्रिय घटनाएं घटती है। स्टाफ ट्रेंड नहीं होते हैं, जिसके कारण आम लोगों को जानें गंवानी पड़ती है। वैसे, घटनाएं कहीं भी हो सकती है, लेकिन सरकारी रख-रखावों पर गंभीर प्रश्नचिन्ह हैं।”

सवाल इस बात को लेकर भी है कि जो देश इन्सेफेलाइटिस और स्वाइन फ्लू जैसे संक्रमण से ठीक से नहीं लड़ पाता, वो क्या कोरोना को सही मायने में हरा पाएगा, क्योंकि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अभी कोरोना वैक्सीन के हर भारतीय तक पहुंचने में कम-से-कम दो साल लगेंगे और इस वक्त एक्टिव मामलों की संख्या 6 लाख से ज्यादा है। देश में पिछले कई दिनों से लगातार 60 हजार से अधिक कोविड के नए मामले दर्ज किए जा रहे हैं। जबकि, उत्तर प्रदेश बिहार समेत कई अन्य राज्यों में मृत्यु दर में वृद्धि दर्ज किए जा रहे हैं। पिछले साल ही एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) की वजह से बिहार में करीब 162 बच्चों की मौत हो गई। वहीं, 2008 से 2014 के बीच लगभग 6 हजार बच्चों की मौत एईएस की वजह से हुई। उत्तर प्रदेश में तो करीब 40 साल में एईएस की वजह से 10 हजार बच्चों ने अपनी जानें गंवाई। 2005 में सबसे ज्यादा 15 सौ बच्चों की मौत हुई थी। 

एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत संक्रमण से होने वाले रोग के मामले में विश्व में सबसे अहले पायदान पर नजर आता है। संक्रमण की वजह से करीब 10 फीसदी मौतें हर साल होती है। 21वीं सदीं में भी 138 करोड़ की आबादी वाला भारत स्वास्थ्य व्यवस्था पर कुल जीडीपी का महज 1.5 फीसदी के आस-पास ही खर्च करता है। जबकि, 1995 में भारत कुल जीडीपी का 4.06 फीसदी खर्च कर रहा था। इस वक्त अन्य देश भारत से कहीं अधिक खर्च करते हैं। जर्मनी 9.5 फीसदी, फ्रांस 8.4 फीसदी और जापान 9.1 फीसदी खर्च करता है। इतना ही नहीं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, चीन और श्री लंका भी दोगुना से कहीं अधिक खर्च करता है। हेल्थ रैकिंग में भारत 145वें स्थान पर खुद को पाता है जबकि साल 1990 में ये 153वें पायदान पर था। 

साल 2016-17 में नेशनल हेल्थ पॉलिसी ने स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी का कम-से-कम 2.5 फीसदी खर्च करने की सिफारिश की थी, लेकिन चार साल बीतने के बाद भी आलम वही रहा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक केंद्र सरकार प्रति व्यक्ति एक दिन में महज 3 रूपए हीं स्वास्थ्य को लेकर खर्च करती है, जबकि राज्यों में झारखंड प्रति व्यक्ति मुश्किल से एक रूपए भी खर्च नहीं कर पाता है।

सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली बजट के आभाव में कुपोषण का शिकार होते हुए 'आईसीयू' में पहुंचती चली गई, तो वहीं प्राइवेट अस्पतालों का बाजार खिलता चला गया। बजट के लिहाज से समझे तो साल 2000 में सरकारी अस्पतालों का बजट 2,474 करोड़ था जबकि प्राइवेट अस्पतालों का बजट 50,000 करोड़ था। वहीं, साल 2020 में केंद्र का बजट 69 हजार करोड़ हुआ तो प्राइवेट अस्पतालों का बजट सीधे बढ़कर 8 लाख करोड़ रूपए जा पहुंचा।

अलबत्ता सरकारी स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (एनएचपी) और अधिक डराता है। एनएचपी 2019 के मुताबिक देश में डॉक्टरों की इतनी बड़ी किल्लत है कि लगभग 11 हजार मरीजों के इलाज का जिम्मा महज एक डॉक्टर के कंधे पर है। जबकि, बिहार जैसे राज्यों में ये आंकड़ा 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर का है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक एक हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होने का मानक है। बेड की बात करें तो लगभग 1,900 लोगों पर बमुश्किल से एक बेड का हिसाब बैठता है जबकि देश में 55,591 लोगों पर एक अस्पताल का गणित बैठता है। इस वक्त देश में कुल 7 लाख के करीब बेड हैं। वहीं, सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स इकोनॉमी एंड पॉलिसी के रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 6 लाख डॉक्टर और 20 लाख नर्स की जरूरत है। नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 24 राज्य ऐसे हैं जहां के अस्पतालों में प्राथमिक स्तर की दवा भी उपलब्ध नहीं है।

सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों के अंतर को एक और आंकड़ों से समझ सकते हैं। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया 2017 के मुताबिक करीब 11 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे, जिसमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर थे। बाकि डॉक्टर निजी अस्पतालों में कार्यरत हैं या अपना निजी प्रैक्टिस कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक देश की आबादी का कुल 3.9 फीसदी हिस्सा यानी 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से अधिक इलाज पर खर्च कर देते हैं, जबकि ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी, श्रीलंका में 0.1 प्रतिशत है और चीन में 4.8 फीसदी है।गांव की स्थिति और खराब है। एनसीबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक गांव के लोग अपनी कुल कमाई का 14 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च कर देते हैं। वहीं, इंडियास्पेंड के एक आंकड़ों के मुताबिक देश के 90 फीसदी गरीब तबकों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है। 

आंकड़ों को देखें तो भारत को स्वास्थ्य पर कंजूसी छोड़ बजट बढ़ाने की जरूरत है। ताकि प्राइवेट और सरकारी अस्पतालों के फांसले को कम किया जा सके। डॉ. धीरेन कहते हैं, "इस वक्त जितने भी वेंटिलेटर सरकारी अस्पतालों को दिए जा रहे हैं वो सिर्फ कामचलाउ है। क्योंकि, ज्यादा गंभीर स्थिति में ये वेंटिलेटर किसी काम के नहीं है। ये सस्ते दाम पर उपलब्ध कराकर गिनती पूरे किए जा रहे हैं।"

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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