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चुनाव नतीजे क्या पिछड़ा, दलित राजनीति के खात्मे के संकेत

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे तो यही फौरी संकेत देते हैं कि न सिर्फ पिछड़ा, दलित राजनीति का...
चुनाव नतीजे क्या पिछड़ा, दलित राजनीति के खात्मे के संकेत

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे तो यही फौरी संकेत देते हैं कि न सिर्फ पिछड़ा, दलित राजनीति का नब्बे के दशक में उदय अब अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है, बल्कि किसान, मजदूर, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और पहचान की राजनीति भी आखिरी सांसें गिन रही है। बेशक, कोई कह सकता है कि इस निष्कर्ष पर पहुंचना उसी तरह जल्दीबाजी होगी, जैसे साल भर तक चले किसान आंदोलन के बाद इन चुनावों में उसके असर को लेकर मुत्तमईन कई राजनैतिक जानकार नतीजों से उदारीकरण और निजीकरण पर बड़े सवाल खड़े होने की उम्मीद लगाए बैठे थे।
नतीजों से तो यही लगता है कि खासकर उत्तर प्रदेश में ‘वोट की चोट’ का नारा बुलंद करने वाले किसान नेताओं को ही चोट पड़ गई। आंदोलन के सघन असर वाले न पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा पर बड़ी चोट पड़ी, न लखीमपुर खीरी में, जहां किसानों को जीप से कुचल दिया गया था। इसी तरह बेरोजगारी, महंगाई, कोरोना की दूसरी लहर में हुई तबाही या आर्थिक तंगहाली का असर भी कम से कम सत्ता में पहुंचने वाली पार्टी के लिए चुनावी नतीजे नहीं दिखाते हैं, जिनसे शायद ही कोई इनकार कर पाए। तो, क्या चुनाव जिंदगी को छूने वाले मुद्दों से अलग हो गए हैं, जो चुनावी लोकतंत्र का मूल आधार माने गए हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो चुनावी लोकतंत्र क्या बेमानी हो चला है या अपनी परिभाषा बदल रहा है?
   लेकिन इन जमीनी मुद्दों के अलावा यह भी अहम सवाल है कि क्या पिछड़ा, दलित सियासी धाराओं और उसी से जुड़ी पहचान की राजनीति के लिए भी ये चुनावी नतीजे खतरे की घंटी बजा रहे हैं, जैसे वामपंथी राजनीति सीधी ढलान पर दिखती है (इकलौते वाम शासित राज्य केरल में वाम मोर्चे की राजनीति भी मोटे तौर पर क्षेत्रीय अस्मिता की धारा की ओर बढ़ चली है)? पिछड़ी और दलित जातियों की सियासत यूं तो आजादी के आंदोलन के वक्त ही आकार ले चुकी थीं लेकिन उनमें जोरदार जल प्रवाह नब्बे के शुरुआती दशक में मंडल आयोग की रपट के लागू होने से आया था। करीब दो दशक तक इन धाराओं की उपेक्षा कम से कम हिंदी प्रदेशों में संभव नहीं दिख रही थी। उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों में भी नहीं, जब इन्हीं धाराओं के नेताओं की भाजपा को ऐतिहासिक जीत में बड़ा असर था।
लेकिन   जरा 2022 के नतीजों पर गौर करें। इस राजनीति के लिए सबसे अहम सूबे उत्तर प्रदेश में लगभग सभी पिछड़े और दलित नेता पिछड़ गए हैं। यहां तक कि सत्तारूढ़ भाजपा में भी पिछड़े नेताओं में वह दम बाकी नहीं रहा, जो 2017 के चुनावों में था, जब केशव देव मौर्य गद्दी के प्रबल दावेदार थे, जो उन्हें नहीं मिली।
अस्सी और नब्बे के दशक में लगातार दलितों और अति पिछड़ी जातियों को गोलबंद करके कांशीराम और मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो यह कहलाने लायक भी नहीं बची है कि वह अब अपने को राज्य में गंभीर दावेदार कहलाने का दावा कर सके। अखिलेश यादव ने पिछड़ी जातियों को एक मंच पर जुटाने की कोशिश की और उसके जरिए भाजपा को चुनाव प्रचार में जोरदार चुनौती देते दिखे। लेकिन नतीजे आए तो वे आधी राह तक ही पहुंच पाए। उनके स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे कई कद्दावर नेता हार गए, जो भाजपा को फिर ‘ब्राह्मण-बनिया’ पार्टी में तब्दील कर देने का बड़बोला दावा कर रहे थे।
अखिलेश का जाति जनगणना कराने और आरक्षण को बचाने का दांव भी काम नहीं आया। अखिलेश ने चुनाव प्रचार के अलावा मतगणना में धांधली की आशंकाओं के मद्देनजर लोगों से यह आह्वान भी किया कि यह लोकतंत्र और बाबा साहेब आंबेडर के बनाए संविधान को बचाने का आखिरी चुनाव है। लेकिन नतीजों ने बता दिया कि उनके आह्वान का खास असर नहीं हुआ। आखिर पिछड़ी जातियों और दलितों के वोट के बिना भला भाजपा गठजोड़ भारी बहुमत कैसे पा सकता था। यह भी गौरतलब है कि इस लड़ाई में सुर्खरू हुए योगी आदित्यनाथ, जो कहीं से पिछड़ी और दलित धारा के नजदीक भी नहीं दिखते।
यही नहीं, पंजाब में पहला दलित मुख्यमंत्री देने का कांग्रेस का दांव भी कारगर नहीं हुआ, जबकि वहां देश में सबसे अधिक 32 प्रतिशत दलित आबादी है। चरणजीत चन्नी खुद दो चुनाव क्षेत्रों से हार गए, जिन्हें हराया आम आदमी पार्टी के दलित उम्मीदवार ने। आम आदमी पार्टी भी दलित धारा की सियासत नहीं करती। तो, यह सवाल मौजूं है कि क्या पिछड़ा, दलित धाराएं सियासत बदलकर किसी और धारा में अपनी पहचान खोज रही हैं? कोई कह सकता है कि यूपी में मुफ्त राशन और कानून-व्यवस्था की कथित सख्ती का अफसाना काम आया मगर सवाल फिर भी कायम है। अगर यह एक चुनाव का असर है तो देखें आगे क्या होता 

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