Advertisement

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लेकर बुनियादी सवाल, हायर एजुकेशन को फंड कैसे मिलेगा?

देश में अगले 50 वर्षों में किस तरह की शिक्षा होनी चाहिए, इसको लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) ने...
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लेकर बुनियादी सवाल, हायर एजुकेशन को फंड कैसे मिलेगा?

देश में अगले 50 वर्षों में किस तरह की शिक्षा होनी चाहिए, इसको लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) ने व्यापक दृष्टिकोण रखा है। एनईपी 2020 में अधिकांश बातें प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के शिक्षण, सीखने और नियामक ढांचे में कई बदलावों पर केंद्रित किए गए है। जहां तक उच्च शिक्षा का संबंध है, केंद्रीय स्तर पर नियामकों का केंद्रीकरण, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए अधिक शैक्षणिक और प्रशासनिक स्वतंत्रता और अधिक उदार शिक्षा प्रणाली में सुधारों का स्वागत किया गया है। हालाँकि, भारत में शिक्षा के बारे में सबसे बड़े और शायद सबसे बुनियादी सवाल का जवाब देने से विशेषज्ञ और एनपीई बच रही है कि इस नीति में फंड कहां से दिया जाएगा? 

1968 में लाए गए राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6% निवेश शिक्षा में करने की परिकल्पना की गई थी। लेकिन, 2017-18 में भारत में शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का करीब 2.7% था। इसके विपरीत, भूटान, जिम्बाब्वे, स्वीडन, कोस्टा रिका और फिनलैंड ने अपने जीडीपी का करीब 7% खर्च किया। वहीं, यू.के., नीदरलैंड, फिलिस्तीन,मलेशिया, केन्या, मंगोलिया, कोरिया और यूएसए ने लगभग 5% (ओईसीडी और यूनेस्को 2017) खर्च किया। हम सभी इस बात को सर्वसम्मति से मानने पर बाध्य हैं कि भारत बड़ी युवा आबादी वाला देश है, जहां शिक्षा पर बड़े पैमाने पर खर्च करने की आवश्यकता है। इसके बावजूद एनईपी ने कोई महत्वपूर्ण विश्लेषण नहीं किया है कि क्यों राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के वर्षों के बाद भी सार्वजनिक शिक्षा को पर्याप्त फंड उपलब्ध नहीं कराया गया है।

हालांकि, शिक्षा और शोध, दोनों पर कुल जीडीपी का एक निश्चित प्रतिशत के रूप में व्यय को बढ़ाने के लिए एनईपी के साथ एक मजबूत प्रतिबद्धता है। पर्याप्त धन की उपलब्धता के साथ एनईपी में नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएप) की स्थापना का भी वादा किया गया है जो संस्थानों को अनुसंधान अनुदान प्रदान करेगा। यदि कागज से इसे लागू किया जाता है तो ये दोनों उत्कृष्ट सुधार होंगे। यह भी आवश्यक है कि एनआरएफ जैसी संस्थाएं निजी और सार्वजनिक दोनों संस्थानों को एक-दूसरे के बराबर मानें।

वर्तमान में उच्च शिक्षा पर केंद्र का मौजूदा खर्च बड़े पैमाने पर कुलीन केन्द्रित वित्त पोषित संस्थानों के एक छोटे समूह की ओर जाता है। इन संस्थानों के अधिकांश स्नातकधारी भारत के बाहर रहते हैं और काम करते हैं, जो देश के विकास में बहुत कम योगदान देते हैं। एनईपी ने तीन साल की डिग्री की बजाय चार साल की स्नातक की डिग्री भी पेश की है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि छात्र आसानी से अपनी डिग्री और क्रेडिट को विश्वविद्यालयों से स्थानांतरित कर सकें।

सौभाग्यवश 1991 की आर्थिक उदारीकरण के बाद से वित्त पोषण की खाई निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा पूरी की गई। उच्च शिक्षा के 2015-16 के सर्वे के मुताबिक 78 फीसदी निजी कॉलेजों ने अपना वित्तीय प्रबंध स्वंय करते हैं जबकि 68% को सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती है। इसका मतलब यह है कि भारतीय छात्रों के एक बड़ा तबके को निजी कॉलेजों में पढ़ाया जाता है जो पूरी तरह से उनकी ट्यूशन फीस से वित्त पोषित होते हैं। 

नीति निर्माताओं और न्यायपालिका के बीच ये प्रचलित दृष्टिकोण बना हुआ है कि शिक्षा एक गैर-लाभकारी है और इसे अभी भी परोपकारी योगदान के माध्यम से वित्त पोषित किया जाना चाहिए। छात्रों और अभिभावकों से वसूली जाने वाली ट्यूशन फीस कम-से-कम रखा जाना चाहिए। इन मुद्दों को एक बार फिर से एनईपी 2020 में  गूंजा है।

हालाँकि, इस फिलॉसफी ने निजी शिक्षा प्रणाली में भारी गुणवत्ता की कमी को जन्म दिया है। निजी कॉलेजों ने परोपकार के माध्यम से पर्याप्त धन नहीं जुटाया है और न ही शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए अपनी ट्यूशन फीस में वृद्धि की है। यहां तक कि सबसे अच्छे समय में, परोपकारी योगदान अविश्वसनीय हैं और किसी भी शैक्षणिक संस्थान के लिए धन जुटाने का मुख्य स्रोत नहीं हो सकता है।

इसके अलावा गैर-लाभकारी संस्थानों को विदेशी योगदान नियमन अधिनियम (एफआरसीए) के नियमों का पालन करना पड़ता है, जब विदेशों में अपने पूर्व छात्रों से परोपकारी फंड जुटाने की कोशिश की जाती है। हालांकि, वर्तमान सरकार ने एफसीआरए अनुपालन को बहुत सरल कर दिया है। छोटे संस्थानों को अभी भी सरकारी नियमों का पालन करना मुश्किल होगा। दान से मिले सहयोग पर भरोसा करने से निजी संस्थानों में भारी असमानताएँ पैदा हुई हैं और कुछ संस्थान ही अपने छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में सक्षम हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने की बजाय एनईपी यहां पर विफल हो जाती है, जो ये कह रही है कि निजी शिक्षण संस्थानों को केवल सहयोग के माध्यम से अपने फंड को एकत्रित करना चाहिए। एनईपी वेस्टर्न विश्वविद्यालयों का हवाला देते हुए कहती है कि वहां सहयोग के माध्यम से बड़ी मात्रा में धन जुटाने में सक्षम हैं। इसी कारण से भारत भी इस मॉडल पर काम कर सकता है।

एनईपी जो उल्लेख करने में विफल रही है वो ये कि कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़कर, अमेरिका में अधिकांश विश्वविद्यालय अभी भी छात्रों से उनकी आय के प्राथमिक स्रोत के रूप में अत्यधिक शुल्क पर निर्भर हैं और जब तक वे स्नातक होते हैं, तब तक वे कर्ज में डूबते जा रहे होते हैं। फोर्ब्स ने अनुमान लगाया है कि अमेरिकी छात्रों का ऋण 1.6 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। उपभोक्ता ऋण श्रेणी में केवल होम लोन के बाद ये दूसरा है। इसमें वे छात्र शामिल हैं जो अमेरिका में प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं।

इन सबका ये परिणाम है कि भारत में शैक्षिक उद्यमिता उन कोचिंग संस्थानों तक हीं सीमित है जो न के बराबर या बिना किसी नियमन के संचालित किए जाते हैं और रट्टा मारने और परीक्षा देने को प्रोत्साहित किया जात हैं। इससे इतर एनईपी सुझाव देता है कि सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश राष्ट्रीय परीक्षण प्राधिकरण (एनटीए) द्वारा आयोजित मानकीकृत परीक्षण अंकों पर आधारित होना चाहिए। यह फिर से कोचिंग क्लासेज् और रट्टा माने की परंपरा प्रोत्साहित करता है। आगे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित परीक्षाओं और मूल्यांकन के वैल्यू को हटा देता है।

एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे को एनईपी में शामिल नहीं किया गया है, जिसमें भारत अपने शैक्षणिक संस्थानों पर कर लगाता है। कुछ संदर्भों को देखे तो यूएस में संस्थानों को बड़े दान फंडों को बनाए रखने की अनुमति है जिनका उपयोग ये शैक्षिक मिशन को आगे बढ़ाने के लिए कर सकते हैं। हार्वर्ड और एमआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्थान बड़े और बहुराष्ट्रीय निगमों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बंदोबस्ती के माध्यम से चलाता हैं, जबकि सभी अपने गैर लाभ की स्थिति को बनाए रखते हैं। मिले फंड इन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के अनुसंधान, बुनियादी ढांचे, शिक्षण और सामुदायिक सेवा मिशनों का समर्थन करते हैं, और उनके पास इन फंडों को बढ़ाने, निवेश करने और बचाने के लिए बहुत लचीलापन है।

इसके विपरीत, भारत में निजी शैक्षिक ट्रस्ट और सोसाइटी केवल कर अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किए बिना कोष या बंदोबस्ती फंड का निर्माण नहीं कर सकते हैं। यदि उनके पास इस तरह की होल्डिंग है तो वे अपनी कर मुक्त स्थिति को खोने का जोखिम उठाते हैं। यह संस्थानों को स्टार्टअप में निवेश करने या स्टेक रखने से या उन नवाचारों को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने से रोकता है जो उनके संस्थानों से बाहर निकल सकते हैं। इसके अलावा, कर कानून संस्थानों को अपनी आय का अधिकांश हिस्सा उसी वित्तीय वर्ष के भीतर खर्च करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो अर्जित किया गया था या फिर उन पर "शिक्षा का व्यवसायीकरण" या "मुनाफाखोरी" करने का आरोप लगाया जाएगा। यह बहुत कम या बचत के साथ संस्थानों को छोड़ता है जिसका उपयोग बुनियादी ढांचे में सुधार, अनुसंधान का संचालन या विभिन्न संकटों या प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंधन के लिए किया जा सकें।

एनईपी द्वारा प्रचारित वित्तीय मॉडल की कमजोरियों को कोविड-19 महामारी ने बड़े पैमाने पर उजागर किया है। दान के सहयोग के साथ चलने वाले कई संस्थान अब संकट में हैं और अपने संकाय का भुगतान करने, अपने ऋणों की सेवा करने या दिन-प्रतिदिन के खर्च को पूरा करने में असमर्थ हैं। ये फिर से शिक्षण संस्थानों को एक लिक्विड कॉर्पस फंड बनाने की अनुमति देने की आवश्यकता को दर्शाता है जिसे निवेश किया जा सके और बचाया जा सके और मुश्किल समय के दौरान इस्तेमाल किया जा सके।

एनईपी का प्राथमिक लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी भारतीय सस्ती कीमत पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकें। एनईपी 2020 की सबसे बड़ी सफलता ये है कि यह कम विनियमों, अधिक स्वायत्तता, बेहतर शिक्षण और सीखने के तरीकों, बेहतर शिक्षक प्रशिक्षण और अधिक सार्थक परीक्षाओं की आवश्यकता को जगह देता है। अनिवार्य रूप से, इसने भारत को भविष्य के लिए एक दृष्टिकोण दिया है। हालांकि, इसने एक यथार्थवादी तरीका प्रदान नहीं किया है जिसमें निजी संस्थान अपने छात्रों और उनके समुदायों की जरूरतों को पूरा करने के लिए धन जुटा सकें।

एनईपी अपने आप में एक कानून नहीं है बल्कि, यह कानून बनाने के लिए एक रूपरेखा से अधिक है। सरकार को एनईपी के विभिन्न पहलुओं को सक्षम करने के लिए कानून पारित करने की आवश्यकता होगी और सांसदों को दृढ़ता से विचार करने की जरूरत होगी ताकि शिक्षा के निजी वित्त पोषण में सुधार कैसे किया जाए,इस बात पर अमल हो। वे या तो संस्थानों के लिए अधिक से अधिक लचीलेपन की अनुमति दे सकते हैं या एक कोष बनाया जा सकता हैं, जिसका उपयोग अनुसंधान और शैक्षिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। या उन्हें शिक्षा में निजी लाभ के निवेश की अनुमति देने पर विचार करना चाहिए। तभी हम सभी के लिए बेहतर गुणवत्ता की शिक्षा के अपने लक्ष्यों को साकार करने के करीब हो सकते हैं।

( लेखक महात्मा एजुकेशन सोसाइटी के सीओओ हैं। इन्होंने देश में कई स्टार्टअप के लिए संस्थापक और संरक्षक के रूप में काम किया है। मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी की है। लेख उनके निजी विचार हैं।)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad