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सेरोगेसी अधिनियम : अब सिर्फ परिवार तक सीमित

सात महीने की गर्भवती आशा (बदला हुआ नाम) इस बच्चे को अपना नहीं कह सकती। पिछले साल उनका सात साल के बेटे का...
सेरोगेसी अधिनियम : अब सिर्फ परिवार तक सीमित

सात महीने की गर्भवती आशा (बदला हुआ नाम) इस बच्चे को अपना नहीं कह सकती। पिछले साल उनका सात साल के बेटे का एक्सीडेंट हो गया था, जिसकी वजह से गरीब परिवार कर्जदार हो गया। उसके बाद एक दंपती ने उनसे 3 लाख रुपये में सेरोगेट मां बनने के बारे में पूछा, जो स्वास्थ्य कारण से गर्भधारण नहीं कर सकते थे। रिक्शा चलाने वाले उनके पति और उनकी सास इसके लिए तैयार हो गए और दिल्ली के एक क्लिनिक में आशा की आईवीएफ प्रक्रिया शुरू हो गई।

अब बच्चे के जन्म से दो महीने पहले वह घबराहट महसूस कर रही है। बच्चे के जन्म को लेकर नहीं बल्कि उस नियम को लेकर जो केंद्र सरकार द्वारा लागू करने की उम्मीद है। हाल ही में लोकसभा में सेरोगेसी (रेग्यूलेशन) बिल 2019 रखा गया है। इसमें व्यावसायिक सेरोगेसी पर प्रतिबंध की मांग है। इसका उल्लंघन करने वालों कठोर जुर्माने के साथ दंड का भी प्रावधान है। आशा कहती हैं, “मेरे जैसी कई महिलाएं सेरोगेट बनना चाहती हैं क्योंकि हमारे परिवार को पैसों की जरूरत है। सरकार ने कभी हमारे स्वास्थ्य, कर्ज और सामाजिक सुरक्षा की चिंता नहीं की और अब वह हमारे शरीर से हमारा अधिकार खत्म करना चाहती है।” 

बेबी मंजी यमाडा के कारण बना नियमन

इस बिल से भारत के आईवीएफ और आर्टिफिशियल रिप्रोडक्शन टेक्नोलॉजी (एआरटी) सेक्टर में भी खलबली मच गई है। पिछले दो दशकों में, व्यावसायिक सरोगेसी उद्योग देश में 2 बिलियन डॉलर उद्योग के रूप में उभरा है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग की संसदीय स्थायी समिति ने अगस्त 2017 में राज्य सभा में बिल पर जो रिपोर्ट पेश की थी उसके अनुसार भारत में सेरोगेसी से अनुमान के मुताबिक 2,000 बच्चों का जन्म होता है, यानी पिछले तीन सालों में 1.3 बिलियन जनसंख्या। 

भारत में 2002 के बाद से सही कानूनी ढांचे के अभाव के कारण व्यवासायिक सरोगेसी संभव हो पाई। 2008 की एक घटना ने पूरे विश्व का ध्यान खींचा जब सुप्रीम कोर्ट ने बेबी मंजी यमाडा मामले में फैसला सुनाया। 25 जुलाई 2008 में जन्मी बेबी मंजी का जन्म गुजरात के आणंद में आकांक्षा फर्टिलिटी क्लिनिक में सेरोगेट मां के जरिये हुआ था। जापनी दंपती ने बच्चे के लिए कोख किराए पर ली थी। लेकिन गर्भावस्था के दौरान ही दोनों का तलाक हो गया और वे बच्ची को अपने भाग्य पर छोड़ कर चले गए। बेबी मंजी की कस्टडी उसकी दादी को देते हुए सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने ने कहा कि सेरोगेसी ‘भारत में वैध’ है। डॉ. नयन पटेल द्वारा संचालित यह फर्टिलिटी क्लिनिक कड़ी जांच के घेरे में आ गया। आणंद, ‘किराए की कोख’ केंद्र के रूप में उभर गया था जहां कुकुरमुत्तों की तरह ऐसे क्लिनिक खुले हुए थे। कुछ तो सेरोगेट मांओं के लिए हॉस्टल चला रहे थे और इनमें से कुछ का तो पंजीकरण भी नहीं था।

बेबी मांजी विवाद की तरह और भी कई विदेशी जोड़ों के ऐसे मामले थे। इसके बाद केंद्र सरकार ने भारत में विदेशी जोड़ों के लिए सेरोगेट मां बनने को गैरकानूनी घोषित किया। इसके बाद के वर्षों में, शाहरुख खान और आमिर खान जैसी भारतीय फिल्म हस्तियों ने पहले से ही जैविक बच्चे होने के बावजूद सरोगेसी के माध्यम से बच्चे पैदा करने का विकल्प चुना, जबकि अविवाहित होते हुए भी करण जौहर और तुषार कपूर सरोगेसी के माध्यम से बच्चों के एकल अभिभावक बन गए।

करीबी रिश्तेदार ही बन बन पाएगी सेरोगेट

जब अदालतों ने इस मामले में एक नियमन ढांचे की मांग की तब केंद्र पहली बार 2016 में लोकसभा में सेरोगेसी (रेग्युलेशन) बिल लाया जो इस साल संशोधनों के साथ दोबारा पटल पर है। बिल में व्यावसायिक सरोगेसी को ‘शोषक और अनैतिक’ कहा गया है। यह बिल केवल 25-35 आयु वर्ग की संतानोत्पत्ति में अक्षम माता-पिता को ही सेरोगेसी की अनुमति देता है जिसमें उनकी कोई ‘करीबी विवाहित रिश्तेदार’ ही सेरोगेट हो सकेगी। इस प्रक्रिया में सरोगेट मां के स्वास्थ्य पर खर्च के अलावा कोई धन शामिल नहीं है। जिस महिला के खुद के जैविक बच्चे होंगे केवल वही जीवन में एक बार सेरोगेट बन पाएगी। ऐसा कोई भी दंपती जिसकी शादी को पांच साल हो गए हैं उसे संतानोत्पत्ति में अक्षम होने का प्रमाण देना होगा। यह प्रमाण पत्र सरकार द्वारा नामित मेडिकल बोर्ड से लेना होगा। जिस तरह कोई महिला एक बार ही सेरोगेट मां बन सकती है उसी तरह कोई भी दंपती जीवन में एक ही बार सेरोगेट मां की मदद ले सकेगा। 

संसदीय स्थायी समिति का कहना था कि सेरोगेसी के लिए निकट संबंधी द्वारा सहमत होने वाले रिश्तेदारों के मामले में भी ‘मजबूरी और जबरदस्ती’ हो सकती है। बल्कि केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय (डब्ल्यूसीडी) ने तो संसदीय समिति की चर्चा में एक नियामक तंत्र का भी सुझाव दिया था लेकिन सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया। समिति के समक्ष अपनी प्रस्तुति में, डब्ल्यूसीडी मंत्रालय में तत्कालीन संयुक्त सचिव चेतन सांघी ने ‘हर भारतीय महिला चाहे वह विवाहित हो, एकल, तलाकशुदा या विधवा हो के लिए सेरोगेसी की अनुमति दी थी। करीबी रिश्तेदार द्वारा मदद के लिए सेरोगेसी का विरोध करते हुए सांघी ने सुझाव दिया था कि “राज्यों को सेरोगेट मांओं की सूची बनाना चाहिए और उनके पास इस सूची से नाम वापस लेने का विकल्प भी होना चाहिए। यदि सेरोगेट चिकित्सिय रूप से फिट है तो उसे अपने जीवन में दो बार सेरोगेट होने का मौका दिया जाना चाहिए। लेकिन इसके लिए जरूरी हो कि दो गर्भधारण के बीच तीन साल का अंतर हो।” डब्ल्यूसीडी मंत्रालय ने इस बात पर जोर दिया था कि व्यावसायिक सरोगेसी पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने से इसमें अवैध तरीके की बाढ़ आ जाएगी।

बिल में हैं कई कमियां

अधिकांश विशेषज्ञों ने समिति को बताया कि सरकार को इसके बजाय माता-पिता की क्षतिपूर्ति के लिए प्रदान करने वाली सरोगेट मां और सेरोगेट मां के बीच एक व्यापक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते के लिए अनिवार्य करना चाहिए। ज्यादातर विशेषज्ञों ने समिति को बताया कि आर्थिक क्षतिपूर्ति के लिए सरकार को इच्छुक माता-पिता और सरोगेट मदर के बीच कानूनी रूप से व्यापक बाध्याकारी समझौते को अनिवार्य करना चाहिए जो कि सेरोगेट मां की डिलवरी के पहले और बाद में देखभाल के लिए हो। विधेयक को अंतिम रूप देते समय, सरकार ने समिति की लगभग सभी टिप्पणियों को अस्वीकार कर दिया।

दिल्ली में इंटरनेशनल फर्टिलिटी सेंटर चलाने वाली डॉ. रीता बख्शी का कहना है, “यह बिल बहुत अजीब है। इस बिल में एआरटी के मामले में समझ की कमी है। साथ ही इसमें समाजिक मानदंडो और बांझपन के बारे में भी गलतफहमी है। सेरोगेसी को नियमित करने की जरूरत थी मगर सरकार ने इस पर प्रतिबंध ही लगा दिया। इसमें पांच साल की अवधि तक सेरोगेसी नहीं करा सकते वाली बात सबसे हास्यास्पद है क्योंकि कुछ महिलाएं तो पैदा ही बिना गर्भाशय के होती हैं। और तो और कुछ महिला और पुरुषों में जन्मजात दोष होता है जिसकी वजह से वह कभी संतान पैदा नहीं कर सकते। भला ऐसे लोग सेरोगेसी से बच्चा पैदा करने के लिए पांच साल क्यों रुके?”

फेडरेशन ऑफ ऑब्स्टेट्रिक एंड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया की पूर्व अध्यक्ष डॉ. रश्मि पई को लगता है कि इनफर्टिलिटी सर्टिफिकेट लेना इस बिल की एक और जटिलता है। वह कहती हैं, “तलाक के बड़े कारणों में से एक बांझपन है। यह विधेयक किसी भी  पुरुष या महिला को तलाक लेना आसान बना देगा क्योंकि बांझ होने  का प्रमाण पत्र अलगाव के लिए कानूनी रूप से स्वीकार्य आधार है।

अंतर्राष्ट्रीय सेरोगेसी फोरम की सदस्य प्रितपाल निज्जर, जिन्हें लगता है कि यह बिल संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून से पहले समानता) का उल्लंघन करता है पूछती हैं कि “अनजाने में ही सही सरकार संविधान का उल्लंघन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता के साथ-साथ लिव-इन रिलेशनशिप की पवित्रता को बरकरार रखा है। समलैंगिकों, लिव-इन जोड़ों और यहां तक कि एकल माता-पिता को भी बच्चा गोद लेने की अनुमति है। तब सरकार केवल चुनिंदा विवाहित जोड़ों को ही सरोगेसी का अधिकार क्यों दे रही है?”

व्यावसायिक सरोगेसी की आलोचना करने वालों का कहना है कि सरोगेसी क्लीनिकों की संख्या बेतहाशा बढ़ गई है। कई बार ये लोग सुबूत सहित दावा करते हैं कि इस वजह से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ की जा रही है। क्योंकि ये महिलाएं सात से आठ साल के बीच चार से पांच बच्चों के लिए सेरोगेसी करती हैं। एक सामान्य आरोप यह भी है कि सरोगेसी क्लीनिक और एजेंट जो सेरोगेसी के लिए महिलाएं खोजते हैं उसमें कमीशन खाते हैं। एक सेरोगेसी के लिए भावी अभिभावकों से 12-14 लाख रुपये लिए जाते हैं लेकिन सरोगेट मां को 3 लाख या इससे भी कम रुपये मिलते थे।

एजेंटों का भी है कमीशन

डॉ. बक्षी कहती हैं, “यह धारणा ही गलत है कि डॉक्टर और एजेंट सेरोगेट को धोखा देते हैं।” वह तर्क से अपनी बात रखते हुए कहती हैं, एजेंट को पैसे देने के अलावा सेरोगेट को 3-5 लाख रुपये मिलते हैं और बाकी पैसे आईवीएफ और हॉस्पिटल के दूसरे खर्चों में लग जाते हैं। सीमा पिछले आठ सालों से एआरटी क्लिनिक्स और दंपतियों के बीच कड़ी का काम करती हैं। वह एजेंट हैं। कुछ सालों पहले सीमा के पति की मृत्यु हो गई है। वह अपनी सास और दो बच्चों का पालन-पोषण करती है। वह कहती हैं, “मुझे बच्चे के जन्म के बाद 50,000 रुपये मिलते हैं। छह हजार रुपये कमाने वाली घरेलू नौकरानी के लिए चार लोगों का पेट पालना आसान नहीं है। कहां से तो किराया दें और बच्चों को कैसे स्कूल भेजें। तभी मुझे पड़ोस में रहने वाली एक महिला से सेरोगेसी के बारे में पता चला। वही मुझे क्लिनिक ले गई। अब मैं निम्न आय वर्ग वाली ऐसी महिलाओं को सेरोगेट के रूप में खोजती हूं जिन्हें पैसों की जरूरत होती है।” एक और एजेंट का कहना है कि महिला जब एक बार सेरोगेट बनने के लिए तैयार हो जाती है तब पहला काम होता है उसके पति और परिवार से बात करना। वह कहती हैं, “हम तभी उन्हें क्लिनिक में ले कर जाते हैं जब उनका परिवार इसके लिए तैयार हो जाता है। मैंने जिन भी क्लिनिक के साथ काम किया है वे सबसे पहले महिला को बैंक खाता खोलने के लिए कहते हैं ताकि रकम सीधे अकाउंट में ट्रांसफर हो सके। हम भी सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें हर महीने अपना खयाल रखने, खाने और दवा के लिए 8,000 से 10,000 रुपये मिल जाए।” 

लेकिन दंपती बच्चा गोद लेने की अपेक्षा सेरोगेसी क्यों चुनते हैं? इसका जवाब आकाश और प्रीति (बदला हुआ नाम) से पूछें, जिनकी शादी तीन साल पहले हुई है और वे सेरोगेसी के जरिये बच्चा होने पर विचार कर रहे हैं। आकाश को जन्मजात कोरोनरी डिसऑर्डर है जबकि प्रीति को गंभीर मिर्गी रोग और कुछ गायनेकोलॉजिकल दिक्कते हैं। वह कहती हैं, “हालांकि हमें प्रजनन संबंधी कोई समस्या नहीं है फिर भी डॉक्टर का कहना है कि बच्चा पैदा करना हम दोनों के लिए सुरक्षित नहीं है। पहले हमने बच्चा गोद लेने के बारे में ही सोचा था। पर फिर हमें महसूस हुआ कि एक बच्चा होना चाहिए जिसमें हमारा खून हो। सेरोगेसी से ऐसा संभव है। हमें बच्चा मिल जाएगा और एक जरूरतमंद महिला को पैसे। इसमें गलत क्या है?”

जिस देश में बांझ होना खराब माना जाता हो और परिवार ‘अपना खून’ वाला बच्चा चाहते हों वहां आकाश और प्रीति की गोद लेने के बजाय सेरोगेसी की इच्छा को समझा जा सकता है। 2004 से अपने आकांक्षा क्लिनिक में 1,200 सेरोगेट बच्चों का जन्म देख चुकीं डॉ. पटेल कहती हैं, “सरकार का व्यावसायिक सरोगेसी बनाने का इरादा खलनायक की तरह दिखाई देता है। यह “पितृसत्ता और नैतिकता के गलत अर्थ” का परिणाम है। भारत में आईवीएफ / एआरटी प्रक्रियाओं के माध्यम से किए जाने वाले गर्भधारण की कुल संख्या में से, सरोगेट द्वारा जन्में बच्चे लगभग 2 प्रतिशत हैं। अगर सरकार वास्तव में सरोगेसी को नियमित करना चाहती थी और इसे प्रतिबंधित नहीं करना चाहती थी,  तो उसे विशेषज्ञों की राय को गंभीरता से लेना चाहिए था।  

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