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2020 का महा सदमा

“हालात बहुत कुछ ऐसे हैं कि शहरों की भरीपूरी आबादी के समुद्र में कोई रॉबिनसन क्रूसो निपट अकेले नाव खे...
2020 का महा सदमा

“हालात बहुत कुछ ऐसे हैं कि शहरों की भरीपूरी आबादी के समुद्र में कोई रॉबिनसन क्रूसो निपट अकेले नाव खे रहा है”

वह दिमाग में जैसे लगातार भनभना रहा है, जैसे दूर से आती रेडियो की कोई धीमी आवाज हो या मच्छर की भनभनाहट। यह महामारी की गूंज है, जिसे किसी एकाकीपन की दुश्चिंता या हल्का-फुल्का सिरदर्द जानकर भुलाया नहीं जा सकता। वह दफ्तर की कॉन-कॉल और दोस्तों के साथ वीडियो चैटिंग के वक्त भी दिमाग के किसी कोने में हावी रहती है। उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल है। नितांत जरूरी सामान खरीदने बाहर निकलिए, तब भी जैसे साए की तरह मौजूद रहती है। आखिर सिर झटककर कुछ खाना बनाने उठिए तो पल भर में आपका सोशल मीडिया चैट-लॉग भर उठता है। लोग बात करने को ऐसे पगलाए-से हैं कि पल भर का इंतजार मंजूर नहीं। ऐसा तो कभी नहीं था। अमूमन बातचीत के कोई खास मायने भी नहीं, सही या गलत खबर सब एक भाव, सबमें सिर्फ भविष्य को लेकर घबराहटें ही घबराहटें। हम जो करते हैं, जैसे अचानक सबमें हल्की-सी सनक सवार हो गई है....न चाहते हुए भी यह सवाल बार-बार दिमाग में घूम जाता है, हम ठीक तो हैं?  लेकिन दुनिया में आखिर ठीक क्या है? मौत, महामारी और अचानक आन पड़ी विपदा के दौर में लोग यही प्रार्थना कर रहे हैं कि हे! भगवान हमें बचाओ। फिर जरा दुनिया और...अदृश्य तकदीर का खेल तो देखिए! या कहिए कुदरत का खेल। हमने अपनी जिंदगी सुरक्षित करने के लिए जो कुछ उपाय किए थे, हमारी बीमा पॉलिसी, डाइट प्लान, गेटेड सोसायटी, दवाइयां सभी की जैसे वह खिल्ली उड़ा रहा है। तो, कोरोना नामक दैत्य ने घेरा डाल लिया है, सिर्फ वह वायरस ही नहीं, बल्कि उसके साथ दबे पांव चला आया दिमागी खौफ का साया भी। हम सब पर वह कुछ कमोवेश्‍ा के साथ छाया हुआ है, खत्म हो जाने की दुश्चिंता, उम्र की घबराहट। यह जैसे दुनिया की मानसिक सेहत की अग्निपरीक्षा है, जो हमारी पीढ़ियों के दौर में ऐसा सामूहिक तनाव कभी नहीं दिखा है। भारतीय मनोचिकित्सक सोसायटी के अध्यक्ष पी.के. दलाल कहते हैं, “हर कोई किसी न किसी तरह चिंतित है। हमने इससे पहले कभी ऐसी महामारी नहीं देखी है। दुनिया ने पिछली महामारी 1918 में देखी थी।”

फिर भी हमें उससे लड़ना है, बुरी खबरों के इस महाप्रलय में हम अकेले हैं। हम ब्रेकफास्ट और डिनर में तन्हा होते हैं, सामान्य समाज जैसे बैठ-सा गया है। गोया, मनहूस-सी गल्प कथा चल रही है? जी, नहीं, यह कड़वी हकीकत है। सो, आश्चर्य नहीं कि मानसिक वेदना और उदासी बेहिसाब है, आत्महत्याओं की भी खबरें हैं और घरेलू हिंसा की घटनाओं में तेजी आई है। यही नहीं, व्यसन और उसे न लेने के दुष्प्रभाव की खबरें भी हैं। तो, क्या भारतीय घरों से निकलने वाली ये अब तक की सबसे बुरी खबरें हैं? लॉकडाउन के महज दस दिनों में ही बाल उत्पीड़न से संबधित मामलों में मदद के लिए करीब एक लाख कॉल दर्ज की गईं। यह भी स्पष्ट कर लें कि मामला सिर्फ विज्ञान और वायरस का ही नहीं, न बाहर जाकर सब्जी खरीदने भर का है। भारत अब सामान्य नहीं है। शायद यह पूरी तरह सामान्य कभी नहीं था, लेकिन तनाव का हर पल अपने नए शिकार पैदा कर रहा है, जब हम यह बात कर रहे हैं तब भी।

इसे कोविड-19 युद्ध का मानसिक संताप कहिए, और यह किसी महामारी से कम नहीं है। यह हमारे सामूहिक विवेक को विशाल चुनौती की तरह है...या शायद हमारे दिमाग में पहले से मौजूद खाइयों के अलावा एक और खाई, क्योंकि हम सबके पहले से ही कई तरह के तनावों के अलावा यह एक नया भारी तनाव आ धमका। बेशक, कोई भी सामाजिक-आर्थिक (या मनोवैज्ञानिक) रूप से एकदम सुकून से नहीं है। चाहे वह थम चुकी खाद्य शृंखला के दोनों तरफ के किसान और मध्यवर्ग के रिटायर व्यक्ति हों, या सड़क नापने वाला डिलीवरी ब्वॉय, शीशों के मकानों में सूटधारी एक्जीक्यूटिव, अपने दायरे में दुबका नेता, साइबर जगत में खोए नाबालिग, या फिर अत्याधुनिक लैब में बैठा वायरोलॉजिस्ट। हम पूछ सकते हैं कि क्या साधु, गुरु और तमाम पंथों के स्वामी भी मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं? इससे तो कोई भी वैक्सीन हमें छुटकारा नहीं दिला सकता, सिर्फ हमारा मानसिक संतुलन और हर स्थिति में समभाव रहने का धैर्य तथा लचीलापन ही इससे निजात दिला सकता है।

लेकिन इस महामारी को किस पैमाने पर माप सकते हैं, इसके प्रकोप का अंदाजा कैसे लगा सकते हैं और इस पर नियंत्रण कैसे कर सकते हैं? देश भर में शुरू की गईं हेल्पलाइनें बेहिसाब हैं। दलाल कहते हैं, “अधिकांश राज्यों के प्रमुख जिलों में हेल्पलाइन शुरू की गई हैं।” देश भर की हेल्पलाइनों में कार्यरत परामर्शदाता रोजाना कोविड-19 से संबंधित सवालों से जूझ रहे हैं। ये शिकायतें “सामान्य” या दुश्चिंता की आम उत्तेजनाएं हैं। लेकिन गहरी उत्तेजनाओं का क्या? जैसे, आत्महत्या की कुछ वारदातें? अमृतसर में एक बुजुर्ग पति-पत्नी एक पत्र छोड़ गए, जिससे पुलिस को उनके संक्रमित होने का अंदेशा हुआ। दिल्ली में टेस्ट के लिए प्रतीक्षा कर रहे एक मरीज ने अस्पताल की तीसरी मंजिल से छलांग लगा दी। सौभाग्यवश उसकी सिर्फ एक टांग टूटी। या फिर लगभग एक लाख बच्चों का मामला देखिए, उन्होंने कोई परेशानी होने पर ही हेल्पलाइन पर कॉल किया था। ये बच्चे अभी भी अपने उत्पीड़नकर्ताओं के साथ हो सकते हैं। यानी यह हकीकत है, वास्तविक है।

स्वास्थ्य कर्मचारी भी इस भय के माहौल से बच नहीं सकते हैं। उन्हें भी इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है। चीन के तमाम अस्पतालों में हाल में 1,257 स्वास्थ्यकर्मियों के बीच सर्वे किए गए। इससे पता चला कि बड़ी संख्या में कर्मी अवसाद, दुश्चिंता और तनाव से ग्रस्त हैं। भारतीय मनोचिकित्सक सोसायटी ने भी इस सप्ताह स्वास्थ्यकर्मियों के बीच ऑनलाइन सर्वे शुरू किया है। लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, जहां दलाल काम करते हैं, में स्टाफ को कोविड-19 वार्ड में भेजने से पहले ट्रेनिंग सेशन में भेजा गया। दलाल ने कहा, “हम टीम को इससे निपटने के लिए 30 मिनट का कोर्स देते हैं क्योंकि वे सात दिनों तक वार्ड में ड्यूटी पर रहेंगे। इसके बाद उन्हें 14 दिनों के लिए क्वारंटाइन में भेजा जाएगा।” इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी इस सप्ताह डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए टेली-काउंसिलिंग शुरू की है।

हम इससे किस तरह निपटते हैं? दलाल तथ्यों और दोहरे लक्ष्य की बात करते हैं। वे कहते हैं, कोरोना संबंधित समस्याओं में मुख्य तौर पर लोगों को परामर्श की आवश्यकता है। हम भी उन्हें बता रहे हैं कि सूचनाओं के दबाव में निराश होने की जरूरत नहीं है। फोर्टिस हेल्थकेयर, दिल्ली के मेंटल हेल्थ विभाग के डायरेक्टर समीर पारिख इसके पहलुओं पर बात करते हैं। पहली चिंता अधिकांश लोगों को होती है कि अगर मेरे या मेरे परिवार के साथ कुछ हो गया तो क्या होगा। इसके बाद जीवन जीने के बिलकुल नए तरीके के साथ तालमेल बिठाने की चुनौती होती है। तीसरी चिंता कोरोना संकट के बाद की स्थिति को लेकर है। जैसे, हालात सामान्य होने पर मेरी नौकरी का क्या होगा, मेरी वित्तीय स्थिति कैसे रहेगी। इस तरह के सवाल आम हैं।

शायद ये आम सवाल हैं लेकिन स्थितियां असामान्य हैं। भूकंप और सुनामी जैसी आपदा के संभावित क्षेत्रों में रहने वाले कम से कम भाग्य के भरोसे बचने की उम्मीद कर सकते हैं लेकिन दुनिया में इस समय जो प्रकोप है, उसमें निराशा ही दिखाई देती है। स्थिरता के साथ सटीक अनुमान इस प्रकोप में बेमानी हो चुका है। यही वजह है कि मनोवैज्ञानिक कुशलता से ही सवालों के जवाब निकल सकते हैं, जबकि खतरे का एहसास सबको है। उन समागमों पर गौर कीजिए, बालकनी में खड़े होकर पादरी लोगों को संबोधित करता है। हम भी इसी तरह खड़े हैं या फिर डिजिटल वर्ल्ड में घिरे हैं। हम सभी अपने घरों पर सुरक्षित लेकिन अनिश्चित हैं। जैसे भरेपूरे शहरों के समुद्र में एक निर्जन द्वीप पर रॉबिनसन क्रूज की तरह अकेले ही तैर रहे हैं।

लेकिन हम एक-दूसरे को डिजिटल सिग्नल भेजते हैं। इस तरह से हम काफी हद तक संभलने में कामयाब हो जाते हैं। इससे अलग तरह की दुनिया उभर रही है। सोचिए, टचस्क्रीन पर कैसे अंगुलियां घूम रही हैं। कई पर तो जैसे भावनाओं की बारिश होने लगती है। अनेक लोग फॉरवर्ड करने के मोह से बच नहीं पाते हैं क्योंकि यह भी नया धर्मकार्य जैसा हो गया है, मानो वर्चुअल स्ट्रीट में उम्मीद की लौ जगाकर निराशा दूर करना कोई पुण्य का काम हो। कई लोग चुटकुले साझा करने के अपने पुराने शगल से भी उदासीन हो गए हैं। अप्रैल फूल आया और निकल गया क्योंकि दुनिया चुटकुलेबाजी के मूड में नहीं थी। लेकिन यह न समझिए कि चुटकुलेबाजी का शगल शांत है। व्हाट्सएप और ट्विटर पर तो इसकी भरमार है जो तनाव के दौर में सेफ्टी वाल्व का काम कर रहे हैं और बोरियत दूर कर रहे हैं।

इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज, दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. निमेष जी. देसाई कहते हैं, “आज के दौर का गोल्डन रूल है कि हर किसी को अनिश्चितता स्वीकार करनी होगी। दूसरा नियम है कि लॉकडाउन को हमें सामाजिक जिम्मेदारी के तौर पर मानना होगा। दरअसल, इससे हमें खुद के भीतर से निकलकर समाज के बारे में सोचने में मदद मिलती है।” मौजूदा हालात में लोगों की निराशा से उबरने के लिए अलग-अलग आवश्यकताएं हैं। कुछ लोग अकेले रहते हैं तो कुछ अपने घरों से दूर फंस गए हैं। सभी की स्थितियां अलग-अलग हैं। इसलिए सबके उबरने का तरीका अलग-अलग होगा। देसाई कहते हैं कि हमें वर्ग श्रेणियों को भी ध्यान में रखना होगा। एक नए अपार्टमेंट में अकेले रहने वाले तलाकशुदा के लिए निराशा का पैमाना अलग होगा जबकि उसी फ्लैट को बनाने वाले प्रवासी मजदूर के लिए पैमाना कुछ और होगा।

लेकिन इसमें संदेह नहीं कि समस्या हर जगह है। देसाई को शराब की लत से जुड़े अवसाद के मामलों में वृद्धि दिख रही है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “अवसाद के मामले हमेशा ही ज्यादा आते हैं लेकिन इस समय इनमें काफी बढोतरी दिख रही है। हताशा और कुंठा में व्यवहार बदल जा सकता है, घरेलू हिंसा भी बढ़ सकती है।” घर पर बैठे रहने का एक और साइड इफेक्ट है कि कुछ रिपोर्ट के मुताबिक कंडोम की बिक्री बढ़ गई है। तो, क्या लोग और ज्यादा सेक्स करने लगे हैं? यह कोई काल्पनिक अनुमान नहीं है। यह आपदा के क्षण में मानवीय व्यवहार का प्रमाणित सच है। लेकिन क्या उस समय सेक्स के बारे में सोचा भी जा सकता है, जब शरीर खुद ही आशंकाओं से घिरा हुआ हो?

संभवतः इस मामले में वर्ग विभाजन का फर्क दिख सकता है। प्रसिद्ध सेक्सोलॉजिस्ट प्रकाश कोठारी कहते हैं, “इस तरह के माहौल में सेक्स की बारंबारता बढ़ सकती है। गरीबों के पास जगह की कमी होती है, इसलिए उनकी सेक्स लाइफ प्रभावित होती है। चिंता का दौर छोड़ दीजिए, उनके पास प्राइवेसी होती ही नहीं है।” इसलिए कोरोना के बाद दुनिया में बेबी बूम आने की अटकलें एक अलग बात है। कोठारी इसका शुष्क जवाब देते हैं, “भारत में सामान्य समय में भी लोगों के पास तनाव दूर करने का यही एक माध्यम है। लोग मूवी टिकट के लिए कुछ सौ रुपये खर्च नहीं कर सकते हैं।”

अगर हालात सामान्य हो जाएं तो मनोवैज्ञानिक समस्याएं ज्यादा गंभीर साबित होंगी। सरकार की ओर से एक एनजीओ संकट में घिरे बच्चों के लिए हेल्पलाइन चाइल्डलाइन 1098 संचालित करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च से लॉकडाउन की घोषणा की थी, तबसे पूरे देश में इस हेल्पलाइन पर कॉल 50 फीसदी बढ़ गईं। ज्यादा परेशानी वाली बात यह है कि उत्पीड़न और हिंसा से बचाने की गुहार लगाने वाले 92,000 से ज्यादा बच्चों की कॉल शुरुआती 11 दिनों में ही आई। चाइल्डलाइन इंडिया की डिप्टी डायरेक्टर हरलीन वालिया कहती हैं, “3.07 लाख कॉल में से करीब 30 फीसदी कॉल 20-31 मार्च के बीच प्राप्त हुईं। लॉकडाउन का पहला सप्ताह इसी बीच पड़ा था।”

शराब से संबंधित मामले तुलनात्मक रूप से कम गंभीर दिखाई देते हैं। फिर भी लॉकडाउन के दौर में शराब न पीने से बेचैनी के लक्षण उभर सकते हैं, यह मृत्यु का कारण भी बन सकता है...

पिछले महीने ही नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर ने पूरे देश में स्वास्थ्य सेवाओं को इसके लिए तैयार रहने का सुझाव भेजा था। इसके बाद केरल ने तो उन लोगों को डॉक्टर की सलाह पर शराब मुहैया कराने की अनुमति दे दी जिनमें शराब न पीने से समस्‍याएं उभरने लगी हैं। हालांकि पिछले सप्ताह हाइकोर्ट ने सरकार के इस कदम को स्टे कर दिया। राज्य सरकार ने आत्महत्याओं (पहले सप्ताह में छह मामले) का हवाला दिया। हालांकि कई विशेषज्ञों का तर्क है कि डॉक्टर की सलाह पर भी शराब की अनुमति देना कोई हल नहीं है। मेघालय ने भी स्वास्थ्य आवश्यकता के आधार पर शराब की होम डिलीवरी की अनुमति दी है। उसने भी डॉक्टर की सलाह पर इसकी अनुमति देने का फैसला किया है।

केरल के शराब संबंधी आदेश का विरोध करने वाले एनजीओ अल्कोहल ऐंड ड्रग इन्फॉर्मेशन सेंटर-इंडिया के जॉनसन जे. इडयारनमूला मानते हैं कि 1967 के बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब राज्य में पूरी तरह शराबबंदी-सी हो गई है, अलबत्ता परोक्ष तरीके से। उन्होंने कहा, “2014 की शराब नीति आने के बाद खपत के लिहाज से कमी (राजस्व के लिहाज से वृद्धि) आई है। इससे मुझमें विश्वास पैदा हुआ। ट्रेनिंग के जरिए स्वास्थ्य मशीनरी भी इसके लिए तैयार हो गई।” पिछले दो सप्ताह के दौरान अत्यधिक लत वाले 400 से ज्यादा लोगों को केरल के तमाम अस्पतालों में भर्ती कराया गया है।

केरल के जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम में पिछले एक महीने के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को काउंसिलिंग दी गई। इनमें वे मरीज भी शामिल हैं जो क्वारंटाइन किए गए हैं। तिरुअनंतपुरम के मानसिक चिकित्सक अरुण बी. नायर कहते हैं कि केरल की शराब दुकानें बंद होने के बाद पहले तीन-चार दिनों में प्राप्त हुई अधिकांश कॉल शराब की लत के लक्षणों को लेकर थीं। सामान्य मामले निकटवर्ती प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में रेफर कर दिए गए या फिर जरूरत होने पर हर जिले में चलने वाले आबकारी विभाग के नशा छुड़ाने वाले केंद्र विमुक्ति में भेज दिए गए। अगर मरीज शराब के नशे में बहुत ज्यादा फंसा है तो उन्हें मेडिकल कॉलेज में विशेषज्ञ की देखरेख में भेजा गया है। रोजाना व्हाट्सएप पर कम से कम 30 मैसेज का जवाब देने वाले नायर कहते हैं, शराब न पीने की बेचैनी आमतौर पर तीन से पांच दिनों तक रहती है। अब यह अवधि निकल चुकी है। इसलिए शराब संबंधी कॉल आनी कम हो गई हैं।

कुछ संक्रमित लोग दूसरों में बीमारी फैलाने के अपराधबोध से भी परेशान हैं। घरेलू तनाव और नींद न आने से भी लोग परेशान हैं। नींद न आने की समस्या मोबाइल फोन की लत से भी जुड़ी है जो एक अन्य बीमारी का लक्षण है और इसका भी इलाज जरूरी है।

बेंगलूरू के एक मनोचिकित्सक बताते हैं कि भय किस कदर पैठ बना चुका है। वे एक ठीक-ठाक परिवार की एक मरीज का हवाला देते हैं, जो उनके पास पहुंची। उसमें पहले से चिंता और अवसाद के कोई लक्षण नहीं थे, लेकिन उसमें हाथ धोने की जैसे सनक सवार थी। गले में खराश होने के कारण वह अस्पताल पहुंची थी। उसे चिंता थी कि कहीं उसे कोविड-19 तो नहीं है। काउंसिलिंग के बाद वह बेहतर महसूस कर रही थी। चिकित्सक का कहना है कि लोगों को बताओ कि चिंता करना ठीक है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप मानसिक रूप से बीमार हैं। कभी-कभी नींद न आना भी सामान्य है। इसका प्रभाव आप पर हावी नहीं होना चाहिए।

पहले से ही मानसिक विकार झेल रहे लोग बड़ी चिंता में हैं क्योंकि उनका नियमित इलाज और परामर्श प्रभावित हो रहा है। एम्स दिल्ली के मानसिक चिकित्सा विभाग के प्रोफेसर डॉ. नंद कुमार कहते हैं, मौजूदा मरीजों के लिए दवाइयां उपलब्ध कराना हमारे सामने बड़ी समस्या है। कुछ दवाइयां शिड्यूल एक्ट के तहत आती हैं जिनके लिए डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन जरूरी है। वे कहते हैं कि हमारी ओपीडी बंद हैं और मरीज डॉक्टरों से परामर्श नहीं कर पा रहे हैं। इस वजह से उन्हें प्रिस्क्रिप्शन नहीं मिल पा रहा है। बीमारी दोबारा उभरने के केस सुनने में आ रहे हैं। यह स्थिति मरीजों और उनकी देखभाल करने वाले लोगों के लिए खतरनाक है। डॉ. कुमार के अनुसार अगर सरकार लॉकडाउन बढ़ाती है तो उसे अपनी नीतियों में मानसिक स्वास्थ्य को आगे रखना होगा और प्राथमिकता देनी होगी। यह किसी भी महामारी का बड़ा प्रभाव होता है।

प्रख्यात लेखक विवेक शानबाग के अनुसार, लोगों का विश्वास और भरोसा भी डगमगा सकता है। इसका असर लिखने-पढ़ने में भी दिख सकता है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “इसका असर साहित्य लेखन में भी दिख सकता है। इसके असर से जीवन का हर पहलू, फिर चाहे ट्रैवल हो या फिर काम करना, सबकुछ बदलने जा रहा है।”

यकीनन, यह लगने लगा है कि मौजूदा दौर की स्थितियों से आए बदलाव जिंदगी हमेशा के लिए बदल देंगे। शानबाग कहते हैं, “कोरोना बीमारी के पहले के सामान्य दिन लौटने में लंबा समय लगने वाला है।” अभी तक जो चीजें महत्वपूर्ण नहीं होती थीं, वे अब अहम हो सकती हैं। हम जिस तरह से कला और पुस्तकों की सराहना करते हैं, वह भी बदलने वाला है। अनिवार्य रूप से हमें एक बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि संभावित बदलाव आगे भी बना रहेगा। कोरोना से पहले की तरह हालात सामान्य होने पर भी ये चीजें लंबे समय तक पहले जैसी नहीं होंगी।

1918 के स्पैनिश फ्लू का बदलाव विचारों में भी दिखाई दिया। देखिए, फ्लू से लाखों लोगों की जिंदगी जाने पर व्यथित महात्मा गांधी ने क्या कहा था। पेल राइडरः स्पैनिश फ्लू ऑफ 1918 ऐंड हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड में लेखिका लौरा स्पिनी ने गांधी के बारे में लिखा, डॉक्टरों की सलाह गांधी जी को माननी पड़ी और उन्हें दूध पीना शुरू करना पड़ा। उससे पहले तक वे दूध लेने से बचते थे।  गांधी जी ने लिखा, “इस लंबी बीमारी ने मुझे अपने सिद्धांतों का परीक्षण करने का अनूठा अवसर दिया।” अब शायद लाखों लाख लोगों के लिए नई चीजें अपनाने का वैसा ही मौका आन पड़ा है।

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लॉकडाउन के पहले दस दिनों में ही बाल उत्पीड़न के एक लाख से अधिक कॉल दर्ज किए गए हैं

बकौल एक मनोचिकित्सक, लॉकडाउन जारी रहा तो लोगों की मानसिक सेहत से जूझने की चुनौती बड़ी हो सकती है 

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