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आयुर्वेद: कोरोना काल में 200 क्लीनिकल ट्रॉयल, कितना कारगर है ईलाज? और क्यों उठे सवाल

“महामारी ने देश की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नए सिरे से दिलचस्पी जगाई मगर बेतुके दावों से...
आयुर्वेद: कोरोना काल में 200 क्लीनिकल ट्रॉयल, कितना कारगर है ईलाज? और क्यों उठे सवाल

“महामारी ने देश की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नए सिरे से दिलचस्पी जगाई मगर बेतुके दावों से भरोसे की कमी राह में रोड़ा”

पड़ोस की दवा दुकान से चलते-चलते खरीदी गई अश्‍वगंधा की गोलियों को अपने जिंक मिश्रित बी-कॉम्पलेक्स के साथ निगलने के पहले जरा सोचिए। बीते कुछ समय में मेडिकल साइंस को जीवन-मरण की जिस परिस्थिति का सामना करना पड़ा है, वैसा लंबे अरसे तक देखने को नहीं मिला। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ जब किसी बीमारी ने पूरी धरती को अपनी चपेट में ले लिया हो। हमें बताया गया है कि प्रशांत-द्वीप क्षेत्र का कुछ इलाका ही अभी तक कोविड-19 से बच पाया है। शेष विश्व कोविड की लहरों में डूबता-उतराता खड़े होने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अब हालात कुछ बदले हैं। एक साल पहले हम जिस निराशाजनक स्थिति में थे, उसकी तुलना में देखें तो कोविड-19 से लड़ने की प्रतिरोधी क्षमता (इम्युनिटी) अब सिर्फ दो वैक्सीन की दूरी पर है। सवाल है कि क्या इससे वायरस का फैलना सचमुच रुक जाएगा? महत्वपूर्ण होने के बावजूद अभी तक इसका जवाब मिलना बाकी है। इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि क्या इम्युनिटी पासपोर्ट अब अगले गेट पास बन जाएंगे? कोविड-19 के चलते साल भर से जो उलझन की स्थिति बनी है, उसमें इम्युनिटी की चर्चा हर जगह होने लगी है और उसकी जरूरत बताई जाने लगी है। कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में इम्युनिटी बढ़ाने के लिए सबकी निगाहें वैक्सीन पर टिकी हैं। अभी करीब दस वैक्सीन या तो बाजार में उपलब्ध हैं, या बस आने ही वाली हैं। इनके अलावा कई वैक्सीन जांच-परीक्षण की अवस्था में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने हाल ही कहा कि कुछ उन्नत वैक्सीन भी आने वाली हैं। ये सिंगल डोज इंजेक्शन वाली और ओरल ड्रॉप दोनों हो सकती हैं। इन सबमें भारत के दवा उद्योग का बड़ा हाथ है।

कोविड-19 के चलते भारत का पारंपरिक औषधि क्षेत्र भी काफी चर्चा में आया है। पिछले साल अप्रैल में आयुष (आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्धा और होम्योपैथी) मंत्रालय ने वैकल्पिक दवा के डॉक्टरों को कोविड-19 के लिए क्लीनिकल ट्रायल करने की अनुमति दी। उसके बाद देश के विभिन्न अस्पतालों और अनुसंधान केंद्रों में 200 से अधिक क्लीनिकल ट्रायल शुरू हुए। इनमें अश्वगंधा और दूसरी आयुर्वेदिक दवाओं का इस्तेमाल हुआ। जुलाई 2020 में एक समीक्षा में यह बात सामने आई कि शुरुआती दिनों में कोविड-19 से जुड़े 60 फीसदी क्लीनिकल ट्रायल आयुर्वेद से जुड़े थे। इनमें ज्यादातर ट्रायल आयुष मंत्रालय के तहत काम करने वाली अनुसंधान परिषदों की तरफ से किए गए थे।

योग गुरु बाबा रामदेव पिछले महीने तब एक बार फिर चर्चा में आए जब उन्होंने पतंजलि आयुर्वेद की बनाई दवा ‘कोरोनिल’ को लेकर विवादास्पद दावे कर डाले। उन्होंने इसे कोविड-19 की दवा के रूप में पेश किया। जिस कार्यक्रम में यह दवा लांच की गई, उसमें रामदेव के साथ केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी भी मौजूद थे। इसे कोविड-19 की पहली तथ्य-आधारित दवा बताया गया। लांचिंग के साथ ही अनेक सवाल भी उठने लगे। सबसे बड़ा सवाल तो यही कि क्लीनिकल ट्रायल को कितना पुष्ट माना जाए। लांचिंग के समय डब्लूएचओ के क्वालिटी कंट्रोल सर्टिफिकेशन प्रोटोकॉल के पालन का हवाला दिया गया। डब्लूएचओ ने फौरन स्पष्टीकरण जारी किया कि उसने कोविड-19 की किसी पारंपरिक दवा की न तो समीक्षा की है न उसे प्रमाणित किया है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) ने भी सवाल उठाए। पतंजलि आयुर्वेद ने बताया कि उसकी रिसर्च के नतीजे मुख्य रूप से फाइटोमेडिसिन नाम की विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। यहां तक कि पतंजलि आयुर्वेद ने कोरोनिल के पीछे विज्ञान पर बहस के लिए आइएमए को खुली चुनौती दे डाली। आइएमए ने पतंजलि की उस चुनौती को स्वीकार भी कर लिया। आउटलुक ने ट्रायल से जुड़ी जानकारियों के लिए पतंजलि आयुर्वेद को ईमेल पर कुछ सवाल भेजे, जिनका कोई जवाब नहीं आया।

आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच बुनियादी विवाद नई बात नहीं। आयुर्वेद के वात, पित्त और कफ तथा एलोपैथी की ‘जर्म थ्योरी’ की अवधारणा के बीच यदा-कदा टकराहट होती रहती है। इस दूरी को पाटने की कोशिशें भी होती रही हैं। इसी के तहत स्वर्णिम त्रिकोण परियोजना शुरू की गई, जिसमें वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) और आयुष विभाग पारंपरिक आयुर्वेदिक उत्पादों को वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित करते हैं। उन्हें मिलकर अनुसंधान को बढ़ावा देने की भी जिम्मेदारी दी गई। इसके अलावा, भारत के पारंपरिक औषधि ज्ञान को पाइरेसी से बचाने के लिए ट्रेडिशनल नॉलेज डिजिटल लाइब्रेरी (टीकेडीएल) का गठन किया गया। उसके बाद हल्दी को लेकर लड़ी गई लड़ाई जगजाहिर है। अमेरिका के पेटेंट कार्यालय ने हल्दी के घाव भरने के गुणों का पेटेंट दे दिया था। भारत ने लड़कर उस पेटेंट को खारिज कराया। टीकेडीएल अभी तक पांच अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में 2.9 लाख औषधीय सूत्रों के दस्तावेज तैयार कर चुका है।

पारंपरिक और आधुनिक, दोनों चिकित्सा पद्धतियों में काम करने वाले डॉ. एम.एस. वलियाथन, डॉ. सुभाष चंद्र लखोटिया और प्रो. टी.आर. राजू जैसे जाने-माने अनुसंधानकर्ताओं को डर है कि हालिया विवाद भारतीय चिकित्सा पद्धति को नुकसान पहुंचाएगा। आयुर्वेद के जाने-माने चिकित्सकों के अनुसार बीते दो दशकों के प्रयासों से इसका चलन बढ़ा है। कुछ प्रयास उन आरोपों को खारिज करने के लिए भी हुए कि इसके तौर-तरीके प्राचीन पुस्तकों से लिए गए हैं और उनमें वैज्ञानिकता का अभाव है। एक दशक पहले कोयंबतूर की आर्य वैद्य फार्मेसी ने रुमेटॉयड आर्थराइटिस पर आयुर्वेद के इलाज के प्रभाव पर शोध किया। इसके लिए अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने आर्थिक मदद की थी। यह पहला डबल ब्लाइंड (जिसमें न तो चिकित्सक को, न दवा लेने वाले को पता होता है कि कोई खास तरीका किस पर आजमाया जा रहा है) अध्ययन था जिसमें आयुर्वेदिक दवा और एंटी-रुमेटिक दवा मेथॉट्रेक्सेट की तुलना की गई थी। इस पुरस्कार प्राप्त शोध पत्र के अनुसार आयुर्वेदिक और एलोपैथिक दोनों उपचार इस तरह किए जा सकते हैं, जो दोनों को स्वीकार्य हों।

पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के रहस्यों से परदा उठाने का एक तरीका रिवर्स फार्मेकोलॉजी (लक्ष्य आधारित दवा अनुसंधान) भी है। कई महीने पहले बाॅयोटेक्नोलॉजी विभाग ने बताया कि पशुओं पर कोविड-19 की आयुर्वेद की ओरल दवा का अध्ययन अंतिम चरण में है। इन दवाओं में अश्वगंधा, गुडूची और पिप्पली का मिश्रण, मुलेठी और कई जड़ी-बूटियों से बना आयुष-64 शामिल हैं।

न्यूरोफिजिसिस्ट और बेंगलूरू स्थित एसवीवायएएसए योग यूनिवर्सिटी के विजिटिंग प्रोफेसर टी.आर. राजू कहते हैं कि आयुर्वेद और योग, दोनों में अनेक अच्छे कार्य हो रहे हैं। लेकिन इन कार्यों पर गलतफहमी पैदा करने वाली वे बेतुकी बातें भारी पड़ जाती हैं जो लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित करती हैं। अमृता एडवांस्ड आयुर्वेद रिसर्च सेंटर के डायरेक्टर डॉ.पी. राम मनोहर कहते हैं, “सिस्टम ने कभी कोविड-19 के इलाज का दावा नहीं किया।”

अभी जो अध्ययन चल रहे हैं, उनकी एक बानगी देखिए। दिल्ली एम्स में 452 स्वास्थ्यकर्मियों पर आयुर्वेद और योग के रोगनिरोधी प्रभाव का एक साल से चल रहा अध्ययन पूरा होने ही वाला है। आयुष मंत्रालय के अधीन काम करने वाले अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान ने दिल्ली पुलिस के 80 हजार कर्मचारियों पर आयुर्वेदिक दवा का परीक्षण किया है। इन सभी वॉलंटियर ने संशमनी वटी की 250 मिलीग्राम गोलियां लीं, रोजाना नाक में अनु तैल की बूंदें डालीं और गुनगुने पानी में सेंधा नमक और हल्दी डालकर गरारा किया। इसके अलावा आठ हफ्ते तक योग और प्राणायाम का अभ्यास किया। आयुष सचिव वैद्य राजेश कोटेचा कहते हैं, “इस अध्ययन के नतीजे उत्साह जगाने वाले हैं।”

मेदांता अस्पताल ने पिछले साल अप्रैल में कोविड-पॉजिटिव मरीजों पर हर्बल दवा टाइनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया और पाइपर लोंगम के असर का अध्ययन शुरू किया, जो साल भर चलेगा। जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, पांडिचेरी 200 स्वास्थ्यकर्मियों पर योग और नेचुरोपैथी का असर जानने के लिए क्लिनिकल ट्रायल कर रहा है। इसका मकसद यह पता लगाना है कि क्या नाड़ी शोधन प्राणायाम और पंचकोश ध्यान (मेडिटेशन) से मनोवैज्ञानिक विकार और नींद में गड़बड़ी की शिकायतें दूर की जा सकती हैं। आयुर्वेद के अलावा अन्य भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में भी क्लिनिकल ट्रायल किया जा रहा है। जैसे, कबसुरा कुदिनेर और ब्रह्मानंद भैरवम जैसी सिद्धा दवाओं का शहद या अदरख के रस के साथ असर का अध्ययन किया जा रहा है। इनके अलावा होम्योपैथिक दवाओं के भी करीब 50 क्लिनिकल ट्रायल चल रहे हैं।

क्या ये सब ट्रायल इस बात का संकेत हैं कि पारंपरिक चिकित्सा पद्धति इसकी वैज्ञानिकता को लेकर उठाए जाने वाले सवालों से आगे निकल चुकी है? जब तक नतीजे नहीं आते, तब तक इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। मार्च से जून 2020 के बीच पंजीकृत 58 शुरुआती ट्रायल के बारे में जर्नल ऑफ रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंसेज में प्रकाशित किया गया है। इससे पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर ट्रायल कोविड-19 के बिना लक्षण वाले या हल्के मामलों के थे। सिर्फ दो ट्रायल गंभीर मामलों के थे। समीक्षकों ने पाया कि सिर्फ तीन ट्रायल डबल ब्लाइंड और प्लेसिबो-कंट्रोल्ड थे।

पशुओं में पॉलीग्लूटामाइन से संबंधित जेनेटिक रोगों और अल्जाइमर के मामलों में आयुर्वेदिक रसायनों के असर का परीक्षण करने वाले प्रो. लखोटिया कहते हैं कि किसी भी चिकित्सा पद्धति में प्रयोगशाला में अच्छे नतीजों के बिना कोई भी दावा करना नुकसानदायक है। कोविड-19 महामारी के दौरान ऐसे दावे सिर्फ आयुर्वेद में नहीं बल्कि दूसरी चिकित्सा पद्धतियों में भी बढ़े हैं। लखोटिया कहते हैं, “वायरस को खत्म करने या कोविड-19 से सुरक्षा के लिए अविश्वसनीय रूप से अनेक उत्पादों का प्रचार किया जा रहा है।”

एलोपैथिक जगत में भी ऐसे अनेक अनुभव हुए हैं। पिछले साल जब महामारी सामने आई तब कई पुरानी दवाओं का प्रचार कोविड-19 के इलाज के लिए किया गया। कुछ दवाओं के मामले में तो लगा कि इनसे इस बीमारी का इलाज किया जा सकता है या प्रतिरोधक क्षमता विकसित की जा सकती है। उदाहरण के लिए, मलेरिया की दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को लीजिए। लेकिन अंत में यही पता चला कि इन दवाओं से कोविड-19 का इलाज नहीं किया जा सकता है।

पिछले साल जुलाई में जब महामारी तेजी से फैल रही थी और इसे रोकने के लिए किसी दवा की शिद्दत से जरूरत महसूस की जा रही थी, तब आउटलुक से बातचीत में महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंसेज, सेवाग्राम के डायरेक्टर डॉ एस.पी. कालांत्री ने कहा था कि करीब 550 मेडिकल स्कूल और अस्पतालों के बावजूद भारत ने एक बड़ा अवसर खो दिया है। इंग्लैंड के ‘रिकवरी ट्रायल’ की तरह भारत भी अपने तरीके से डिजाइन किया हुआ ट्रायल कर सकता था। दूसरे रोगों की दवाएं कोविड-19 के मरीजों को दी जा रही थीं, जबकि उनके असर के बारे में पर्याप्त साक्ष्य भी नहीं था। कालांत्री कहते हैं, “लोगों को कहानियां पसंद हैं, उन्हें आंकड़े अच्छे नहीं लगते।”

कालांत्री का कहना है कि आज एक साल बाद कोई भी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की बात नहीं करता है। इसकी वजह यही है कि एक के बाद एक कई ट्रायल में यह बात साबित हुई कि कोविड-19 महामारी पर यह दवा काम नहीं करती है। वे कहते हैं, "भारत में अभी समस्या यह है कि यहां सैकड़ों क्लिनिकल ट्रायल किए गए, लेकिन इन सबमें सैंपल का आकार बहुत छोटा था। ट्रायल का तरीका भी ठीक नहीं था। इसलिए अंत में आपको कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिल पाता है।" एकमात्र अपवाद आइसीएमआर का कॉन्वैलेसेंट प्लाज्मा पर किया गया क्लिनिकल ट्रायल है। कालांत्री कहते हैं, "कोविड-19 मरीजों पर कॉन्वैलेसेंट प्लाज्मा काम नहीं करता है। ट्रायल की यह निगेटिव रिपोर्ट प्रकाशित करने का साहस दिखाने के लिए मैं आइसीएमआर को पूरे अंक दूंगा।" उनका मानना है कि किसी भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति के पीछे ठोस विज्ञान होना चाहिए। वे कहते हैं, "आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने दिखाया है कि सबसे अच्छे नतीजे, बेहतर तरीके से डिजाइन किए गए और बड़े पैमाने पर रैंडम ट्रायल से ही आ सकते हैं।"

इस बात में कोई संशय नहीं कि कोविड के दौर में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति के महत्व को लेकर लोगों की काफी रुचि है। आयुर्वेद 30 हजार करोड़ रुपये की इंडस्ट्री है। पिछले एक साल के दौरान लोग इस अनजानी आफत का इलाज जड़ी-बूटियों में तलाश रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत में इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन गठित करने की घोषणा की है। इसके अलावा जबसे महामारी फैली है, आयुष मंत्रालय एडवाइजरी के जरिए इम्यूनिटी बढ़ाने वाले उत्पादों को प्रमोट कर रहा है।

डॉ. वलियाथन के अनुसार किसी व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली पर आयुर्वेदिक दवा के असर का अभी तक किसी ने अध्ययन नहीं किया है। आयुर्वेद पर डॉ. वलियाथन का अनुवाद पुरानी और नई चिकित्सा पद्धति के बीच सेतु है। वे कहते हैं, “मुझे ऐसे किसी परीक्षण की जानकारी नहीं है जिसमें किसी व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली को समझने के लिए आयुर्वेदिक दवा दी गई हो।” शरीर की प्रतिरोधक क्षमता के आकलन के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सकों का अपना तरीका होता है। वे कहते हैं, “जरूरी नहीं कि यह वही हो जिसे आधुनिक चिकित्सा पद्धति में इम्यून फंक्शन कहा जाता है। इम्यून सिस्टम पर आयुर्वेदिक दवा का असर समझने के लिए साझा रिसर्च करने की जरूरत है।”

पोलियो और एचआइवी उन्मूलन में लंबा अनुभव रखने वाले वायरोलॉजिस्ट टी. जैकब जॉन के अनुसार ज्यादातर लोग इम्युनिटी जैसे शब्दों का सही मतलब नहीं समझते हैं। वे कहते हैं, “आप किसी संक्रमित व्यक्ति में दवा या किसी अन्य चीज से इम्युनिटी नहीं पैदा कर सकते। यह उस संक्रमण या उसकी वैक्सीन के जरिए ही संभव है, जो उस जीवाणु से ही तैयार किया जाता है। इम्युनिटी बढ़ाने की बात करना मनगढ़ंत कल्पना के सिवाय और कुछ नहीं।” इसके बजाय वे आयुर्वेदिक पद्धति नस्यम की बात करते हैं। उन्होंने बचपन में इसके बारे में जाना था। नस्यम में गुनगुने पानी में नमक डालकर नासिका को साफ किया जाता है। क्लोराइड के आयन होने के कारण यह तरीका श्वसन प्रणाली का संक्रमण दूर करने में सहायक है। जॉन बताते हैं, “बचपन में मैंने नस्यम सीखा था। मैंने इसे अपने बच्चों और नाती-पोतों को भी सिखाया, खास तौर से साइनसाइटिस के इलाज के लिए।” नस्यम अपनाने के कारण उन्हें साइनसाइटिस के लिए एंटीबाॅयोटिक दवा का इस्तेमाल नहीं करना पड़ा। अनेक आयुर्वेदिक इलाज को वैज्ञानिक मान्यता भी मिली है। जैसे क्षारसूत्र। गुदा फिस्टुला के इलाज के तौर पर प्राचीन पुस्तकों में भी इसका जिक्र है। 1990 के दशक में कई शहरों में किए गए ट्रायल में आइसीएमआर ने पाया कि क्षारसूत्र से सर्जरी की जरूरत नहीं रह जाती है और यह सुरक्षित वैकल्पिक इलाज है।

बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि बाजार का ढांचा क्या है। आयुर्वेद के अर्थशास्त्र पर किताब लिखने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की मधुलिका बनर्जी कहती हैं कि इसका ज्यादातर बाजार एफएमसीजी प्रोडक्ट के रूप में होता है। इससे कॉस्मेटिक्स और दूसरे उत्पादों तक लोगों की पहुंच बढ़ी है। यहां तक तो बात ठीक है। लेकिन बनर्जी के अनुसार अश्वगंधा, नीम और तुलसी जैसी चीजों को एक दवा के रूप में बेचना उचित नहीं। वे कहती हैं, “हम यह भूल जाते हैं कि वैद्य प्रणाली काफी जटिल होती है। इसमें मरीज के शरीर के साथ यह भी देखा जाता है कि रोग के लिए जड़ी-बूटियों की कितनी मात्रा जरूरी है और उसके साथ खानपान कैसा होना चाहिए।” किसी एक प्रोडक्ट को अलग बेचने से लोग खुद अपना इलाज करने लगते हैं, जो जोखिम भरा हो सकता है।

बनर्जी के अनुसार, एक और समस्या यह है कि पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा पद्धति में समन्वय के लिए कई गुणवत्तापूर्ण प्रयास लंबे समय से होते रहे हैं, लेकिन यह कभी मुख्यधारा में नहीं आ सका। कोविड-19 के दौर के पहले पारंपरिक चिकित्सा पद्धति, खासकर आयुर्वेद में एक तरह से बदलाव का आंदोलन चल रहा था। देश में आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथी के 7.88 लाख डॉक्टर हैं, जबकि एलोपैथिक डॉक्टरों की संख्या 12 लाख के आसपास है। बनर्जी कहती हैं, “पारंपरिक चिकित्सा पद्धति की सांकेतिक तस्वीर - एक ऋषि, ओखल और मूसल- से आधुनिक चिकित्सक बाहर निकलना चाहते हैं। लेकिन यह छवि अभी तक बरकरार है, कुछ भी बदला नहीं है।"

बहरहाल, किसी तरह के घालमेल या रहस्यमय दावों से न आयुर्वेद का भला होने वाला है, न किसी पारंपरिक चिकित्सा पद्घति का। भले कुछ लोगों या कंपनियों के लिए यह कमाई का साधन बने, मगर सरकार की कोशिश तो यही होनी चाहिए कि आयुर्वेद में गंभीर अध्ययन हों।

मुकेश कुमार पंड्या, 65 वर्ष

वडोदरा के बीमा एडवाइजर कोविड संक्रमण के बाद शहर के बड़े अस्पताल गए, जहां का खर्च 25,000 रुपये प्रतिदिन था। वे बताते हैं, “मैं पहले ही घर के अन्य चार सदस्यों के संक्रमण के कारण सात दिन में 1.75 लाख रुपये खर्च कर चुका था।” उनके दिमाग में हर रोज 1.25 लाख यानी हफ्ते में लगभग 10 लाख रुपये के खर्च की आशंका घूम रही थी! उस दौर में अस्पताल केंद्र और राज्य की निर्धारित कीमतों का खुले आम उल्लंघन कर रहे थे। वे कहते हैं, “तब मैंने तय किया कि मुझे दूसरा विकल्प तलाशना चाहिए।” पंड्या ने शहर में ही पारूल इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद के बारे में सुना था, जहां इलाज पूरी तरह निःशुल्क होता है। इसके बाद परिवार के पांच सदस्य वहां 12 दिन भर्ती रहे। वहां उन्हें बुखार उतारने के लिए संशमनी वटी, रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए आयुष क्वाथ, गले के संक्रमण के लिए दशमूलकटु त्रय के साथ नाक में डालने के लिए प्रतिमर्ष नस्य के साथ अनु तैल दिया गया। धीरे-धीरे वे सभी संक्रमण से उबरने लगे। सिर्फ एक हफ्ते बाद ही उन्हें घर में ही आइसोलेशन में रहने की हिदायत के साथ अस्पताल से छुट्टी मिल गई और कुछ दिनों बाद उनकी रिपोर्ट निगेटिव आई। पंड्या के अनुसार, इन दवाओं की सबसे अच्छी बात “इनसे मिलने वाला आराम” रहा। वे कहते हैं, “मुझे सांस लेने में भी दिक्कत थी, जबकि दूसरे सदस्यों को सिर्फ कफ और बुखार था। मैं गंभीर मामले की बात नहीं कर रहा लेकिन किसी को हल्का संक्रमण है, तो मेरी तो सलाह है कि उसे आयुर्वेद से इलाज कराना चाहिए।”

मीरा, 48 वर्ष

यकीनन वे कोविड संक्रमण की शिकार तो नहीं हैं लेकिन पुदुच्चेरी की इस गृहिणी की जीवन शैली में आयुर्वेद अहम है। उनकी बेटी एमबीबीएस की छात्रा है मगर उनका भरोसा तो आयुर्वेद में ही है। उनके ससुर 90 साल के बुजुर्ग हैं,    इसलिए परिवार न के बराबर बाहर निकलता है। लेकिन उनका मानना है कि आयुर्वेदिक दवाओं के प्रतिरोधी गुणों के कारण ही वे सभी संक्रमण से सुरक्षित रहे। मीरा कहती हैं, “मेरी बेटी मॉडर्न मेडिसिन पढ़ रही है लेकिन यह सब हम उसके बचपन के दिनों से इस्तेमाल कर रहे हैं।” उनका आयुर्वेद प्रेम अद्भुत है। वे बताती हैं, “अपराजिता धूप चूर्ण में निंबा, गुग्गुल, वच्छ जैसी बूटियां हैं। हम रोज सुबह-शाम दो बार इसे जलाते हैं। इसके धुएं में सांस लेना नाक के छिद्रों के लिए अच्छा रहता है।” उनके पास दक्षिण की विशेष बूटियां भी हैं जैसे दाहमुक्ति (उच्च किस्म का रक्त शुद्धि कारक और शरीर को शीतलता देता है), पतिमुघम (एक चुटकी पाउडर डालकर उबालने से पानी गुणकारी हो जाता है)। इसके अलावा वे काली मिर्च, धनिया, हल्दी और सूखे अदरक जैसे मसालों पर भी बहुत भरोसा करती हैं।

सुभाष बरोलिया, 48 वर्ष

दिल्ली में रहने वाले स्वतंत्र फोटो पत्रकार के पेशे की दरकार थी कि महामारी के दौर में भी बाहर निकल कर काम करें। इस दौरान पूरे वक्त बाहर रहने पर अप्रैल 2020 में वे किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए और संक्रमण लग गया। भाग्यशाली थे कि उनमें कफ और स्वाद-गंध जाने के हल्के लक्षण ही दिखे। बरोलिया बताते हैं, “लोगों ने सलाह दी कि मुझे एलएनजेपी अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए लेकिन दूसरे पत्रकार दोस्तों ने कहा कि अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं।” इसके बाद उन्होंने विकल्प के रूप में आयुर्वेद की ओर रुख किया। उन्हें उत्तर दिल्ली के चौधरी ब्रह्मप्रकाश आयुर्वेद चरक संस्थान के बारे में पता चला, जो दिल्ली सरकार चलाती है। वहां बहुत से कोविड संक्रमण के मरीज भर्ती थे। बरोलिया वहां की सुविधाओं से बहुत प्रभावित हुए, क्योंकि वहां इलाज बहुत सादे तरीके से किया गया। वे बताते हैं, “गुनगुने नमक के पानी के गरारे, रात को हल्दी वाला दूध, काढ़ा, अश्वगंधा और गिलोय। बस एक बार ही बुखार आने पर डॉक्टर ने पैरासिटिमॉल दिया था।” उनके लिए भी आयुर्वेद इलाज, “राहत देने वाला” था। वे बताते हैं, “मैं 26 अप्रैल को भर्ती हुआ था और 9 मई को सारे लक्षण खत्म हो गए। नियम के अनुसार मुझे 16 दिन घर में अलग रहना था और उसके बाद 27 मई को मैं पूरी तरह ठीक हो गया।” वे कहते हैं, “मुझे लगता है, मैंने बिलकुल सही निर्णय लिया। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा इलाज अस्पताल में नहीं बल्कि घर में ही चल रहा है।”

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