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शहरनामा : गया नहीं, गयाजी कहिए!

“इकलौता शहर, जिसके नाम के साथ आदर से ‘जी’ लगाने का चलन है। गयासुर के नाम पर बसा यह नगर कभी बिहार हुआ...
शहरनामा : गया नहीं, गयाजी कहिए!

“इकलौता शहर, जिसके नाम के साथ आदर से ‘जी’ लगाने का चलन है। गयासुर के नाम पर बसा यह नगर कभी बिहार हुआ करता था।”

गया नहीं, गयाजी कहिए!

बनारस पहले काशी हुआ, फिर बनारस। प्रयागराज पहले इलाहाबाद हो गया, फिर प्रयागराज। लेकिन धार्मिक नगरों में गया, गया था, गया है, गया रहेगा। इकलौता शहर, जिसके नाम के साथ आदर से ‘जी’ लगाने का चलन है। गयासुर के नाम पर बसा यह नगर कभी बिहार हुआ करता था। यही बिहार जिला था, लेकिन शासकीय तौर पर जिले का नाम बिहार रहते हुए भी इसका नाम गया ही रहा। गयावाले यह कहानी भी जरूर बताएंगे कि यह विष्णु की नगरी है। यहां महारानी अहिल्याबाई द्वारा निर्मित प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर है। वायुपुराण के अनुसार इस नगरी में 62 देवी-देवताओं का जीवंत वास है। सभी तीर्थों का जमघट तो यहां है ही।

 

मोक्ष की विलक्षण नगरी

इस प्राचीन शहर की पहचान मोक्ष नगरी के रूप में है। पुराण कहते हैं कि गया तीर्थों का महाप्राण है। फल्गु गया को प्राणरस देनेवाली नदी। यहां के रहनिहार गर्व से बताते हैं कि भगवान राम, सीता, युद्धिष्ठिर, भीष्म पितामह सब अपने पित्तरों को पिंडदान देने आ चुके हैं। यह तो हर किसी ने सुन रखा है कि सीता के श्राप के कारण यह नदी अंतःसलीला बहती है लेकिन गया में यह स्वीकार करनेवाले कम ही मिलेंगे कि श्राप के बाद भी तमाम संभावनाओं से भरी नदी को खत्म करने का काम सब मिलकर सामूहिक रूप से कर रहे हैं। गयावाले जानते हैं कि फल्गु भले ही अंत:सलीला नदी हो, यानी पानी नीचे-नीचे ही बहती हो, बतौर नदी, उसके पानी का लाभ ज्यादा न मिलता हो, लेकिन फल्गु खत्म तो गया की एक बड़ी आबादी के सामने अलग संकट आएगा। पितृपक्ष के एक पखवाड़े में गया में उतने तीर्थयात्री आते हैं, जितने साल भर में भी बोधगया नहीं पहुंचते।

 

छप्पनछुरी का मायानगर

गया पितृपक्ष और पिंडदान, मोक्ष और मोक्षदायिनी से अलग भी पहचान रखता था। गया शहर की परिधि में ही एक और गया रहा है। चार दरवाजों में कैद गया, जहां कभी 14 महफिलें सजती थीं संगीत की। यह कभी छप्पनछुरी जैसी नायिकाओं के लिए मशहूर था। यहां जद्दनबाई रहा करती थीं। गुलाबबाई जैसी मशहूर ठुमरी गायिका अपनी गायकी से महफिलें गुलजार करती थीं। उनके पूरब अंग की ठुमरी की धमक-हनक देश भर में सुनाई पड़ती थी। देश भर के संगीतरसिया पहुंचते थे। यहां के पंडे उन गायिकाओं और तवायफों के साथ संगत करते थे। गया ठगों के लिए भी मशहूर रहा। ठगी के लिए यहां अलग भाषा भी बनायी पंडों और उनके मुलाजिमों ने। उस भाषा को वे ही आपस में समझ सकते थे। उसका इस्तेमाल बाहर से आनेवाले तीर्थयात्रियों को साधने के लिए होता था।

 

बर्बाद गुलिस्तां का अंजाम

यह शहर कभी हर गली में बने तालाबों के सौंदर्य के लिए भी जाना जाता था। खानपान की दुनिया में यह तिलकुट, अनरसा, लाई, रामदाना के लिए जाना जाता है। गया के पहलवानों के भी किस्से एक जमाने में खूब मशहूर थे। यह कभी व्यापार का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। यहां के मानपुर को भारत का मिनी मैनचेस्टर कहा जाता था। इसी गया में जगेश्वर प्रसाद खलिस रहते थे, जिन्होंने मशहूर शेर लिखा था- बर्बाद गुलिस्तां करने को, एक ही उल्लू काफी था/हर साख पर उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा...? इन तमाम आख्यानों-व्याख्यानों और संभावनाओं के बावजूद कई मायनों में गतिशील शहर जड़ बनता गया। बनारस की तरह अपनी परंपरा, अपनी रवायत उस तरह से बचा न सका। नतीजा, धीरे-धीरे अपनी पहचान के बोझ से झुककर चलता हुआ यह बूढ़ा शहर भी लगता है।

 

कलकत्ता वाली प्रेमिका

व्यापारिक नगरी होने के कारण यहां भोग और भक्ति के अहम स्थल विकसित हुए। एक है टावर चौक जहां से चार रास्ते निकलते हैं। दो रास्ते एक-दूसरे की विपरीत दिशा में जाते हुए दिखते हैं। एक सराय रोड ले जाता है, जिसे अब रेडलाइट का इलाका कहते हैं। इसके विपरीत दिशावाला रास्ता विष्णुपद मंदिर की ओर जाता है। भोग और भक्ति के ऐसे संधिस्थल गया के परिवेश में चप्पे-चप्पे पर मिलेंगे। अंग्रेज अधिकारी इस शहर में आकर बस गए थे तो एक प्रमुख चौक वाले इलाके का नाम ही साहेबगंज हो गया था। यहां के बगल में ही एक मशहूर रजवाड़ा भी हुआ करता था। वहां के टेकारी राजा के प्रेम के किस्से हवा में अब भी तैरते रहते हैं। उन्होंने गया में व्हाइट हाउस अपनी प्रेमिका के नाम कर दी थी, यह हर कोई जानता है। यह भी बतानेवाले कोई कम नहीं मिलते कि राजा सुबह-सुबह अपनी गाड़ी से कलकत्ते तक की यात्रा पर निकल जाते थे, अपनी प्रेमिका से मिलने।

 

पहचान बचाने की जद्दोजहद

गयावाले ऐसे अनेक किस्से बार-बार सुनाएंगे। वे ऐसे किस्से सुनाकर बताना चाहते हैं कि बोधगया तो नया-नया है, हम तो प्राचीन काल से मशहूर हैं। बोधगया की चमचमाती सड़कें, शाम ढलते ही छा जानेवाली दूधिया रौशनी, तमाम आधुनिक सुविधाएं, हवाई अड्डा, सालों भर देश-दुनिया से पहुंचनेवाले बौद्ध भिक्षुओं और सैलानियों का जमावड़ा... यह सब गयावाले फटी आंखों से रोज देखते हैं। अपने पुरखों से सुनी कहानियां याद करते हैं कि एक जमाने में गया कितना गुलजार रहा करता था। अब गया और बोधगया की दूरियां मिट गई हैं। दोनों जुड़वां शहर हो गए हैं। सरकार ने भी हाइवे पर गया में प्रवेश करते ही जो बड़े-बड़े बोर्ड लगाए हैं, उस पर यही लिखा हुआ मिलता है- मोक्ष और ज्ञान की नगरी में आपका स्वागत है। सरकार गया और बोधगया को मिलाकर पहचान बनाती है, लेकिन हकीकत ऐसा न था, न है।

(घुमक्कड़ लेखक। लोक संस्कृति, लोक संगीत, देसज स्वाद जैसे विषयों पर नियमित लेखन)

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