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शहरनामा/सागर: “विश्वविद्यालय और सेना की बड़ी छावनी वाला कस्बा”

जो एक शहर था... बाकी सब याने जनसंख्या, सुविधाओं, मानसिकता आदि के हिसाब से वह एक कस्बा था पर वहां एक...
शहरनामा/सागर: “विश्वविद्यालय और सेना की बड़ी छावनी वाला कस्बा”

जो एक शहर था...

बाकी सब याने जनसंख्या, सुविधाओं, मानसिकता आदि के हिसाब से वह एक कस्बा था पर वहां एक विश्वविद्यालय और सेना की बड़ी छावनी थी। सो, शहर कहलाता था। मध्य प्रदेश का सागर अपने ही जिले का सदर मुकाम। वहां मेरा जन्म, तो नहीं हुआ पर वहां मैंने आरंभिक जीवन के लगभग 20 वर्ष गुजारे। बीए करने के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए 1960 में दिल्ली चला आया और फिर सागर छूट ही गया। पिछले छह दशकों में सागर इतना बदल और जनाकीर्ण हो गया है कि अब मुझे पहचानने में दिक्कत होती है। हमारा अपना मुहल्ला, गोपालगंज, परकोटा, तीन बत्ती, कटरा बाजार, वृंदावन बाग, परेड के महावीर, मुख्य सड़क के बीचोबीच की बड़ी मस्जिद, बड़ा बाजार, चकराघाट आदि सब हैं पर वैसे नहीं हैं जैसे, पहले थे। गोपालगंज में उस समय गिनी-चुनी दुकाने थीं, अब हर मकान दुकान में बदल गया है, पता नहीं मुहल्ले के लोग कहां रहते हैं। मेरे लिए सागर एक बदला नहीं, बीता शहर हो गया है।

चिरौंजी बरफी

चिरौंजी जैसी छोटी-सी चीज को सागर में महत्व हासिल है। वहां तीन बत्ती स्थित एक मिठाई की दूकान में चिरौंजी बरफी बनती है। वहां के मुंगोड़ों और खोये की जलेबी का स्वाद भी भूल नहीं पाए। हमारे पड़ोसी गुजराती, बंगाली आदि थे। हरेक के घर की अपनी गंध थी। बख्शी जी के घर की गंध हमारे घर से और दवे जी के घर की गंध सबसे अलग थी।

अक्‍खड़ बुंदेलखंडी

उस समय गरीब, निम्न मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियां, अतिरिक्त आय के लिए, बीड़ियां बनाती थीं। गुजराती व्यापारी तंबाकू मंगाते और तेंदू पत्ता बुंदेलखंड से आता था। सागर की बुंदेलखंडी छतरपुर-पन्ना आदि की बुंदेलखंडी से अलग थी, कुछ शहराती और थोड़ी अक्खड़। हमारे पिता बैसवाड़े से आए थे, जो हमारा देस कहलाता था और हमारा पालन-पोषण खड़ी बोली में ही हुआ। मुझसे छोटे भाई-बहनों को तो अच्छी बुंदेलखंडी आ गई पर मैं उसके जमीनी स्पर्श से दूर ही रहा। यों बाद में अपनी कविता में कुछ बुंदेलखंडी शब्द लाने से मैं चूका नहीं।

अचूक हितचिंतक

जिस मुहल्ले में हम रहते थे उसमें ज्यादातर लोग अफसर, क्लर्क आदि थे और पढ़े-लिखे भी। मेरे गुस्सैल पिता किंवदंती पुरुष हो गए थे, दूसरों की सहायता करने के लिए वे किसी भी नियम या अड़चन का उल्लंघन धड़ल्ले से कर सकते थे। मुहल्ले में ऐसा कोई घर शायद ही रहा हो, जिसके किसी सदस्य को उन्होंने पढ़ाई जारी रखने के लिए फ्रीशिप या छोटी-मोटी नौकरी न दी हो। लोकप्रियता के कारण वे सागर नगरपालिका के अध्यक्ष भी हो गए, हालांकि विश्वविद्यालय में पूरे रजिस्ट्रार नहीं बन पाए। धन-दौलत, सत्ता के रोब में न आने की वृत्ति मैंने उनसे सीखी। वे शत्रुओं के भी अचूक हितचिंतक बने रहे।

विश्वविद्यालय में पहली कविता

सागर के साथ मेरा बहुत-सा पहला जुड़ा हुआ है, पहली कविता, पहला प्रेम, पहली पत्रिका, पहली आलोचना आदि सभी। मेरा पहला कविता संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ 1966 में भारतीय ज्ञानपीठ से निकला था जो अधिकांश उन कविताओं का है, जो मैंने सागर में रहते-पढ़ते लिखी थीं। सागर विश्वविद्यालय शहर से काफी दूर मकरानियां में दूसरे महायुद्ध के दौरान बनाई गई बैरकों में चलता था, वहां विज्ञान पढ़ा और फिर उसे छोड़कर इतिहास, संस्कृत और अंग्रेजी। सागर में वीर रस और गीतप्रधान कविता का वर्चस्व था। वहां कुछ लोगों रमेश दत्त दुबे, राजा दुबे, आग्नेय, जितेन्द्र कुमार और मैंने कविता लिखने की शुरुआत की और विश्वविद्यालय में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का कोपभाजन बनने का जोखिम उठाया। वहां बहुत अच्छा पुस्तकालय था। हमने रिल्के, पाब्लो नेरूदा, काफ्का, अल्बेयर कामू, ज्यां पाल सार्त्र, पास्तरनाक, मायकोवस्की और ‘पोएट्री’, ‘पार्टिजन रिव्यू’ जैसी पत्रिकाएं पढ़ीं। वहां ‘रचना’ नाम की संस्था बनाई, जिसमें अज्ञेय, मुक्तिबोध के व्याख्यान हुए। अज्ञेय विश्वविद्यालय छात्रसंघ का उद्घाटन करने जब आए, उनकी आयु 47 वर्ष की थी।

दुस्साहसिकों के संरक्षक

विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से अलग दार्शनिक दया कृष्ण, समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे और लीला दुबे आदि हम युवा दुस्साहसिकों के संरक्षक थे। शहर में परकोटे के नजदीक एक ‘कप धो होटल’ था। वहां बढ़िया चाय मिलती थी पर आपको पीने के बाद कप धोकर रखना पड़ता था। वहां अपने कम, श्यामाचरण दुबे और नामवर सिंह के बारहा धोए। शहर में पुस्तकों की तब दो दुकानें थीं। साथी बुक डिपो मित्र केदार के कारण हमारा अड्डा ही था। अकसर शाम को हम वहीं मिलते थे। सागर में साम्यवादी दल की स्थापना कुछ संपन्न परिवारों के युवकों ने की थी जिनमें आग्नेय के अलावा महेंद्र फुसकेले आदि शामिल थे।

वैसा शहर कहां

सागर ने जिद सिखाई, एक तरह की निडरता भी, धन और सत्ता से अनाक्रांत रहना भी। उन्हीं दिनों हुई एक गोष्ठी में एक बुजुर्ग कवि ने कहा था, ‘कविता अच्छी है पर चाय उससे बेहतर है।’ यह विनय का पाठ था कि दुनिया में हमेशा कविता से बेहतर मानी जाने वाली बहुत सारी चीजें होंगी। वहां पंडित कृष्णराव शंकर की गायकी सुनने से मन शास्त्रीय संगीत की ओर झुका और लोकप्रिय संगीत से छिटका सो आज मन वहीं झुका और वैसे ही छिटका है। एक शहर सागर मिला और उसे गंवाने के बाद कोई शहर वैसा न मिला, न कहीं उसे खोज पाए।

 

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