Advertisement

बिहार चुनाव में बड़ा सवाल, क्या अपने पिता की तरह कुशल राजनेता साबित हो पाएंगे चिराग पासवान

करिश्माई नेता रामविलास पासवान की गैर-मौजूदगी में उनके बेटे चिराग के राजनैतिक दांव कितने कारगर होंगे,...
बिहार चुनाव में बड़ा सवाल, क्या अपने पिता की तरह कुशल राजनेता साबित हो पाएंगे चिराग पासवान

करिश्माई नेता रामविलास पासवान की गैर-मौजूदगी में उनके बेटे चिराग के राजनैतिक दांव कितने कारगर होंगे, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन बिहार विधानसभा चुनावों को चिराग ने जरूर खासा दिलचस्प बना दिया है। उनके निशाने पर अनुभवी नीतीश कुमार हैं, जो लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में हैं। 243 सदस्यों वाली विधानसभा में चिराग की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के सिर्फ दो विधायक हैं, फिर भी 37 वर्षीय चिराग राजनीति के किसी चतुर रणनीतिकार की तरह अपने पत्ते खेल रहे हैं। हाल ही उन्होंने एनडीए से अलग होकर अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने का निर्णय लिया, इससे उनके बारे में कई तरह के कयास लगाए जाने लगे हैं। जाहिर है, यह दांव उनके पिता रामविलास पासवान की रणनीति शास्‍त्र से ही निकले हैं, जो हर चुनाव से पहले अचूक रणनीति बनाने के लिए जाने जाते थे। 74 वर्षीय रामविलास पासवान का लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर को दिल्ली में निधन हो गया। बिहार का चुनाव 51 वर्षों में पहली बार उनके बिना लड़ा जाएगा। उनके निधन ने चिराग को चुनावी रणभूमि में अकेले ला खड़ा किया है। यह उनके राजनैतिक करियर का सबसे महत्वपूर्ण समय है। उनके सामने दो महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं- एक, लोजपा का प्रदर्शन सुधारना और दूसरा, खुद को पिता की परंपरा आगे बढ़ाने के लायक साबित करना। उनके पिता बाबू जगजीवन राम के बाद बिहार के सबसे बड़े दलित नेता माने जाते थे।

पिता के निधन से उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जो क्षति पहुंची है, उसकी भरपाई के लिए उनके पास समय नहीं है। उन्हें अगले कुछ ही दिनों में अपनी सर्वश्रेष्ठ राजनैतिक क्षमता और सांगठनिक योग्यता साबित करनी पड़ेगी। जिसके पास सक्रिय राजनीति का दशकों पुराना अनुभव न हो, उसके लिए ये चुनौतियां काफी बड़ी हो सकती हैं। सो, सबकी नजरें अब इस बात पर टिकी हैं कि इस मुकाम को वे किस हद तक हासिल कर पाते हैं।

वैसे तो शुरुआत में चिराग राजनीति में नहीं आना चाहते थे, लेकिन इसमें कदम रखने के बाद उन्होंने तेजी से सीखा है। 2010 के विधानसभा चुनाव से कुछ ही हफ्ते पहले रामविलास पासवान ने इस बात से इनकार किया था कि उनके बेटे राजनीति में आएंगे। उस समय चिराग बॉलीवुड में पैर जमाने की कोशिश कर रहे थे। पासवान ने कहा था, “चिराग फिल्में कर रहे हैं। वे चुनाव में प्रचार के लिए आ सकते हैं, लेकिन राजनीति में नहीं आएंगे।”

उस समय चिराग कंगना रनौत के साथ अपनी पहली फिल्म मिले ना मिले हम की शूटिंग कर रहे थे। तब चिराग ने भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने में रुचि नहीं दिखाई थी। उनके पिता के नाम हाजीपुर से 1997 में सबसे अधिक अंतर से चुनाव जीतने का रिकॉर्ड है। 2011 में पटना में अपनी फिल्म के प्रीमियर के दौरान भी चिराग ने राजनीति को वैकल्पिक करियर के तौर पर चुनने में रुचि नहीं दिखाई थी। बीटेक की पढ़ाई के बाद वे हिंदी सिनेमा में पैर जमाना चाहते थे।

लेकिन यह सब अगले दो वर्षों में बदल गया। 2010 के विधानसभा चुनाव में लोजपा ने बेहद खराब प्रदर्शन किया और चिराग की फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर पिट गई। इससे उन्हें अपने करियर के बारे में दोबारा सोचने पर मजबूर होना पड़ा। पार्टी में नई जान फूंकने के लिए पिता को भी उनकी जरूरत महसूस हो रही थी। 2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद ज्यादातर वरिष्ठ नेता रामविलास पासवान का साथ छोड़ गए थे। ये दोनों चुनाव उन्होंने लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के साथ मिलकर लड़ा था। वे 2009 में हाजीपुर से संसदीय चुनाव हार गए और उनका केंद्रीय मंत्री का पद भी जाता रहा। काफी सोच-विचार के बाद चिराग ने राजनीति में आने और पिता की मदद करने का निर्णय लिया। उस समय पासवान का साथ छोड़कर जाने वाले नेता लोजपा को एक परिवार की पार्टी कह रहे थे।

अभिनय के करियर को विराम देकर चिराग बिहार के ग्रामीण इलाकों का दौरा करने लगे। शुरू में तो पार्टी के लोगों ने भी गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन जल्दी ही चिराग ने साबित किया कि वे किसी नौसिखिया से बढ़कर हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने पिता को भाजपा के साथ हाथ मिलाने के लिए राजी किया। उन्होंने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के बारे में पिता को बताया। पासवान दो कारणों से दुविधा में थे। एक तो यह कि 11 साल पहले 2002 में मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में दंगों के बाद वे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से अलग हो गए थे। दूसरे, बिहार में अपने सहयोगी लालू प्रसाद यादव का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे। पासवान के लोकसभा चुनाव हारने के बाद लालू उन्हें राज्यसभा में भेजने को तैयार थे। आखिरकार पासवान ने बेटे की बात मान ली। चिराग ने भाजपा के शीर्ष नेताओं से बात की और बिहार की 40 सीटों में से सात सीटें लेने में कामयाब रहे। जब पासवान मोदी सरकार में मंत्री बने तो लालू ने तंज कसते हुए उन्हें मौसम वैज्ञानिक कहा था। लेकिन सच तो यह है कि पिता से पहले चिराग ने 2014 में मोदी लहर को आते हुए देख लिया था।

चिराग का दांव कामयाब रहा और लोकसभा में लोजपा के सांसदों की संख्या छह हो गई, जो अब तक की सर्वाधिक थी। खुद चिराग ने जमुई (आरक्षित) सीट से बड़े अंतर से जीत हासिल की। हाजीपुर से उनके पिता भी जीते। अगले कुछ वर्षों में जब पासवान केंद्रीय मंत्री के तौर पर व्यस्त थे, चिराग ने पार्टी का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। 2019 के आम चुनाव में जब लोजपा ने प्रदर्शन दोहराया, तो पासवान ने पार्टी का दायित्व बेटे को सौंप दिया।

इन दिनों चर्चा यह भी है कि नीतीश को कमजोर करने की भाजपा की बड़ी योजना के तहत चिराग अलग चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि यह भी संभव है कि यह पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए सोची-समझी रणनीति हो। पिछले 15 वर्षों में उनकी पार्टी लगातार कमजोर हुई है। 2005 में लोजपा ने 29 सीटें जीतीं और उसे 13 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन 2015 के चुनाव में वह दो सीटों पर सिमट गई और वोट भी चार फीसदी रह गया। अहम बात यह है कि लोजपा ने जब भी राजद के साथ या एनडीए गठबंधन में चुनाव लड़ा, उसका प्रदर्शन खराब रहा है।

चिराग को लगता है कि भाजपा के शीर्ष केंद्रीय नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध हैं तो अकेले चुनाव लड़ने में हर्ज नहीं। वे नीतीश के साथ वैचारिक मतभेद की बात करते हैं तो दूसरी तरफ मोदी के नेतृत्व में भरोसा जताने से भी नहीं चूकते। हालांकि यह जोखिम भरा भी हो सकता है। नतीजे अच्छे हुए तो उनका भविष्य बेहतर होगा, लेकिन अगर हार गए तो बिहार की राजनीति में अलग-थलग पड़ जाएंगे।

उनके सामने एक बड़ा लक्ष्य भी है, पिता की मौत के बाद दलित नेतृत्व में खाली हुई जगह को भरने का। उनके पिता पहली बार 1969 में विधायक बने थे। उनमें एक खास क्षमता थी। चुनाव में वे चाहे जिस दल के साथ गठबंधन करें, अपने समर्थकों को वोट डालने के लिए तैयार कर लेते थे (राज्य में पासवान वोट करीब 4.5 फीसदी हैं, जिन पर उनकी पकड़ कभी ढीली नहीं पड़ी)। उनकी अंत्येष्टि में जुटी भारी भीड़ उनकी लोकप्रियता को बताती है। चिराग उन मतदाताओं से जुड़ने और पिता की तुलना में एक अंश भी लोकप्रियता हासिल करने में कामयाब रहे, तो बड़े भाग्यशाली होंगे। इसलिए उनकी वास्तविक परीक्षा तो इन चुनावों के बाद भी होती रहेगी।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad