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दुष्यंत कुमार और हबीब तनवीर जयंती- अपनी दुनिया और अलग रास्ते बनाने वाले दो फनकार, सत्ता को ललकारते हैं जिनके शब्द

ग़ज़ल और नाटक दोनों ही विधाएं किसी बरगद की तरह उम्रदराज़ हैं। दोनों विधाओं ने परंपरागत परिवेश से बाहर...
दुष्यंत कुमार और हबीब तनवीर जयंती- अपनी दुनिया और अलग रास्ते बनाने वाले दो फनकार, सत्ता को ललकारते हैं जिनके शब्द

ग़ज़ल और नाटक दोनों ही विधाएं किसी बरगद की तरह उम्रदराज़ हैं। दोनों विधाओं ने परंपरागत परिवेश से बाहर निकल कर नए माहौल में नयी ज़िन्दगी हासिल की, दोनों का जादू परंपरा और प्रयोग के साथ लालित्य के रसिकों को चौंका रहा है। दरअसल इनके नेपथ्य में वह लोग हैं जो इन विधाओं से इश्क करते हैं लेकिन इनसे इनकी छाप तिलक नहीं छिनते बल्कि इनके माथे पर जगह तलाश कर के अपनी छाप और तिलक सजा देते हैं।  

आज मैं ग़ज़ल और नाटक के दो ऐसे रांझों को सलाम कर रहा हूँ, जिन्होंने इन दोनों विधाओं की साँसों में इज़ाफ़ा किया और उनके चेहरे पर ताज़गी का नूर रौशन किया। ज़िक्र है रंगमंच के नटसम्राट हबीब तनवीर और हिंदी ग़ज़ल के राजकुमार दुष्यंत कुमार का। हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर 1923 को रायपुर (छ.ग.) और दुष्यंत कुमार का 1 सितम्बर 1933 को बिजनौर (उ.प्र.) में हुआ।

(साहित्यकार डॉ. विजय बहादुर सिंह के अनुसार दुष्यंत कुमार की जन्मतिथि27 सितम्बर 1931 है, ब-हर-हाल1 हो या 27,है तो सितम्बर ही)

हबीब तनवीर रंगकर्मी थे तो शायर भी थे,अगर रंगकर्मी ना होते तो शायर के रूप में जाने जाते। दुष्यंत कुमार कवि ग़ज़लकार थे, तो उन्होंने नाटक भी लिखे। दुष्यंत की शिक्षा इलाहाबाद में पूरी हुई तो हबीब तनवीर एम.ए. के लिए अलीगढ़ गए। दोनों का ताल्लुक रेडियो से रहा, फिल्मों से भी जुड़ाव रहा। दोनों कभी ना कभी सरकारी नाराज़गी का शिकार हुए। दोनों की कर्मभूमि भोपाल रही और दोनों ने अंतिम सांस भोपाल में ली। दोनों ने साहित्य और कला को जीवन के लिए मान कर उसके ज़रिये ज़िन्दगी और सामाजिक, राजनीतिक अव्यवस्थाओं, नाइंसाफी और ना बराबरी को उजागर किया और विशाल कला केनवसपर अपनी ज़बरदस्त पहचान स्थापित की।    

सार्थक रंगकर्म और नाटक की बात जब होती है तो हबीब साहब का नाम सोच की सतह पर अपने आप उभर आता है। इसी तरह ग़ज़लों की सल्तनत में जो एक राजकुमार अपनी हिंदी ग़ज़लों के साथ दूर से मुस्कुराता नज़र आता है वह है दुष्यंत कुमार। हबीब साहब और दुष्यंत जी को मैं लगभग एक ही दौर का फनकार मानता हूँ तो ज़ाहिर है कि दोनों के चिंतन का फोकस भी एक ही होगा, क्योंकि समस्याएं और ज़रूरतें हर दौर की एक सी होती हैं, हालाँकि दुष्यंत, हबीब साहब से बहुत पहले इस दुनिया से चले गए। 

किसी भी कलाकार को अपनी यात्रा के दौरान कोई विधा, कोई रचना ऐसी मिल जाती है कि वह उसकी पहचान बन जाती है। कवि दुष्यंत कुमार त्यागी को कविता, कहानी,उपन्यास,रूपक और नाटक लिखते हुए उनकी शकुंतला के रूप में हिंदी ग़ज़ल मिल गयी जिसने उन्हें अमर कर दिया और हबीब अहमद खान यानि हबीब तनवीर को फ़िल्मी पत्रकारिता, अभिनय और संस्मरण आदि लिखते हुए महबूबा की शक्ल में मिला नाटक। 

ग़ज़ल दुष्यंत से पहले भी लिखी जा रही थी,भारतेंदु ने भी ग़ज़लें कही हैं लेकिन दुष्यंत ने ग़ज़ल को जो पैराहन बख़्शा उसने हिंदी ग़ज़ल को ताज़गी अदा की। उनके कुछ शेर देखिये:

कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए 

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए 

ना हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे 

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा 

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं 

गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं 

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में हैज़ेरेबहस ये मुद्दआ

और यह शेर जो मुहावराबन चुका है सड़क, सभाओं और पार्लियामेंट तक में गूंजते हैं: 

हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं 

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता 

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों 

दुष्यंत का ये बेबाक अंदाज़ और खुरदुरी लेकिन रौबीली आवाज़ जब ग़ज़ल के शाही महलों से टकराई तो मखमली ग़ज़लें सुनने के आदी आलोचक और समीक्षकों के हसीनख़्वाब अचानक टूटे और दुष्यंत की इस शैली पर ऐतराज़ होने लगे,लेकिन तब तक दुष्यंत उन बुलंद महलों के सामने अपनी एक अलग दुनिया बनाने में कामयाब हो चुके थे,जिसमें अवाम केजज़्बातऔर मेहनतकशों की धड़कनें बहुत सीधी, सरल भाषा में अपना मकसद बयान करती हैं और इस तरह दुष्यंत ने ग़ज़ल को एक नया रास्ता दिखाया, जिस पर उनके बाद के बहुत से ग़ज़लकार चलने की कोशिश कर रहे हैं।  

हबीब तनवीर ने जब नाटक की दुनिया में क़दम रखा तो रस और सौंदर्य के बहुत से गढ़ कायम थे लेकिन उन्होंने उनको छेड़े बग़ैर अपने लिए नयी बस्तियां तलाश कर लीं और छत्तीसगढ़ के गुमनाम आदिवासी कलाकारों कोअंतर्राष्ट्रीय फलक तक पंहुचा कर, लोकल को ग्लोबल बना कर सबको हैरान कर दिया। हबीब साहब ने दूसरे लेखकों के नाटक भी किये और अपने लिखे नाटक भी मंचित किये। उनके नाटक ‘‘आगरा बाज़ार, चरणदास चोर और मिटटीकीगाड़ी’’ जो उनके सिग्नेचर बने, के अलावा कुछ ऐसे नाटक, ऐसे विषय भीउन्होंनेउठाये जिन पर उनसे पहले कोई दूसरा रंगकर्मी काम करनेकी हिम्मत नहीं कर सकता था जैसे ‘‘शाजापुर की शांता बाई, हिरमा की अमर कहानी, बहादुर कलारिन’’ वगैरह। हबीब साहब ने हिंदी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी में नाटक लिखे और जीवित किये। इन नाटकों को देख कर महसूस होता है कि नाटक जो पहले किसी वर्ग विशेष के प्रभाव तक सीमित था, हबीब तनवीर ने उसे अवाम से और अवाम को उससे जोड़ा और किसी की परवाह किये बिना आम आदमी के सवाल उठाये, अंधविश्वास के खिलाफ आवाज़ बुलंद की और अपने काम को सार्थक बनाया। 

दुष्यंत हों या हबीब, दोनों ने ही अपने लिए अलग रास्ते बनाये। दोनों ने पुरानी लकीरों को मिटाए बिना उनके सामने अपनी लकीरें खींच कर अपने आपको वक़्त की किताब का एक अभिन्न पन्ना बना लिया।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)     

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